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इतिहास तथा पुराण

     प्राचीन भारतीय संस्कृति का आधार प्राचीन आर्ष साहित्य को माना जाता है उसकी विशेषता तार्किकता, तथ्यात्मकता व बौद्धिकता है। वेद, ब्रह्माण्ड, आरण्यक, उपनिषद, वेदाङ्ग, उपवेद और उपाङ्ग को मिलाकर वह साहित्य सम्पूर्ण हो जाता है।इन ग्रन्थों में परिवर्तन और क्षेपक का भी दोष नहीं है। इसीलिए इनका महत्व सर्वोपरि माना जाता है। प्राचीन इतिहास तथा भूगोल को जानने के लिए भी इनको उपयोगी माना जाता है।

    इतिहास और भूगोल के बिना राष्ट्र ही नहीं बन सकता, संस्कृति की बात ही अलग है। अतः वैदिक साहित्य के परिशिष्ट रूप मे इतिहास और पुराण को सम्मिलित किया गया। धर्म दर्शन की दृष्टि से पुराणों का महत्व स्वीकार नहीं किया जाता है परन्तु इतिहास भूगोल की दृष्टि से उनका कोई विकल्प भी नहीं है। इतिहास का प्रसङ्गवश उल्लेख ब्राह्माण ग्रन्थों और उपनिषदों मे मिलता है, लेकिन उनके आधार पर एक शताब्दी का भी इतिहास नहीं लिखा जा सकता। अतः प्राचीनतम इतिहास ग्रन्थों के रूप मे वाल्मीकीय रामायण और व्यासकृत महाभारत को मान्यता मिली है। उन ग्रन्थों में समकालीन इतिहास मिलता है इसके बाद पुराणों मे क्रमबद्ध व्यवस्थित इतिहास लिखने का प्रयास किया गया। आज प्राचीन इतिहास जानने का मुख्य स्रोत पुराण ही है।

रामायण में क्षेपक और मूल विशेष से भटकाव कम माना जाता है। वर्तमान रामायण का परिमाण चौबीस हजार श्लोक माना जाता है। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण में कुछ प्रक्षिप्त सर्गो का स्पष्ट  निर्देश किया गया है। लेकिन रामायण के प्रारम्भ में उसकी श्लोक संध्या श्लोक शतैः कही गयी हैं जिसका अर्थ सैकडों श्लोक हुआ। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि वाल्मीकि के बाद रामायण का आकार भी कई गुना बढाया गया है। इतना तो तय है कि क्षेपकों के बावजूद वाल्मीकीय रामायण की ऐतिहासिकता बहुत कुछ सुरक्षित है।

महाभारत की स्थिति तो और भी जटिल है। वर्णन मिलता है कि कृष्ण द्वैपायन व्यास ने केवल चार हजार सौ श्लोकों में जय नामक इतिहास ग्रन्थ लिखा था। उनके शिष्यों ने उसे बढाकर दस हजार श्लोकों में भारत नाम दिया। इतिहास प्रशिद्ध राजा भोज के ग्रन्थ संजीवनी में लिखा है कि महाभारत का आकार सम्राट विक्रमादित्य के समय में बीस हजार श्लोकों का हो गया था। भोज के समय उसका आकार तीस हजार श्लोकों तक पहुँच गया इस समय महाभारत की श्लोक संख्या एक लाख बीस हजार है। कहा नहीं जा सकता है कि वर्तमान महाभारत में व्यास के चार हजार सौ श्लोक कैसे खोजे जा सकते हैं।

