चार उपवेद और छह वेदाङ्ग
सभ्यता के विकास के लिए उपवेदों का विकास किया गया। आयुर्वेद, धनुर्वेद गन्धर्वर्वेद और अर्थवेद को चार प्रमुख उपवेद कहा जाता है। आयुर्वेद स्वास्थ्य विज्ञान और चिकित्साशास्त्र है। आयुर्वेद में रोगो की चिकित्सा के साथ ही इस बात पर बल दिया जाता है कि स्वस्थ्य कैसे रहें और रोग होने से बचा कैसे जाये। उसमें मानसिक शान्ति, मनोविज्ञान, ध्यान, प्राणायाम, शरीर शोधन, कायाकल्प, व्यायाम, आहार- विहार आदि पर भी समुचित शोध किया गया है।
औषधि चिकित्सा के साथ ही शल्य चिकित्सा भी आयुर्वेद का प्रमुख अङ्ग है। इसके लिए सौ उपकरणों के बाद सबसे महत्वपूर्ण उपकरण चिकित्सक का हाथ माना गया है जिसके बिना सभई यन्त्र और उपकरण व्यर्थ हैं। यह माना गया है कि शरीर ही धर्म का साधन है क्योंकि यदि शरीर ही स्वस्थ्य नहीं रहेगा तो किसी भी धर्म, संस्कृति और सभ्यता का विकास सम्भव नहीं है। आयुर्वेद बहुत प्राचीन है। अश्वनी कुमार सबसे प्राचीन ज्ञात चिकित्सक है। ऐसा वर्णन मिलता है कि उन्होनें वृद्धावस्था में यौवन प्रदान करने, लोहे के कृत्रिम पैर लगाने तथा शल्य क्रिया जैसी सफलतायें भी प्राप्त की थी। अति प्राचीन काल में भी ऐसी सफलतायें अविश्वसनीय और चमत्कारिक प्रतीत होती हैं। आयुर्वेद को व्यवस्थित विज्ञान का रूप देने का श्रेय धन्वन्तरि को भी दिया जाता है। वे चन्द्रवंशी थे तथा सम्भवतः त्रेता युग में हुए थे। इस समय उपलब्ध आयुर्वेद ग्रन्थों में चरक और सुश्रुत के ग्रन्थ प्राचीनतम और महत्वपूर्ण माने जाते हैं एक आयुर्वेद विशेषज्ञ च्यवन द्वारा प्रसारित च्यवनप्राश आज तक प्रभावकारी और लोकप्रिय स्वास्थ्यप्रद रसायन माना जाता है।
धनुर्वेद के अन्तर्गत सैन्य विज्ञान और राजनीति शास्त्र दोनो का समावेश है। राष्ट्र की सुऱक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में कूटनीतिक सम्बन्ध को भी सर्वोच्च महत्व प्रदान करते हुए उपवेद होने की मान्यता दी गई है। इसके अन्तर्गत शस्त्र निर्माण और सञ्चालन कला के साथ ही सैन्य सङ्गठन युद्ध क्षेत्र में सैन्य सज्जा और व्यूह रचना तथा शत्रु की शक्ति को देखते हुए सैन्य सञ्चालन का गम्भीर विवेचन का किया गया है। अर्थवेद के अन्तर्गत आधुनिक अर्थशास्त्र के अलावा शिल्पकला तकनीक और प्रौद्योगिकी सहित उद्योग व्यापार सम्बन्धी सभी विषय सम्मिलित हैं।
गान्धर्व वेद को संगीतशास्त्र कहा जा सकता है। गायन वादन के अन्तर्गत स्वर, राग रागिनी, समय, ताल, ग्राम, तान, वारित्र, नृत्य, गीत आदि गान्धर्व वेद के विषय हैं। संगीत को उपवेद की मान्यता मिलना यह शिद्ध करता है कि कला और मनोरञ्जन को भी कितना अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था। वैदिक संस्कृति नीरस धर्मचर्चा और दर्शन में ही नहीं उलझी रहती थी, उसमें सामान्य जनजीवन को मनोरञ्जन पूर्ण और उल्लासमय बनाये रखने की लालसा थी। धर्म, दर्शन और कला के इस समन्वय से ही भजन आरती जैसी विधाओं का विकास हो सका जिसमें धर्म लोकप्रिय, कर्णप्रिय और आनन्ददायक बना। नृत्य और नाटक भी इसी गान्धर्व वेद के आंग हैं।
वेदों के शुद्ध रूप बचाये रखने और अर्थ समझने के लिए वेदाङगों का विकास हुआ। उसमें भाषा, विज्ञान, व्याकरण, शब्दकोष, ब्रह्माण्ड भौतिकी तथा समाजशास्त्र विषय प्रमुख है। तत्कालीन शब्दावलीं में छह वेदाङ्ग शिक्षा, निरूक्त, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष और कल्प माने गये हैं।
