विद्या – प्रेमी सम्राट परीक्षित्
चक्रवर्ती युधिष्ठिर के बाद परीक्षित् भारत के सम्राट बने। वे अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र थे। अभिमन्यु कृष्ण के भांजे थे, अतः परीक्षित कृष्ण के वंश से सम्बन्धित थे। उन्होने कृष्ण की ही नीतियों का अनुसरण किया और कृष्ण के ही प्रतिरूप माने जाने लगे। प्रशिद्ध महाभारत युद्ध के समय परीक्षित अपनी माँ उत्तरा के गर्भ में थे।अतः परीक्षित का जन्म वर्ष निश्चित ही है। युधिष्ठिर का शासन काल 36 वर्ष या 62 वर्ष माना जाता है। यह भी सम्भावना प्रतीत होती है कि युधिष्ठिर का शासनकाल 62 वर्ष मानने वालों ने महाभारत से पूर्व इन्द्रप्रस्थ में उनका शासन काल भी सम्मलित कर लिया होगा।
चक्रवर्ती सम्राट परीक्षित को उत्तराधिकारी को विशाल साम्राज्य मिला था। पश्चिम में द्वारिका से पूर्व में मणिपुर तक तथा उत्तर में गान्धार(अफगानिस्तान) से दक्षिण में महासागर तक उनका साम्राज्य विस्तृत था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र युद्ध के बाद युधिष्ठिर के साम्राज्य में सम्मिलित हो गया था। परीक्षित ने योग्यता और कुशलता पूर्वक उस विशाल साम्राज्य पर शासन किया। उन्होनें ज्ञान विज्ञान और धर्म दर्शन का विकास करने का भी प्रयास किया। मोटे तौर पर सम्राट परीक्षित के शासन काल में देश में शान्ति रही। किसी विद्रोह या युद्ध की सूचना हमकों नहीं मिलती है। लेकिन नाग कुल से पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। महाभारत युद्ध से पूर्व खाण्डव वन जलाकर इन्द्रप्रस्थ नगरी की स्थापना के समय अनेक नाग लोग उस वन की आग में जलकर मर गये थे। कुछ ही नाग उनमें से जीवित निकल सके थे। अतः नागों ने पाण्डव कुल से सदा ही शत्रुता मानी।
परीक्षित की मृत्यु नागों के द्वारा ही हुई।इस सम्बन्ध में प्रचलित कथाओं में कविकल्पना के साथ धार्मिक अलौकिकता का भी समावेश हो गया है। अतः घटना क्रम को पूर्णतः स्पष्ट रूप से समझ पाना कठिन है। फिर भी ऐसा लगता है कि शिकार खेलते समय किसी दिन वन में अकेला पड जाने पर उन्हें नागों ने घेर लिया और उन्हें जीवित जलाने का प्रयास किया। परीक्षित् तो वहाँ से किसी तरह निकल आए, लेकिन बच नहीं सके और घटना के सातवें दिन उनकी मृत्यु हो गयी। एक मत राजमहल में ही परीक्षित की हत्या की ओर संकेत करता है। लेकिन इसकी सम्भावना कम प्रतीत होती है। परीक्षित के उत्तराधिकारी उनके पुत्र जनमेजय ने जिस प्रकार से पिता की हत्या का बदला लेने के लिए नागों को खोज खोज कर जीवित जलाने के लिए नागयज्ञ की अग्नि प्रज्वलित की, उससे भी यही ध्वनि निकलती है कि सम्राट परीक्षित को नागों ने जीवित जलाने का प्रयास किया था। जो नगर से दूर वन में ही सम्भव हो सकता है। जनमेजय का नागयज्ञ हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का प्रमुख नाटक भी है। यह सत्य है कि नाटक इतिहास नहीं होता है, लेकिन यह भी सत्य है कि प्रसाद के नाटक इतिहास के गम्भीर अनुशीलन का ही परिणाम है।
सम्राट परीक्षित का शासन काल 60 वर्ष रहा। इस प्रकार परीक्षित की हत्या 66 वर्ष की आयु में हुई। राज्यभिषेक के समय वे 26 वर्ष के थे। इस प्रकार परीक्षित को अपेक्षाकृति कम आयु में सत्ता मिल गई और उन्होंने दो पीढियों की अवधि में स्वयम् शासन किया। यदि उनके पिता अभिमन्यु महाभारत में मारे नहीं जाते तो युधिष्ठिर के बाद वे सम्राट बनते तथा उनके बाद परीक्षित को शासन मिल पाता। उस स्थिति में परीक्षित का शासनकाल साठ वर्ष से बहुत कम होता। प्राचीन इतिहास में परीक्षित को महान सम्राट माना जाता है। उन्हें किसी युद्ध या विद्रोह का सामना नहीं करना पडा, अतः उनकी सैनिक कुशलता की परीक्षा नहीं हो सकी। लेकिन इससे यह भी तो स्पष्ट होता है कि उनकी सैन्य शक्ति इतनी सबल और शासन नीति इतनी सफल थी कि उन्हें किसी तरह का सैनिक भय उत्पन्न नहीं हुआ। शकुनि के गान्धार ने विद्रोह का साहस नहीं किया और किसी पडोसी देश ने भी आक्रमण नहीं किया। सम्राट परीक्षित निश्चिन्तता पूर्वक विशाल भारत वर्ष का शासन करते रहे। उनके साम्राज्य को वर्तमान परिस्थिति में भारत के स्थान पर दक्षिण एशिया कहना अधिक उपयुक्त होगा। वे वर्तमान अफगानिस्तान सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के सम्राट बने थे। शान्ति व्यवस्था बनाये रखना उनकी प्रमुख उपलब्धि थी।
