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वेद और वैदिक विचारधारा

          परम्परागत मान्यता है कि ब्रह्मा ने एक संहिता में सम्पूर्ण वेद को परमात्मा से प्राप्त किया है। वैदिक साहित्य का मूल आधार चार मन्त्र संहितायें हैं  जिन्हें ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद कहा जाता है। ऋग्वेद में दस मण्डल, 1028 सूक्त और 10552 मन्त्र हैं। शेष तीन वेदों का सम्मिलित आकार भी ऋग्वेद से अधिक नहीं है। सामवेद को ऋग्वेद का ही लघु संस्करण प्रतीत होता है। सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं जिनमें 1800 तो ऋग्वेद में भी हैं। सामवेग के मन्त्रों की विशेषता उनकी गेयता और संगीतात्मकता है। अथर्ववेद में भी बहुत बढी संख्या में मन्त्र ऋग्वेद से ही लिए गये हैं। शिवसंकल्प जैसा गेय सूक्त यजुर्वेद में है। उसका अन्तिम चालीसवाँ अध्याय भी ईशोपनिषद् या ईशावास्योपनिषद के नाम से बहुत प्रशिद्ध और प्रचारित भी है। वह दार्शनिक चिन्तन का मूल और प्रेरणा स्रोत है।

वेद संहितायों में प्रत्येक मन्त्र के ऋषि, देवता और छन्द का उल्लेख किया जाता है। देवता का मन्त्र उस मन्त्र में वर्णित विषय है तथा छन्द का आशय उसका पद्य विधान है। ऋषि को कुछ लोग मन्त्र का रचनाकार मानते हैं। परन्तु ऋषि मन्त्र की मूल भावना है जो मन्त्र को समझने तथा उपयोग करने के लिए आवश्यक है। जैसे विश्वामित्र ऋषि कहने का भाव है विश्व का मित्र होने की भावना। अब प्रश्न उठता है कि वेदों में है क्या ?  सूत्र रूप से कहा जा सकता है कि वेदों में सब कुछ है। वर्णन काव्यात्मक है और अलंकारिक भी। मानवीकरण अलंकार का भी खूब प्रयोग हुआ है। रूपकों की छटा तो है ही। वेद मन्त्रों में प्रकृति सजीव होकर हमारे सामने खडी हो जाती है। इसी शैली को प्रकृति में देवत्व की अनुभूति भी कहा जाता है। इस प्रकार वेद कोरे दार्शनिक ग्रन्थ नहीं, विश्व के प्राचीनतम् और श्रेष्ठ काव्य भी हैं।

वेद को धर्म का आधार माना गया है। परस्पर विरोधी अद्वैतवाद, द्वैतवाद और त्रैतवाद के सिद्घान्त मानने वाले दार्शनिक अपने मत को वेद सम्मत मानते हैं। अद्वैतवादी केवल ब्रह्मा को अनादि मानते हैं। और जीव तथा प्रकृति को उसी का परिवर्तित रूप कहते हैं। द्वैतवादी ब्रह्मा के साथ प्रकृति को भी अनादि मानते हैं। तथा त्रैतवादी ब्रह्मा, जीव. प्रकृति तीनों को अनादि मानते हैं। वेद में मुझे एकत्व की अनुभूति तो मिली है, द्वैत या त्रैत का स्पष्ट उल्लेख नहीं।

इसी प्रकार वेद को न आत्मा के मोक्ष की चिन्ता है, न पुनर्जन्म की। पुनर्जन्म होता है, यह बात स्पष्ट रूप से किसी वेद मन्त्र में नहीं है। वेद स्वर्ग के सुख की बात तो बताते हैं, लेकिन नरक की कोई कल्पना वेद में नहीं मिलती है। वेद इसी जीवन में सुख शान्ति की प्रेरणा देते हैं। वेद आशावादी और उत्साहवर्द्धक हैं, धर्म के नाम पर डराने वाले अन्धविश्वासी नहीं। यही कारण है कि धर्म के नाम पर जीविका चलाने वाले मठाधीस वेद का नाम तो लेते हैं, पर पढना और पढाना नहीं चाहते हैं। सभी लोग धर्म का मूल तो मानते हैं, पर प्रचार करते हैं अपने ग्रन्थों का, वेद का कभी नहीं। वेद धार्मिक आडम्बर के लिए भय ही हैं।

वैदिक विचारधारा में किसी तरह के भेदभाव नहीं हैं। वेद कहते हैं कि पृथ्वी की सभी सन्तानें प्रकाश प्राप्त करें। वे मानव मानव में भेद नहीं करते, स्त्री पुरुष में भेद नहीं करते। वेद प्रत्यक्ष प्रकृति का सम्मान करना सिखात हैं। काल्पनिक स्वर्ग या नरक की चिन्ता में वर्तमान का खोना उचित नहीं है। वैदिक विचारधारा व्यावहारिक और तार्किक है, काल्पनिक धार्मिक रुढियों से तो बहुत दूर है।

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वैदिक साहित्य और चिन्तन का विकास