प्रथम वेदाङ्ग शिक्षा को भाषा विज्ञान का मूल माना जाता है। शिक्षा को वर्तमान अर्थ के अनुसार पढाई लिखाई समझना भूल होगी। इसीलिए आज भाषा विज्ञान में शिक्षा वेदाङ्ग को ध्वनि कहा जाता है। इसके अन्तर्गत भाषा की मूल ध्वनियों का वर्गीकरण, उनके उच्चारण स्थान और प्रयत्न आदि का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार भाषा विज्ञान को प्रमुख वेदाङ्ग माने जाने के कारण ही भारतीय भाषायें और लिपियां विश्व में निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ और वैज्ञानिक हैं।
दूसरे वेदाङ्ग निरुक्त को आजकल शब्द रचना विज्ञान कहा जाता है। वब भी भाषा विज्ञान का प्रमुख अंग है। निरुक्त मे विचार किया गया है कि प्रत्येक शब्द की रचना कुछ मूल तत्वो से होती है। जिसे धातु, उपसर्ग, प्रत्यय आदि कहा गया। समय के साथ अनेक शब्दों के रूढ अर्थ बदलने लगते हैं, लेकिन निरुक्त के द्वारा हम वेद मन्त्रों के शब्दों का मूल अर्थ ज्ञात कर सकते हैं। निघण्टु नामक वैदिक शब्द कोष भी इसी के अन्तर्गत है।
तीसरे वेदाङ्ग व्याकरण है। इसका मुख्य विषय लिङ्ग, वचन, कारक और क्रिया रूपों के कारण शब्दों और क्रियाओं के रूपों में होने वाले परिवर्तन और उनके अर्थ का ज्ञान कराना है। पद रचना और वाक्य रचना व्याकरण का विषय है। पद शब्द का वह रूप माना जाता है जो वाक्य में प्रयोग होता है। पाणिनीय अष्टाध्यायी सबसे प्रशिद्ध व्याकरण ग्रन्थ है। इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशील, शकाटायन आदि प्रशिद्ध व्याकरणाचार्य पाणिनि से भी पहले हुए हैं। उसमें काशकृत्स्न का ग्रन्थ अभी भी प्रचारित है।
इन्द्र और चन्द्र अतिप्राचीन व्याकरणाचार्य हैं। काशकृत्स्न कृष्ण द्वैपायन व्यास के समकालीन सम्भवतः उनके शिष्य थे। उनके तीन शताब्दी बाद पाणिनि हुए। पाणिनि के सात शताब्दी के पश्चात् पतञ्जलि ने महाभाष्य लिखा। पतञ्जलि के लगभग एक हजार वर्ष बाद कैयट ने उसकी व्याख्या लिखी। इस प्रकार पाँच हजार वर्षों से अधिक प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध है। कैयट का ही समय लगभग 1200 विक्रम पूर्व माना जाता है।
छन्द को चौथा वेदाङ्ग माना गया है। इसका प्राचीन ग्रन्थ पिगंल है। जिसमें वैदिक छन्दों के साथ ही लौकिक छन्द भी वर्णित हैं। पांचवाँ वेदाङ्ग ज्योतिष है। इसे ब्रह्माण्ड भौतिकी कहा जाता है। भविष्य बताने वाले तथाकथित ज्योतिष के कुण्डली, फलादेश आदि से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस वेदाङ्ग में ग्रह, नक्षत्रों आदि की गतियों तथा ब्रह्माण्ड की रचना पर शोध हुआ है। सूर्य सिद्धान्त ही आजकल ही आजकल उपलब्ध प्रशिद्ध प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है। ज्योतिष वेदाङ्ग के अन्तर्गत अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, भूगोस, खगोल, भूभर्ग विज्ञान आदि विषय भी सम्मिलित हैं।
छठा वेदाङ्ग कल्प कही जाता है। इनके दो मुख्य भाग हैं। श्रौत्रसूत्र में यज्ञों का वर्णन है और स्मार्त सूत्र में परिवार तथा समाज का उल्लेख है। स्मार्त सूत्रों के अन्तर्गत गृह्य सूत्र में व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन, संस्कार आदि का वर्णन है तथा धर्म सूत्र में राजा तथा नागरिकों के कर्तव्यों और वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन किया गया है।
