राम-रावण युद्ध का लौकिक विवरण
जहाँ राम एक अवतार और अलौकिक पुरुष न होकर केवल एक साधारण मनुष्य हैं। जिन्होने वानर नामक एक साधारण जनजाति की सहायता से उस समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को हराया । जिसका राजा स्वयं दशानन रावण था। जिसके पराक्रम के सामने देवता भी नतमस्तक थे।यह रचना वर्णन करती है श्री राम का जो एक महान सेनापति और योद्धा होने के साथ-साथ कूटनीतिज्ञ भी है।
युद्धकाण्ड{ भाग-१}
राम की सेना सागर तट तक पहुँच चुकी थी। हनुमान के बताए अनुसार समुद्र के बीच स्थित एक टापू पर रावण की राजधानी लंका स्थित थी। वहीं रावण ने सीता को बंदी बना रखा था। सेना के लिए सबसे अधिक चिंता की बात थी कि इस विशाल सागर को पार कर लंका कैसे पहुँचा जाए। हनुमान ने अथाह वीरता का परिचय देते हुए सागर को तैर कर पार किया था और सीता का पता लगाकर सकुशल वापस भी लौट आये थे। परंतु किष्किंधा की पूरी वानर सेना के लिए यह कार्य असंभव नही तो अत्यंत दुष्कर तो था ही। राम की सेना पहले ही रावण की सेना से हर मामले में कम थी। फिर वह आयुध भंडार की बात हो या सैनिको की संख्या की। दूसरा, इतनी बड़ी सेना यदि तैर कर समुद्र लांघने का प्रयत्न भी करे तो जीवन क्षति की संभावना अत्यंत अधिक थी और राम किसी भी परिस्थिति में अपने सैनिकों को व्यर्थ में मरने नही दे सकते थे , इस समस्या के समाधान के लिए राम ने वानरों का एक दल नल और नील नामक अपने दो सेनापतियों की अगुवाई में समुद्र तथा उसके आस-पास के जन स्थानों का निरीक्षण करने के लिए भेजा था।
लक्ष्मण के लिए ये समय व्यतीत करना कठिन था। ज्यो-ज्यो समय बीता जा रहा था, उनका धैर्य उनका साथ छोड़ रहा था। लक्ष्य के इतने निकट आकर भी वे अपने लक्ष्य से इतने दूर थे। जिस रावण का ठिकाना जानने के लिए वे वन-वन भटके आज उसके बारे में सब कुछ जान लेने के बाद भी वह उनकी पहुँच से दूर था। कभी-कभी वह सोचते कि अपने दिव्यास्त्रों के प्रयोग से सागर को ही सूखा दें, लेकिन उनके बड़े भाई उन्हें ऐसा अनुचित कार्य कभी नही करने देंगे। उन्होंने तुरंत एक वानर सैनिक को बुलावा भेजा। सैनिक ने आकर लक्ष्मण को प्रणाम किया और कहा, “मेरे लिए क्या आज्ञा है प्रभु?” लक्ष्मण ने पूछा, “क्या नल और नील अपने दाल के साथ सागर का निरीक्षण कर लौट आये हैं?” “अभी तक नही प्रभु।” सैनिक ने उत्तर दिया। लक्ष्मण कुछ निराश से हुए। फिर उन्होंने सैनिक से कहा, “ठीक है। जैसे ही उनका दल वापस आये मुझे तुरंत सूचित करना।” सैनिक लक्ष्मण को प्रणाम कर चला गया। लक्ष्मण सोच में पर गए। “आखिर नल-नील को इतना समय क्यों लग रहा है? हो सकता है कि वो अभी भी अपने कार्य मे लगे हों। आखिर सागर का निरीक्षण करना इतना सरल कार्य भी तो नही है। इस आशा के साथ कि वो दोनों जल्द ही अपना कार्य पूर्ण कर वापस आ जाएंगे लक्ष्मण, राम के शिविर की ओर चले पड़े। संध्या का समय हो चुका था। सूर्यदेव