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मथुरा में कंस तथा वसुदेव

         जिस समय हस्तिनापुर की केन्द्रीय सत्ता कुरुवंश की आन्तरिक कलह से कमजोर पड़ रही थी, मगध के सम्राट जरासन्ध के मन में चक्रवर्ती सम्राट बनने की महत्त्वाकांक्षा लगी थी। उन्होंने विवाह सम्बन्धों के माध्यम से देवव्रत भीष्म के विरोधियों से सम्बन्ध मजबूत करने प्रारम्भ कर दिये। उन्होंने काशी नरेश काश्य और मथुरा नरेश कंस के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये। जरासन्ध की दो पुत्रियों अस्ति तथा प्राप्ति का विवाह कंस के साथ हुआ था। उन्होंने हस्तिनापुर के निकटवर्ती राज्य को अपने साथ लाने को प्राथमिकता दी जिससे घेरा मजबूत हो सके। इसी योजना के तहत जरासन्ध के समर्थन से कंस ने अपने पिता उग्रसेन को बन्दी बनाकर स्वयम् को मथुरा का राजा घोषित कर दिया। आन्तरिक कलह के कारण ही हस्तिनापुर का कुरवंश इस विद्रोह को मूक दर्शक बनकर देखता रहा और कुछ न कर सका। अब मथुरा या व्रज प्रदेश मगध साम्राज्य के अन्तर्गत आ गया था और हस्तिनापुर का साम्राज्य पश्चिमी भारत तक सिमट गया था।

               मगध राजवंश भी कुरुवंश की एक शाखा थी। बृहद्रथ पुत्र जरासंध को इस तरह भी सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा में नैतिक बल मिलता था। मथुरा का राजपरिवार यदुवंशी था। इस प्रकार उस समय का भारत वर्ष पश्चिमी और पूर्वी दो प्रमुख साम्राज्यों में विभाजित हो गया था। उग्रसेन और देवव्रत भीष्म को लगभग समकालीन माना जाना चाहिए। जरासंध भी उसी समय हुए। युगाब्द पूर्व दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध अथवा तैंतीस शताब्दी ईस्वी पूर्व का समय अथवा हमारे समय से तिरपन शताब्दी पहले का काल था वह। दुर्भाग्य से यदुवंश सदैव आपसी कलह का शिकार रहा, इसलिए कभी प्रभावशाली नहीं बन सका। अन्धक वंशी राजा आहुक के दो पुत्र हुए, उग्रसेन और देवक। उग्रसेन के नौ पुत्र कंस, न्यग्रोध, सुनाम, आनकाह़्व, शंकु, सुभूमि, राष्ट्रपाल, युद्धतुष्टि और सुतुष्टिमान् थे। उग्रसेन की पुत्रियों के नाम कंसा, कंसवती, सुतनु एवं राष्ट्रपालिका बताये गये हैं।

देवक के चार पुत्र देववान्, उपदेव, सहदेव और देवरक्षित थे। उनकी सात पुत्रियाँ वृकदेवा, उपदेवा, देवरक्षिता, श्री देवा, शान्तिदेवा, सहदेवा और देवकी थीं। मथुरा नरेश कंस भाई-बहनों को बहुत प्यार करते थे। चचेरे भाई-बहनों से भी उनका काफी प्रेम था। यदुवंश की अन्धक शाखा में ही शूरसेन हुए। वे भी मथुरा राज्य के प्रमुख पदाधिकारी थे। शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था। शूरसेन के दस पुत्र थे जिसमें बड़े वसुदेव थे। शूरसेन के अन्य पुत्रों के नाम देवभाग, देवाश्रवा, अष्टक, ककुच्चक, वत्सधारक, सृंजय, श्याम, शमिक तथा गण्डूष थे। शौरसेन की पाँच पुत्रियाँ पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी थीं। शूरसेन के एक मित्र राजा कुन्तिभोज थे। उन्होंने पृथा को गोद ले लिया था। अतः पृथा को कुन्ती कहा गया। इस प्रकार पृथा कुन्ती वसुदेव की सगी बहन थी। कुन्तिभोज ने स्वयंवर का आयोजन किया तो पृथा कुन्ती ने कुरुराज पाण्डु को अपना पति चुना। इस प्रकार हस्तिनापुर के राज परिवार का विवाह सम्बन्ध कुन्तिभोज से हो गया। पृथा कुन्ती मूलतः यदुवंशी शूरसेन की पुत्रीथी, अतः यादव कुल से भी घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गये। इस विवाह सम्बन्ध ने भविष्य की राजनीति में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। शताब्दियों तक इसका प्रभाव बना रहा।