परीक्षित का महत्व विद्याप्रेमी सम्राट के रूप में अधिक है। युधिष्ठिर के शासन काल में कृष्ण द्वैपायन व्यास ने जय नामक इतिहास ग्रन्थ की रचना की थी। परीक्षित के शासन काल में उसका विस्तार कर भारत नाम दिया गया। मूल पुराण की भी रचना परीक्षित के शासन काल में की गई। पुराण संहिता जय और भारत की अगली कडी थी। पुराण किसी व्यक्ति विशेष की रचना न होकर सामूहिक प्रयास था। देश भर के अनेक विद्वानों ने उसके लिए सामग्री का संकलन किया था। पुराण को प्राचीनतम विश्वकोष मान जाना चाहिये। पुराण के पांच लक्षण सर्ग, प्रतिसर्ग, मन्वन्तर, वंश और वंशानुचरित हैं। इस प्रकार पुराण भारतीय धर्म, दर्शन और इतिहास का प्रमुख संकलन है। वर्तमान विष्णु पुराण उस मूल पुराण का निकटतम रूप माना जाता है। आधुनिक विद्वान इतिहास की दृष्टि से उसे ही सर्वाधिक प्रमाणिक मानते हैं। उसमें साम्प्रदायिक खण्डन मण्डन भी नहीं है और वैसा धार्मिक आडम्बर भी नहीं है। जिसके कारण पुराणों को सामाजिक समरसता के लिए अभिशाप और हेय माना जाता है।
विष्णु पुराण में कृष्ण का विस्तृत जीवन चरित्र है और काफी विश्वसनीय और ऐतिहासिक है। कृष्ण की तथाकथित रासलीला और अन्यकल्पित आरोपकारी कथायें भी उसमें नहीं है। समकालीन इतिहास को जोडते रहने की परम्परा बनाये रखने के लिए पुराणों की शृङ्खला आरम्भ हुई, लेकिन बाद के पुराण ऐतिहासिक कम और साम्प्रदायिक अधिक प्रतीत होते हैं। अनेक पुराणों में निर्धारित पांच लक्षण भी नही मिलते हैं।
पूरे राष्ट्र में ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन और विद्वानों के विशाल सम्मेलन में संकलन सम्पादन की योजना परीक्षित की प्रमुख देन है। विभिन्न स्रोतों से कृष्ण से पूर्व का इतिहास भी संकलित किया गया और परवर्ती इतिहास जोडते रहने की परम्परा भी डाली गयी। नैमीसारण्य में चौरासी हजार ऋषियों का सम्मेलन और पुराण संकलन की बात बहुत ही प्रशिद्ध है। इस प्रकार के आयोजनों और यौजनाओं के बावजूद यह कहना स्वयम् को धोखा देना ही कहा जा सकता है कि भारत का प्राचीन इतिहास उपलब्ध नहीं है। हमें केवल सम्राट परीक्षित जैसे इतिहास प्रेमी की परम्परा को आगे बढाने की जरूरत है।
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सम्राट जनमेजय और नागयज्ञ
सम्राट परीक्षित की हत्या के पश्चात उनके पुत्र जनमेजय सत्तासीन हुए। उनके तीन भाई श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन थे। अत्यन्त दुःखद और तनावपूर्ण वातावरण में जनमेजय का राज्यभिषेक हुआ था। समझा जा सकता है कि चारों भाइयों ने अपने पिता चक्रवर्ती सम्राट परीक्षित की चिता पर ही नाग लोगो को जीवित जला डालने का क्रूर प्रण किया।वह अभियान इतिहास के रक्तरञ्जित प्रष्ठों पर जनमेजय का नागयज्ञ के नाम से अंकित है और अभी तक लोगो के रोंगटे खडे कर देता है। हम जानते हैं कि नागयज्ञ की प्रष्ठभूमि महाभारत युद्ध से पूर्व इन्द्रप्रस्थ नगर की स्थापना से जुडी हुई है। खाण्डव वन में रह रहे नाग कुल के लोग वन जलाने के समय बडी संख्या में जीवित जल गये थे। उसका बदला नागों ने अर्जुन से पौत्र परीक्षित को जीवित जलाकर ले लिया। उसी हत्याकाण्ड का प्रतिशोध में सम्राट जनमेजय ने अश्वमेध के नाम पर नागयज्ञ आयजित किया जिसके बाद शताब्दियों के लिए अश्वमेध यज्ञ की परम्परा ही समाप्त हो गई।