            वैदिक साहित्य भारत ही नहीं, विश्व का प्राचीनतम साहित्य है। वैदिक मन्त्र संहितायें सबसे प्राचीन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा पूरे साहित्य का मूल हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद मूलतः मन्त्र संहितायें ही हैं। एक मान्यता है कि महाभारतकालीन कृष्ण द्वैपायन व्यास ने मन्त्रों को एकत्र कर चार संहिताओं में सम्पादन किया। सैकडों मन्त्रों के चारो संहिताओं में मिलने से इतना तो स्पष्ट है कि सम्पादन तो हुआ है, चाहे आदि महेश ब्रह्मा ने किया हो, चारों संहितायों के अलग अलग ऋषियों अग्नि, वायु, सूर्य अथवा आंङ्गिरस ने अथवा अन्तिम सम्पादक कृष्ण द्वैपायन व्यास ने।

प्रत्येक वेद के अलग अलग ब्राह्मण ग्रन्थ मिलते हैं। इस प्रकार चार ब्राह्मण ग्रन्थ एतरेय, शतपथ, साम और गोपाथ नामक प्रशिद्ध हैं। वेद को ब्रह्म भी कहते है, अतः उनकी व्याख्या करने वाले लोगों और ग्रन्थों को ब्राह्मण भी कहा गया है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने प्रमुख शोध ग्रन्थ संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है कि ब्राह्मण अत्यन्त नीरस ग्रन्थ है। विधि और अथर्ववेद उनके दो विषय हैं। विधि के अन्तर्गत अनेक प्रकार के यज्ञों की विधियों का निरूपण किया गया है अतः अर्थवाद के अन्तर्गत उनकी व्याख्या का प्रयास है।

इसी में राजाओं और ऋषियों के इतिहास का भी कुछ उल्लेख मिलता है जिसे इतिहास पुराण, नाराशंसी, कल्प गाथा भी कहते हैं। स्पष्ट रूप से इन ब्राह्माण ग्रन्थों को पुराण साहित्य का प्रेरणा स्रोत माना जाना चाहिये। उसी से प्रेरणा लेकर सूतों ने भारत के प्राचीन इतिहास के संकलन का महान् कार्य सम्पन्न किया। इस प्रकार प्राचीन इतिहास के स्रोत के रूप में ब्राह्मण ग्रन्थों का बहुत अधिक महत्व है।

वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद प्राचीन आर्ष साहित्य में आरण्यकों और उपनिषदों का स्थान आता है। ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रचार से कर्मकाण्ड और आडम्बर बढा और विभिन्न प्रकार के यज्ञों के विधि ज्ञान की अलग शाखा बन गई । अलग अलग तरह के यज्ञों को कराने वाले अलग अलग विशेषज्ञ पुरोहित होने लगे। यज्ञों का जटिल जाल फैलने लगा। उससे ऊब कर ऋषिय़ों ने चिन्तन प्रारम्भ किया कि वास्तव में यज्ञों की उपयोगिता क्या है और उसकी सीमायें क्या हैं। नगरों के कोलाहल से दूर अरण्यों या वनों में इस प्रकार  का चिन्तन व्यक्त कने वाले ग्रन्थ आरण्यक कहलाये।

      उपनिषदों का चिन्तन भी अरण्यकों का ही विशेष रूप है। उपनिषदों को वेदान्त भी कहा जाता है। एक प्रकार से ब्राह्मणों की अपेक्षा उपनिषद् वेदों के अधिक निकट है। उपनिषदों में कर्मकाण्डों की उपेक्षा करते हुए चिन्तन मनन ध्यान द्वारा सत्य को जानने पर बल दिया गया है। इसलिए निर्विवाद रूप से उपनिषदों को विश्व का सर्वश्रेष्ठ और प्राचीनतम दार्शनिक साहित्य माना जाता है। आत्मा, परमात्मा, सृष्टि आदि के विषय पर तर्कसंगत ढंग से विचार करने का प्रयास उपनिषदों में किया गया है।  उपनिषदों का मानना है कि विविधिता से पूर्ण सृष्टि का आदि तत्व में एक ही है। उसी परम तत्व को जानने का प्रयास ही दर्शन और विज्ञान का मूल लक्ष्य है। इस दिशा में उपनिषद हमारा समुचित मार्ग दर्शन करने में सक्षम है।

प्राचीन उपनिषदों के नाम ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, एतरेय, तैत्तरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक, कौषीतकि हैं। इन्हीं 11 उपनिषदों को प्राचीन और महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे आचार्य श्री राम शर्मा ने 108 उपनिषदों का सम्पादन किया है जिसमें अल्लोपनिषद् भई शामिल हा। जिसकी रचना सम्राट अकबर का शासन काल में हुई थी। इसका अर्थ है कि उपनिषद के नाम से रचनायें मुगल काल में भी होती रहीं जिसमें तत्कालीन विचारों का समावेश स्वाभाविक रूप से होता रहा। अल्लोपनिषद् का अर्थ ही है अल्लाह का उपनिषद्, जो स्पष्टतः अकबर के इस्लाम या दीने इलाही से प्रभावित है।

इतना ध्यान रखना चाहिए कि वैदिक धर्म संस्कृति का मूल तथा एक प्रमाण वेद ही है, अन्य ग्रन्थों का महत्व मात्र ऐतिहासिक एवं साहित्यिक है। वास्तव मे वैदिक साहित्य भारत की सबसे बडी धरोहर, सबसे बढी पूँजी है। दुःखद बात केवल यह है कि आज कल मठाधीशों के आत्मप्रचार करने वाले साम्प्रदायिक साहित्य की भीड में वैदिक साहित्य को चाहकर भी खोज पाना कठिन होता जा रहा है।

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         दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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