शूरसेन के पुत्र और पृथा कुन्ती के भाई वसुदेव का विवाह मथुरा नरेश कंस के चाचा की पुत्रियों के साथ हुआ था। शूरसेन की पाँच पुत्रियाँ भी थीं। वसुदेव की इन सभी बहनों का विवाह अच्छे परिवारों में हुआ था। पृथा वसुदेव से बड़ी थीं। शूरसेन की दूसरी पुत्री ऋतुदेवा का विवाह कारूश के राजा बुद्धधर्मा के साथ हुआ था। उनके पुत्र दन्तक थे जिन्हें महादैत्य कहा गया है। हो सकता है कि अत्यधिक बलशाली होने के कारण ही पुराणकारों ने उन्हें महादैत्य कह दिया हो और यह भी सम्भव है कि राजा बुद्धधर्मा दैत्य वंश के असुर नरेश हों। इस प्रकार कारूच राज्य भारतवर्ष से बाहर पश्चिम एशिया या मध्य एशिया में भी हो सकता है।

वसुदेव की तीसरी बहन का नाम श्रुतकीर्ति था। उनका विवाह केकय नरेश के साथ हुआ था। उनके पति राजा का नाम नहीं मिल सका है। उनके पाँच पुत्र हुए, जिनमें एक नाम सन्तर्दन हमें ज्ञात है। चौथी राजाधिदेवी का विवाह अवन्ति नरेश के साथ हुआ था। उनके दो पुत्र विन्द और अनुविन्द थे। उनके पति अवन्ति नरेश का नाम भी हमें ज्ञात नहीं हो सका। सबसे छोटी श्रुतश्रवा का विवाह चेदिराज दमघोष के साथ हुआ थ। उनके पुत्र शिशुपाल थे। वे बहुत महत्त्वाकांक्षी, ईर्ष्यालु और अभिमानी थे। छोटे से सामन्त राज्य का राजकुमार होने के कारण उनको अपनी महत्वकांक्षा के अनुरूप प्रतिष्ठा कभी नहीं मिल सकी। इसलिए अन्य लोगों की उन्नति के प्रति उनमें ईर्ष्या भाव रहा।

वसुदेव की अनेक पत्नियाँ थीं। विष्णु पुराण के चतुर्थ अंश, अध्याय चौदह में कहा गया है कि कंस के चाचा देवक की सात पुत्रियाँ वृकदेवा, उपदेवा, देवरसिता, श्रीदेवा, सहदेवा और देवकी का विवाह वसुदेव के साथ ही हुआ था। इसके अलावा अध्याय पन्द्रह में वसुदेव की अन्य पत्नियों में पौरवी, रोहिणी, विशाखा, मदिरा, भद्रा के नाम भी बताये गये हैं। इस प्रकार हमें वसुदेव की बारह पत्नियों के नाम ज्ञात हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस युग में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी और उसकी कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं थी। वसुदेव की पत्नी रोहिणी के पुत्रों में राम ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उनके अलावा सठ, सारण, दुर्मद, भद्राश्व, भद्रबाहु, दुर्दम, भूत आदि भी रोहिणी के पुत्र थे. मदिरा से वसुदेव के नन्द, उपनन्द और कृतक आदि पुत्र हुए। भद्रा ने उपनिधि, गद आदि अनेक पुत्रों को जन्म दिया। विशाखा के पुत्र कौशिक हुए। उनके वे एकमात्र पुत्र थे।