भी क्षितिज पर अस्त हो रहे थे। सागर के जल की लहरें भी इस समय शांत हो चली थीं। ऐसा लग रहा था मानो प्रकृति दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद अब विश्राम कर रही हो। कुछ वानर सैनिक समुद्र तट पर खड़े पहरा दे रहे थे। यकायक क्षितिज पर एक उभरते हुए बिंदु ने इन सैनिकों का ध्यान खींचा। सभी सैनिक पूरी तरह चौकन्ने हो गये। धीरे-धीरे वह बिंदु बड़ा होने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे कोई नौका तीव्र गति से सागर तट की ओर बढ़ी चली आ रही हो। एक वानर सैनिक ने आक्रमण की आशंका से अपने साथी सैनिक को कहा, “जाओ! जाकर जल्दी से राजकुमार अंगद को सूचित करो। शायद हम पर अकस्मात ही राक्षसों का आक्रमण होने वाला है।” वह सैनिक तुरंत ही जाकर राजकुमार अंगद को उनके शिविर से बुला लाया। अंगद तुरंत अस्त्र-शस्त्र से सज्जित हो उन पहरेदार सैनिकों के पास पहुँच गए। इस समय तक नौका भी स्पष्ट नजर आने लगी थी। अंगद ने दूर से ही जहाज का निरीक्षण किया। ये जहाज लंका का पारंपरिक युद्ध जहाज नही था। अपितु यह तो एक छोटी सी नौका थी जिसमे केवल पांच लोग बैठे हुए थे, उन सब मे से किसी के पास कोई अस्त्र-शस्त्र नही था। फिर भी अंगद किसी भी प्रकार की असावधानी बरतना नही चाहते थे। उन्होंने लंका के राक्षसों की मायावी शक्तियों के बारे में काफी किस्से सुन रखे थे। हो सकता है इन लोगो के पास भी मायावी शक्तियां हो। उन सब मे से एक व्यक्ति वेश-भूषा से राजकुल का लग रहा था। उसके शरीर पर रत्न-जड़ित आभूषण थे और एक कंधे पर उसने लंबा अंग वस्त्र डाल रखा था। सिर पर रत्न जड़ित मुकुट भी था। वस्त्र भी कीमती लग रहे थे। ये वेश-भूषा किसी साधारण लंका निवासी की तो नही हो सकती। अंगद ने मन ही मन सोचा। नौका के किनारे आते ही वानर सैनिकों ने इन लोगो को घेर लिया।
उनमे से एक वानर सैनिक ने उनसे पूछा, “कौन हो तुम लोग? तुम्हारे यहां आने का प्रयोजन क्या है?” राजसी वेश-भूषा वाले व्यक्ति ने सैनिक से कहा, “मैं लंका से आया हूँ। मुझे आपके सेनापति से भेंट करनी है। उनसे कहिये की लंका से श्री राम के लिए एक जरूरी संदेश लेकर विभीषण आया है। अंगद उस व्यक्ति के सम्मुख आये। “मैं किष्किंधा नरेश स्वर्गीय महाराज बाली का पुत्र युवराज अंगद हूँ। तुम अपना संदेश मुझसे कह सकते हो।” अंगद ने कहा। विभीषण ने हाथ जोड़कर अंगद का अभिवादन किया और कहा, “युवराज! मैं लंका नरेश, दशानन रावण का अनुज विभीषण हूँ और मैं अपने चार अमात्यों के साथ श्री राम से मैत्री संधि करने आया हूँ।” अंगद इस व्यक्ति का परिचय सुनकर चौंक गए। उन्होंने मन ही मन सोचा, “रावण का अनुज विभीषण श्री राम से मैत्री संधि करने आया है। कहीं ये रावण का कोई षडयंत्र तो नही। अपने ही भाई को हमारा मित्र बनाकर हमारा भेद जानना चाहता हो।” विभीषण ने अंगद से कहा, “किस सोच में पड़ गए युवराज? कृपया मेरा संदेश शीघ्र श्री राम को