यदि परम्परा और अश्वमेध यज्ञ की मूल भावना की दृष्टि से देखा जाए तो जनमेजय को उत्तराधिकार में चक्रवर्ती साम्राज्य मिला था। अतः यदि उन्हें अश्वमेध करना भी था तो उसे निर्विघ्न रूप से केवल औपचारिकता पूरी करते हुए सम्पन्न हो जाना चाहिये था, लेकिन उनका तो उद्देश्य ही नागकुल का समूल नाश करना था। यज्ञवेदी में दिन रात भयानक अग्नि धधक रही थी और नाग लोगों को पकड कर उसमें जीवित जलाया जा रहा था। वह वीभत्स नागयज्ञ कई दिनों तक चलता रहा और सैकडो नाग लोग उसमें जीवित जला दिए गये। कृष्ण और व्यास के अनुयायियों को वह वीभत्स क्रूरता उचित नहीं लगी। उन ऋषियों ने हस्तक्षेप किया और सम्राट से नागयज्ञ रोकने के लिए कहा। उनके प्रयासों से नागयज्ञ समाप्त हुआ और शान्ति स्थापित हुई। नागयज्ञ का परिणाम दूरगामी रहा। नागों की शक्ति सदैव के लिए समाप्त हो गई। विद्रोह की भावना रखने वाले अन्य लोगों का साहस भी चुक गया। इतने बर्बर और क्रूर दमनचक्र के बाद विद्रोह करने का विचार भी कोई नहीं बना सका।
इससे स्थापित हुई शान्ति का उपयोग ज्ञान विज्ञान और धर्म दर्शन के विकास में किया जा सका। उपनिषदों के रूप में प्रखर अध्यात्म दर्शन और पुराणों के रूप में अन्य लौकिक विद्याओं इतिहास – भूगोल और सामाजिक जानकारियों का संकलन सम्पादन चलता रहा। इसी के साथ सूत्रशैली में व्यवस्थित दर्शन ग्रन्थों का भी प्रणयन हुआ। उनमें वैशेषिक के नाम से कणाद का परमाणु दर्शन और अष्टांग योग के रूप में पतञ्जलि का परामनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व विकास का उत्कृष्ट साधन भी है। इसका यह आशय नही कि यह समस्त साहित्य जनमेजय के शासन काल की ही उपलब्धि है। निश्चित रूप से यह उपलब्धि कई शताब्दियों तक कायम रही शान्ति और स्थिरता की देन है। क्रूर नागयज्ञ के लिए जाने वाले जनमेजय परम विद्वान, सदाचारी, धार्मिक प्रजावत्सल सम्राट के रूप में भी प्रशिद्ध हैं।
सम्राट जनमेजय के शासन काल के विषय में हमारे पास निश्चित जानकारी नहीं है। एक उल्लेख के अनुसार उनका शासन काल 48 वर्ष तक बताया गया है, जो असम्भव न होते हुए भी परिस्थितियों को देखते हुए अधिक तो प्रतीत होता ही है। परम्परा के अनुसार विष्णु पुराण की रचना सम्राट परीक्षित के शासन काल में हुई थी और उस समय जनमेजय का जन्म नहीं हुआ था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि जनमेजय का जन्म परीक्षित की प्रौढ़ावस्था में हुआ होगा। उस युग में कम से कम समाज के उच्च वर्ग की सामान्य आयु सौ वर्ष से अधिक ही प्रतीत होती है। भीष्म, कृष्ण, व्यास, परासर आदि प्रमुख लोग सौ वर्ष से काफी अधिक जीवित रहे। अतः जनमेजय का 48 वर्ष का शासनकाल सम्भव भी हो सकता है।
हम सम्राट जनमेजय के राज्यारोहण का वर्ष निश्चित रूप से ज्ञात कर सकते हैं। महाभारत युद्ध के पश्चात 36 वर्ष तक युधिष्ठिर ने और उनके बाद 60 वर्ष तक परीक्षित ने शासन किया। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में एक प्राचीन ग्रन्थ के हवाले से जनमेजय का शासनकाल 48 वर्ष ले सात मास 23 दिन लिखा है। उसी प्राचीन पुस्तक के हवाले से हरिश़्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका में विक्रम सम्वत 1939 अर्थात् ईस्वी सन् 1882 में प्रकाशित ऐतिहासिक जानकारी से ही सत्यार्थ प्रकाश मे उसे संकलित किया गया है। किसी अन्य स्रोत से कोई अधिक विश्वसनीय जानकारी मिलने तक इसे ही सत्य मानना उचित होगा। यदि कंश वध के बाद कृष्ण ने शासन प्रारम्भ कर दिया होता तो उनका शासन काल सौ वर्ष से अधिक का ही रहता। आधुनिक ऐतिहासिक काल में भी अनेक राजाओं का शासन काल 90 वर्ष के लगभग रहा है।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………