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देवकी-वसुदेव के छह पुत्रों की हत्या

        किसी कारण से विरोध हो जाने पर कंस ने वसुदेव-देवकी पर पहरा लगा दिया था। वे कंस के महल में ही रहते थे। किम्वदन्ती है कि देवकी के छह पुत्रों को कंस ने जन्म देते ही मार डाला था, लेकिन पुराण हमें उन सभी देवकी पुत्रों के नाम बताते हैं, उनके नाम कीर्तिमान्, सुषेण, उदायु, भद्रसेन, ऋतुदास और भद्रदेव थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि देवकी के छह पुत्रों की हत्या जन्म लेते ही नहीं की गयी होगी। उन बच्चों को पाला गया है। बाद में भड़काये जाने पर कंस ने उन सभी छह बालकों की हत्या कर दी थी।

इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि छह पुत्रों की हत्या के बाद सातवें और आठवें पुत्र को बचाने का सफल प्रयास किया गया। यह बात कैसे सम्भव लगती है कि कोई भी माता-पिता अपने आठ पुत्रों की हत्या कराना स्वीकार कर ले जिनका अभी जन्म ही नहीं हुआ है। ऐसा लगता है कि कंस के विचारों में समय के साथ परिवर्तन आया भी होगा। देवकी के प्रति उनका प्रेम अपने भाञ्जे के प्रति लगाव उत्पन्न कर रहा होगा। लेकिन निश्चित रूप से सकारात्मक परिवर्तन कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगा होगा। उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से कंस को भड़काया और देवकी के छह बालकों की निर्मम हत्या करा दी। इस जघन्य काण्ड पर भी इधर-उधर निन्दा के अलावा कोई विद्रोह कंस के विरुद्ध नहीं हो सका। इसका कारण मगध के सम्राट जरासन्ध का समर्थन था। मगध को अपने साम्राज्य की चिन्ता थी। मथुरा को साम्राज्य में बनाये रखने के लिए उन्हें ऐसी आन्तरिक बातों की उपेक्षा करते हुए अपने प्रान्तीय शासक का साथ देना ही था और कंस तो जरासंध की दो पुत्रियों के पति, प्रिय दामाद भी थे।

मथुरा नरेश कंस के हाथों देवकी-वसुदेव के छह पुत्रों की हत्या से सारा परिदृश्य ही बदल गया। अभी तक बात पारिवारिक सीमा के भीतर और आपसी सहमति की थी। वसुदेव ने पहरा सावधानीवश की गयी व्यवस्था मानकर स्वीकार कर लिया था। कंस की ओर से भी देवकी तथा वसुदेव को कारागार जैसी कोई कठोरता या कष्ट नहीं था। लेकिन छह पुत्रों की हत्या से दोनों पक्षों में स्पष्ट शत्रुता हो गयी। वसुदेव भी अपने भावी पुत्रों की रक्षा का उपाय सोचने के लिए बाध्य हो गये और कंस भी उनकी ओर से सशङ्कित रहने लगे। देवकी-वसुदेव पर पहरा कड़ा कर दिया गया। विश्वस्त गुप्तचर लगातार लगातार वसुदेव पर नजर रखने के लिए लगा दिए गये थे। कुछ समय बाद देवकी ने सातवां गर्भ धारण किया। यह निश्चय कर लिया गया था कि अब किसी को कंस के हाथों नहीं पड़ने देना है।

    बहुप्रचारित तथ्य यह है कि देवकी के सातवें गर्भ की स्थिति में गर्भपात हो गया था। इस सन्दर्भ में यह भी कहा जाता है कि देवकी के सातवें गर्भ को वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया गया था। यह कहना कठिन है कि तैतीसवीं शताब्दी ई. पूर्व में भारत का चिकित्सा विज्ञान इतना उन्नत था या नहीं कि  एक नारी के गर्भ को दूसरी नारी के गर्भ में स्थापित किया जा सके, लेकिन यह तो हो ही सकता है कि संयोगवश देवकी ने समय पूर्व सातवें पुत्र को जन्म दे दिया हो और गोपनीय ढंग से उसे रोहिणी के पास पहुँचा दिया गया हो। देवकी के गर्भपात का समाचार प्रचारित कर दिया गया होगा।