दे दीजिए।” अंगद कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोले, “ठीक है। मैं आपका संदेश श्री राम को दे कर और उनकी आज्ञा लेकर आता हूँ लेकिन तब तक आप सभी लोगों को यही ठहरना होगा।” “जैसी आपकी आज्ञा युवराज।” , विभीषण बोले। अंगद ने यूथपति को आज्ञा देते हुए कहा, “जब तक मैं वापस ना आ जाऊँ, तब तक इन सभी को यहां से आगे मत बढ़ने देना।” “जो आज्ञा युवराज।” ,यूथपति ने हाथ जोड़ते हुए कहा। और अंगद अपनी गदा को कंधे पर रख श्री राम के शिविर की ओर चल पड़े। अपने शिविर में बैठे राम भविष्य की योजनाओं पर विचार-विमर्श कर रहे थे। इस समय उनके साथ लक्ष्मण के अलावा किष्किंधा नरेश महाराज सुग्रीव, रीछपति जाम्बवन्त और हनुमान भी मौजूद थे। सभी इस बात को लेकर चिंतित थे की विशाल समुद्र को लांघकर लंका सुरक्षित कैसे पहुचा जाए। इसी समय अंगद ने शिविर में प्रवेश किया, “प्रणाम प्रभु। आपके लिए एक अत्यंत आवश्यक समाचार है।” अंगद एक ही सांस में अपनी बात कह गए। उनकी इस तीव्रता को देखकर सभी लोग थोड़े से विचलित हुए। सुग्रीव ने सबसे पहले पूछा, “क्या बात है पुत्र? क्या समाचार है?” अंगद सुग्रीव से बोले, “काकाश्री! लंका से कुछ व्यक्ति हमारे यहां पधारे है।” “लंका से!”, जाम्बवन्त एक दम से बोल पड़े। “हाँ जाम्बवन्त जी। उनमे से एक अपने आप को लंका नरेश रावण का अनुज विभीषण कहता है।” ,अंगद ने कहा। ” क्या!! क्या विभीषण जी आये है?” हनुमान के मुख से रावण के भाई के लिए ‘जी‘ संबोधन सुनकर सभी लोग थोड़े से आश्चर्य चकित हुए। राम ने बड़े ही शालीनता के साथ अंगद से पूछा, “राजकुमार अंगद, क्या उन्होंने अपने यहां आने का कारण बताया?” अंगद बोले, “हाँ प्रभु। उन्होंने कहा कि वो आपके साथ मैत्री संधि करने आये है। वो आपकी शरण मे आना चाहते हैं।” लक्ष्मण जो कि अब तक चुप थे पूरे आवेश के साथ बोल पड़े, “लगता है रावण में अब इतना साहस भी नही बचा की स्वयं आकर प्रभु श्री राम के सामने दया याचना कर सके। शायद इसलिए अपने अनुज को भेजकर श्री राम के क्रोध से बचना चाहता है। परंतु वो नही जानता कि सीता भाभी का अपहरण करके उसने जो अपराध किया है उसके लिए उसे क्षमा नही दंड ही मिलेगा। राजकुमार अंगद…! आप इसी समय उस विभीषण को बंदी बनाकर श्री राम के सम्मुख ले कर आइये। मैं रावण को बता देना चाहता हूँ कि श्री राम की पत्नी का हरण करने का क्या परिणाम भुगतना पड़ता है।” लक्ष्मण का क्रोध देखकर हनुमान को किसी अनहोनी का डर सताने लगा। बिना किसी देरी के उन्होंने श्री राम से याचना की, “प्रभु…! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ।” श्री राम हनुमान को देखकर मुस्कुराए और उनके कंधे पर अपना हाथ रखते हुए बोले, “केसरी नंदन… तुम्हे कुछ भी कहने के लिए मेरी आज्ञा लेने की आवश्यकता नही है। जो भी मन मे हो कहो।” हनुमान राम की इस अनुकम्पा पर मन ही मन विह्वल हो उठे और बोले, “प्रभु विभीषण जी बहुत ही धर्मात्मा व्यक्ति है। लंका में सीता माता का पता उन्होंने ही मुझे बताया था। यहां तक कि जब मेघनाद ने मुझे बंदी बनाकर रावण के सम्मुख प्रस्तुत किया था और रावण मुझे मृत्युदंड देने वाला था तब विभीषण जी ने ही मेरे प्राणों की रक्षा की थी। भरी सभा मे उन्होंने सीता माता का अपहरण करने के लिए रावण की आलोचना भी की थी। वे तो स्वयं अपने ज्येष्ठ भ्राता के द्वारा अपमानित और सताए हुए है। अगर वो आपकी शरण मे आये है तो आपको उनकी बात सुन लेनी चाहिए ऐसा मैं समझता हूँ प्रभु। आगे जैसी आपकी आज्ञा।” हनुमान की पूरी बात सुनकर राम कुछ समय के लिए मौन रहे फिर अंगद की तरफ मुड़कर उन्होंने कहा, “राजकुमार अंगद…! आपने महाबली हनुमान की सारी बाते सुन ली है। अब आप जाइये और महाराज विभीषण को आदर सहित हमारे पास ले आइये।” अंगद ने कहा, “जो आज्ञा प्रभु” और वे उपस्थित सभी लोगो को प्रणाम कर शिविर से बाहर निकल गए। अंगद के जाते ही लक्षमण जो कि इतने समय से चुप थे राम से बोल पड़े, “भैया…! वो रावण का भाई है। हमे किसी भी प्रकार से उसका विश्वास नही करना चाहिए।” राम लक्ष्मण की उत्तेजना को जानते थे। सीता हरण के बाद से ही लक्ष्मण रावण का वध कर देना चाहते थे। आज रावण का एक निकट का संबंधी जब उनके सामने था तो वो तुरंत उसका अहित करके रावण को चेतावनी देना चाहते थे कि अब उसका अंत निकट है। राम ने लक्ष्मण से बड़े प्रेमपूर्वक कहा, “लक्ष्मण। मैं तुम्हारे क्रोध को भली भांति समझ रहा हूँ। लेकिन भैया! ये भी तो सोचो कि वो व्यक्ति हमारी शरण मे आया है। और शरण मे आये हुए की रक्षा करना एक क्षत्रिय का परम धर्म है।” लक्ष्मण अच्छी तरह जानते थे कि राम किसी भी मूल्य पर अपने धर्म का त्याग नही करेंगे। आज जीवन मे पहली बार वो अपने भाई से असहमत थे परंतु अपनी असहमति को वे जाहिर नही करना चाहते थे क्योंकि यदि कभी उन्होंने ऐसा किया तो यह उनके जीवन का अंतिम कार्य होगा।
इतने में ही अंगद विभीषण को अपने साथ राम के शिविर में ले आये। उनके साथ विभीषण के चार अमात्य भी थे। विभीषण ने शिविर के भीतर प्रवेश करते ही एक पुरुष को देखा। श्याम वर्ण का एक व्यक्ति जिसका वेश ऋषि मुनियों के समान था परंतु चेहरे का तेज एक क्षत्रिय योद्धा और किसी उच्च कुल के राजकुमार के जैसा। विभीषण को ये समझते देर ना लगी कि यही व्यक्ति राम हैं और जो दूसरा व्यक्ति उन्ही के समान वेश भूषा में उनके दाहिने ओर के कुश के आसन पर बैठा है जिसकी विशालकाय आकृति स्वयम काल को भी भयभीत कर दे वो लक्ष्मण है। विभीषण ने राम के सम्मुख प्रस्तुत होकर उन्हें दोनो हाथ जोड़कर नमस्कार किया, “अयोध्या नरेश, रघुकुल शिरोमणि राजा राम त्रिलोक विजेता लंकाधिपति रावण के अनुज विभीषण का प्रणाम स्वीकार करें। मित्र हनुमान ने जैसा आपकी महिमा का बखान किया था, आपका व्यक्तित्व ठीक उसी प्रकार का है। आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हुआ।” विभीषण