उपवेद तथा वेदाङ्ग मिलकर संस्कृति और सभ्यता के विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से माना जा सकता है कि यह सम्पूर्ण आधारभूत संरचना कृष्णकाल के आसपास अब से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तैयार हो चुकी थी। यह साहित्य उपलब्ध आज भी है लेकिन कहीं एक स्थान पर सुलभ नहीं है जिससे उसे खोजकर एकत्र कर पाना दुरुह कार्य है।
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वेदों के उपाङ्ग अर्थात् छह दर्शन
वेद के उपाङ्ग के रूप में मान्यता प्राप्त छह दर्शन मीमांसा, साड्ख्य, वैशेषिक, न्याय, योग और वेदान्त हैं। वेदान्त दर्शन को उत्तर मीमांसा कहा जाता है। ये सभी दर्शन आधुनिक तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सृष्टि के रहस्यों को समझने का प्रयास करते हैं। वैशेषिक दर्शन परमाणु शिद्धान्त का जनक है। उसका मानना है कि सब कुछ परमाणुओं से बना है। इस दर्शन में सभी पदार्थों को नौ द्रव्यों में बाँटा गया है – पृथिव्य (ठोस), अपः (द्रव), तेज (ऊर्जा), वायु (गैस), आकाश, काल (समय), दिक् (स्थान), आत्मा और मन। वैशेषिक दर्शन में आत्मा का अर्थ चेतना शक्ति है जो जन्तुओं और वनस्पतियों में पाया जाने वाला विशिष्ट गुण है। मन केवल मनुष्य जैसे अतिविकसित जीवों में ही विकसित अवस्था में पाया जाता है। इस मन द्रव्यरूप पर विस्तृत और गहन विचार योग दर्शन में किया गया है। आधुनिक शैली में वह मनोविज्ञान के अध्ययन का विषय़ है। इसलिए योग को भारतीयों का सर्वोच्च मनोविज्ञान कहा जाता है। मनोविज्ञान पर आधारित होने के कारण ही योग केवल दर्शन ही नहीं, व्यावहारिक और प्रत्यक्ष लाभ देने वाली जीवनशैली है जो आज पूरे विश्व में लोकप्रिय और प्रतिष्ठित भी है। गणित में शून्य, विज्ञान में परमाणु शिद्धान्त और मनोविज्ञान में योग विश्व को भारत की विशिष्ट देन है।
वैशेषिक दर्शन का मत है कि सभी पदार्थ परमाणुओं से बने हैं और प्रत्येक पदार्थ के परमाणु के गुण धर्म में कोई विशेष बात अवश्य होती है, इसीलिए हर वस्तु का गुणधर्म अलग अलग होता है। एक तत्व के सभी परमाणु समान होते हैं तथा दूसरे तत्व के परमाणुओं से भिन्न या विशिष्ट होते हैं। इसी विशेष गुण पर जोर देने के कारण ही उसे वैशेषिक दर्शन कहा जाता है। महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन की यह मूल मान्यता आधुनिकतम खोजों के प्रकाश में सही पायी जाती है। इतना अवश्य है कि कणाद सम्भवतः एक तत्व के परमाणुओं में अन्य तत्वों के परमाणुओं की अपेक्षा विशेष गुण होने का कोई स्पष्ट कारण बता सके थे। अब परमाणु के विखण्डन के बाद यह पता चला है कि परमाणु स्वयम् कई सूक्ष्म कणों से मिलकर बना होता है और उनकी संख्या के आधार पर तत्व के गुणधर्म निर्धारित होते हैं। इतना तो है ही कि वैशेषिक दर्शन को पढकर भौतिकी की प्रमुख बातों को आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन होने के कारण उसका ऐतिहासिक महत्व तो है ही।
महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंग बताये हैं, इसीलिए उसे अष्टांग य़ोग भी कहा जाता है। वे वास्तव में योग के आठ चरण हैं। यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अष्टाङ्ग योग व्यक्तित्व विकास की मनोवैज्ञानिक प्रणाली है। उसमें तनाव मुक्त रहकर मानसिक शक्तियों का विकास करने का उपाय बताया गया है। यही विशेषता योग को दर्शन के स्तर से उठा कर विज्ञान के स्तर पर ला देती है।
योग का पहला चरण यम है यम के अन्तर्गत उन आदतों को छोडने का निर्देश है जिनमें व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक तनाव उत्पन्न होता है। हिंसा, मिथ्या, चोरी, व्यभिचार और संग्रह को छोडकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को स्वभाव मे सम्मिलत करना सबसे पहले जरूरी है। अन्यथा नित्य नयी समस्यायें उत्पन्न होगीं और तनाव के कारण मन एकाग्र नहीं हो सकेगा। दूसरा चकण नियम है। इसमें उन उपायों का निर्देश है जिनसे योग मे सहायता मिल सकती है। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और प्राणिधान पाँच नियम माने गये हैं। जिनका पालन करना आवश्यक है। एक सभ्य औक सामाजिक व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए और तनाव मुक्त रहने के लिए पाँच यम और पाँच नियम अपना लेना व्यावहारिक है और पर्याप्त भी।
योग का तीसरा चरण आसन है। आसन से आशय व्यायाम या शरीर को नटों की तरह तोडना मरोडना नहीं है। कहा गया है स्थिर सुखमासनम्। जिस तरह से सुखपूर्वक देर तक बैठा जा सके, वह आसन है। इस प्रकार जिस व्यक्ति को जिस तरह बैठने में सुविधा हो, वह उसके लिए श्रेष्ठ आसन है, केवल मेरुदण्ड सीधा करने रहने की अपेक्षा की गई है। इन तीन चरणों को योग की तैयारी भी कह सकते हैं।
इसके बाद चौथा चरण प्राणायाम है। यह स्वास्थ्यवर्द्धक, रोगनाशक और विपरीत परिस्थितियों में जीवनरक्षक तथा बलबर्द्धक अभ्यास है। पांचवां चरण प्रत्याहार है। इसका अर्थ है मन को भटकने से रोकना। छठवां चरण धारणा है। इसका आशय है मन को किसी स्थान पर स्थिर करने का प्रयास करना। सातवां चरण ध्यान है। कहते हैं कि ध्यान किया नहीं जाता, हो जाता है। हम धारणा तक प्रयास करते हैं, धीरे धीरे ध्यान लगने लगता है और आठवां चरण समाधि का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। एक ही बिन्दू पर धारणा, ध्यान और समाधि लग जाने को संयम कहा जाता है, त्रयमेकत्र संयमः।
साङ्ख्य दर्शन का मत है कि विपरीत तत्वों को मिलने से सृष्टि में नये तत्वों का विकास होता चलता है। सृष्टि की उत्पत्ति और विकास का यही क्रम है। उसे कार्लमार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का मूल आधार कहा जा सकता है। वेदान्त स्पष्ट करता है कि वैशेषिक दर्शन में बताये गये पदार्थ के सभी नौ द्रव्य रूपों का मूलतत्व एक ही है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में कह सकते हैं। कि सभी पदार्थ, ऊर्जा और चेतना का मूल तत्व एक ही है और सब कुछ उसका परिवर्तित रूप है। उसे ब्रह्मा, पुरुष या कुछ और भी कहा जा सकता है। यह जान लेना भी आवश्यक है कि दर्शन और वेदों – उपनिषदों का ब्रह्म कोई देवता नहीं है। जो अपनी चमत्कारिक शक्तियों से लोगों की सहायता या किसी को क्षति पहुँचाता हो। वह गतिशील और चेतना से युक्त मूल तत्व है जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………