इतना तो तय है कि उस बालक का देवकी से सम्बन्ध है अवश्य, अन्यथा उसे सीधे-सीधे रोहिणी पुत्र कहने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि देवकी के सातवें पुत्र को ही रोहिणी का पुत्र बनाकर पाला गया। इस पर विवाद हो सकता है कि उसे जन्म से पूर्व रोहिणी के गर्भ में स्थापित किया गया था अथवा जन्म देने के बाद उसे देवकी से लेकर रोहिणी की गोद में दे दिया गया था। देवकी और रोहिणी, दो माताओं के बीच खींचतान या कर्षण के कारण ही उस बालक को सङ्कर्षण कहा गया। यह उसका पहला अनौपचारिक नाम था। गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी के आंचल की छाया में वह बालक पलने और बढ़ने लगा। प्राकृतिक वातावरण में उसका अच्छा विकास हो रहा था। देवकी के गर्भपात की खबर सुनकर कंस समझ नहीं पा रहे थे कि सत्य क्या है? उन्हें तो यही बताया गया था कि कंस के भय के कारण देवकी का गर्भपात हो गया है। कंस के पास इस बात को मान लेने और भविष्य की प्रतीक्षा के अलावा विकल्प भी तो की नहीं था। इस प्रकार अपने शुभचिन्तकों की सहायता से वसुदेव अपने सातवें पुत्र को बचाने में सफल रहे। इससे उनका साहस और उत्साह बढ़ा। यह तय हुआ कि आठवें पुत्र को किसी भी स्थिति में बचाया ही जायेगा। कुछ समय बाद देवकी ने आठवां गर्भ धारण किया। कंस ने विश्वस्त पहरेदार नियुक्त किये, गुप्तचर लगाये और अपना पूरा ध्यान देवकी-वसुदेव की ओर लगा दिया

भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि, मध्यरात्रि का समय, देवकी ने अपने आठवें पुत्र को जन्म दिया, मानो एक नया इतिहास जन्मा हो। सारी योजनाएँ पहले से तैयार थीं। प्रसूति कार्य में लगे लोग आवश्यक वस्तुओं के लिए आ-जा रहे थे। वर्षा का वेग लगातार बढ़ाता जा रहा था। इसी बीच वसुदेव नवजात बालक को सूप या टोकरी में छिपाये हुए निकल गये। वह बुरा मौसम वसुदेव के मार्ग की बाधा बना और सहायक भी। मथुरा जन शून्य थी। द्वार के पहरेदार भी वर्षा से बचने के लिए प्रायः कहीं दुबके पड़े थे। यह किसे पता था कि इस तूफान के बीच एक तूफानी इतिहास रचा जा रहा है। वसुदेव ने उस बालक को नन्द-यशोदा के पास छोड़ा और सुरक्षित देवकी के पास लौट आये। वसुदेव की सफलता को सुनकर देवकी का चिन्ताग्रस्त चेहरा खिल गया। गोकुल से वसुदेव नवजात कन्या को लेकर लौटे थे, अतः इस बार गर्भपात की कहानी गढ़ने की आवश्यकता नहीं थी।

कंस को देवकी के आठवीं सन्तान होने की सूचना मिली। वे भागकर वसुदेव-देवकी के पास पहुँचे। वहाँ उन्हें पता चला कि कन्या ने जन्म लिया है। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। क्रोध से पागल कंस ने देवकी से छीनकर उस कन्या की हत्या कर दी। कंस ने वसुदेव और देवकी को मुक्त कर दिया और कहा कि मैंने वसुदेव और देवकी के छह पुत्रों की व्यर्थ ही हत्या की। कंस ने वसुदेव को धैर्य बंधाया और कहा कि अब यही माना जा सकता है कि उन बालकों का ऐसा ही भाग्य था। कंस ने वसुदेव को पहले की तरह सम्मानित सभासद का सम्मान दिया। ऊपर से शान्ति दिखायी पड़ने लगी।