के मुख से अपने लिए ऐसे वचन सुनकर राम मुस्कुरा दिए और उन्होंने विभीषण को आदर सहित संबोधित करते हुए कहा, “राम के शिविर में आपका स्वागत है, लंकेश।” अंतिम शब्द को सुनकर विभीषण के चेहरे की मुस्कुराहट गायब हो गई। एक पल के लिए उन्हें लगा कि कहीं राम उनके साथ कोई परिहास तो नही कर रहे। कहीं रावण से अपने अपमान का बदला लेने के लिए उन्हें राम से भी इसी प्रकार अपमानित तो नही होना पड़ेगा। राम ने पुनः कहा, “किस सोच में पड़ गए मित्र।” राम के इन शब्दों को सुनकर विभीषण अपनी चेतना से बाहर आये। उन्होंने राम से कहा, “क्षमा करें प्रभु किंतु मुझे लगता है कि आपने मुझे जो संबोधन किया है उसमें कोई त्रुटि है। मैं नही, मेरे ज्येष्ठ भ्राता, रावण लंकेश है।” राम ने फिर अपनी सदा उत्साहित करने वाली मुस्कान के साथ कहा, “रावण का वध अब मेरे हाथों होगा। उसके बाद आप ही लंका के राजा होंगे। मेरा सम्बोधन आपके प्रति पूरी तरह सही है।” विभीषण समझ नही पाए कि राम के इस बात का वे क्या उत्तर दें। वे तो केवल अपने अपमान का बदला लेने के लिए राम के साथ रावण के विरुद्ध सन्धि करना चाहते थे। लेकिन राम ने यहां उन्हें पूरी लंका देने की बात कह दी। राम फिर बोले, “आप किसी भी प्रकार की चिंता ना करे मित्र। आप हमारी शरण मे आये है। आपकी सुरक्षा अब केवल मेरा दायित्व ही नही धर्म भी है। ये मेरा वचन है कि मेरे जीवित रहते रावण तो क्या कोई भी व्यक्ति यदि आपको हानि पहुचाने का प्रयास करेगा तो उसे सर्वप्रथम राम का सामना करना होगा। अब आप निश्चिन्त होकर विश्राम करें। कल प्रातः सूर्योदय के साथ मैं स्वयं लंका नरेश के रूप में आपका राज्याभिषेक करूँगा।” अंगद की तरफ मुड़ते हुए राम बोले, “राजकुमार अंगद। विभीषण जी को पूरे सम्मान के साथ अतिथि शिविर में ले जाओ और इनके विश्राम करने का प्रबंध करो।” राम ने विभीषण की ओर देखते हुए कहा, “जाइये मित्र अब जाकर विश्राम कर लीजिए। इतनी बड़ी समुद्री यात्रा करके आप थक चुके होंगे।” विभीषण ने अपने चेहरे पर बनावटी हंसी के साथ राम को प्रणाम किया और अंगद के पीछे-पीछे राम के शिविर से बाहर निकल गए। विभीषण की चाल में अभी वो फुर्ती नही थी जो शिविर में आते समय थी। राम विभीषण की इस अवस्था पर थोड़ा मुस्कुराए और विभीषण को अंगद के पीछे जाते हुए देखते रहे जब तक कि वे आंखों से ओझल ना हो गए। शिविर में उपस्थित अन्य लोग राम के इस व्यवहार से थोड़े आश्चर्यचकित थे। सब राम से यही पूछना चाहते थे कि आखिर राम ने बिना कोई सोच-विचार किये विभीषण को लंका का राजा बनाने का वचन क्यों दे दिया। हनुमान भी नही समझ पा रहे थे कि राम के मस्तिष्क में क्या योजना चल रही है। राम ने बाकी सब लोगो को भी अपने-अपने शिविर में जाकर विश्राम करने की सलाह दी और स्वयम सागर तट की ओर चल पड़े।
vv v vv
दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………
Osm sir-G.