वसुदेव मथुरा आये और नंद से मिले, उन्हें पुत्र जन्म पर बधाई दी और कहा कि रोहिणी से जन्मे मेरे पुत्र का भी ध्यान रखना। रोहिणी भी गोकुल में रहती थीं। वसुदेव ने नन्द से तुरत ही मथुरा छोड़कर वापस चले जाने के लिए कहा। नन्द राज्य का कर देने आये थे और उसी दिन वापस लौट गये। देवकी का आठवां पुत्र अथवा नन्द का वह बालक अभी छोटा था कि उसकी हत्या का एक प्रयास किया गया। एक दिन आधी रात के समय किसी तरह पूतना नाम की विषकन्या गुप्तचर ने उस बालक को उठा लिया और विष लगे स्तनों से दूध पिलाना चाहा। लेकिन उससे पहले ही नींद से जगे बालक ने हाथ से स्तनों को नोंच लिया। नाखून लग जाने से वह तेज जहर रक्त में फैल गया और पूतना स्वयम् ही अपने विष से मारी गयी

एक दिन वसुदेव के भेजने पर गर्गाचार्य गोकुल गये और उन्होंने दोनों बालकों का नामकरण किया। रोहिणी पुत्र बड़ा था, उसका नाम राम रखा गया। यशोदा पुत्र का नाम कृष्ण रखा गया। कृष्ण आगे चलकर राष्ट्रनायक, योगेश्वर, पूर्ण पुरुष के रूप में भारतवर्ष के इतिहास में प्रतिष्ठित हुए। महाभारत और पुराणों में दोनों के नाम राम और कृष्ण ही लिखे हैं। बाद में अति प्रसिद्ध दशरथ पुत्र राम से विभेद दर्शाने के लिए बलराम कहा जाने लगा। वैसे नाम तो जमदग्नि के पुत्र का भी राम था जो बाद में परशुराम कहे जाने लगे। अवतार गणना में भी दोनों का नाम राम कहा गया है। कृष्ण के बचपन की कुछ घटनायें मध्यकाल में अतिरञ्जित बनाकर प्रचारित कर दी गयी हैं। विष्णु पुराण के अनुसार एक दिन कृष्ण को शकट अर्थात् छकड़ा या बैलगाड़ी के नीचे सुला दिया गया। जगने पर वे रोने लगे। वह शकट लुढ़क गया, लेकिन उसके बीच में बालक सुरक्षित बच गया। यशोदा आदि ने यही कहा जो स्थिति में हम कहते हैं कि बालक चमत्कार से ही बच पाया है। नन्द ने बालक को उठाकर छाती से चिपटा लिया और शकट का पूजन दही, अक्षत, पुष्प आदि से किया। पता नहीं किसने और कब उस शकट को शकटासुर का नाम दे दिया और इस घटना को शकटासुर का वध बताया।

प्राकृतिक ग्रामीण वातावरण में राम और कृष्ण पलने बढ़ने लगे। गोपालन उनका मुख्य व्यवसाय था। एक दिन चञ्चल बालक को यशोदा ने ऊखल में बांधा और भीतर जाकर कार्य करने लगी। नटखट कृष्ण उसी ऊखल पर अपनी शक्ति दिखाने लगे। वे ऊखल को घसीटते हुए चलने लगे। इस खेल में ऊखल पासपास उगे अर्जुन के दो पेड़ों के बीच फंस गया। खुद तो वह किसी तरह निकल गये पर ऊखल उसी में फँसा रहा। अब बालक क्या करें, वह भी तो उसी से बँधा था। खींचतान में पेड़ टूट गया और कृष्ण फिर बाल-बाल बचे।

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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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