रामायण और महाभारत के बाद विष्णु पुराण तीसरा प्रमुख इतिहास ग्रन्थ है। वह प्राचीनतम पुराण और सर्वाधिक प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थ माना जाता है। विष्णु पुराण व्यास के पिता पाराशर और मैत्रेय के बीच सम्वाद के  रूप में लिखा गया है। सम्भव है कि दोनो के बीच इतिहास सम्बन्धी चर्चा हुई हो और न इतिहास प्रेमियों को अमर करने के लिए दोनों के सम्वाद के रूप में पुराण लिखा गया हो।  इसमें व्यास की प्रेरणा भी रही होगी, इसीलिए पुराणकर्ता व्यास को माना जाता है। एक मात्र यही पुराण जो चमत्कारों और असम्भव कल्पनाओं से बहुत कुछ मुक्त है। साम्प्रदायिक दुराग्रह और खण्डन मण्डन तथा विरोधियों की निन्दा भी इसमें नहीं मिलती है। इसीलिए आधुनिक विद्वानों ने भी विष्णु पुराण को इतिहास का मान्यता प्रदान की है।

यह बात समझना कठिन है कि इसे विष्णु पुराण क्यों कहा जाता है? इतना तो स्पष्ट है कि क्षीरसागर निवासी वैकुण्ठपति विष्णु ने इस पुराण का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। सम्भव है कि विष्णु पुराण के लेखक का नाम पर इसका नाम पडा हो, जैसे वाल्मीकीय रामायण, पाणिनीय अष्टाध्यायी, भट्टि काव्य, भोज प्रबन्ध आदि अनेक ग्रन्थों के नाम लेखक के नाम से प्रशिद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध पूर्व काल में विष्णु नामर विद्वान द्वारा रचित विष्णु पुराण प्रचलित रहा होगा। बाद के साम्प्रदायिक टकराव के युग में जब अनेक देवी देवताओं के नाम पर पुराणों की रचना  होने लगी है तब विष्णु पुराण को भी विष्णु देवता के नाम से जोड दिया गया होगा।

        परवर्ती युग में पुराण रचना इतिहास के स्थान पर सम्प्रदायों का पोषण करने के लिए होने लगी। अनेक पुराणों के नाम ही देवी देवताओं के नाम पर हैं। ब्रह्मपुराण, ब्राह्म वैतर्त पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण ब्रह्मा के भक्तों के हैं। भागवत पुराण श्रीकृष्ण के भक्तों का पुराण है। शिव पुराण और लिंग पुराण शैव लोगों के ही हैं। इस प्रकार मार्कण्डेय पुराण, नारद पुराण, गरुण पुराण, हरिवंश पुराण, अग्नि पुराण, वायु पुराण, सूर्य पुराण, कूर्म पुराण, गणेश पुराण, भविष्य पुराण, पद़्म पुराण, स्कन्द पुराण, कल्कि पुराण, वामन पुराण आदि अनेक ग्रन्थ पुराण साहित्य में माने जाते हैं। इसमें अट्ठारह महापुराणों में वैष्णव लोग भागवत पुराण को मानते हैं जबकि शाक्त लोग उनके स्थान पर देवी भागवत को स्थान देते हैं। इस प्रकार पुराणों का विस्तार बहुत अधिक है। पुराण साहित्य में इतिहास, भूगोल और भारतीय राष्ट्रीयता की दृष्टि से विष्णु पुराण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अतः उसे आधार स्तम्भ और इतिहास के मेरुदण्ड स्वीकार करते हुए अन्य पुराणों तथा इतिहास ग्रन्थों एवम् वर्णनों को यथास्थान समाहित करते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास को कालाक्रमानुसार व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। हमारा प्रयास इसी मौलिक मान्यता पर आधारित है।

बुद्ध पूर्व काल के तीन प्रमुख इतिहास ग्रन्थ रामायण, महाभारत और विष्णु पुराण ही है। सम्भव है कि कुछ अन्य पुराणों की रचना भी बुद्ध पूर्व काल में हो गई हो, लेकिन इतना तय है कि आधुनिक पुराण पिछले डेढ हजार वर्षों के दौरान ही रचे गये हैं। यही कारण है कि प्राचीन ग्रन्थों में इनमें किसी पुराण का नाम तक नहीं मिलता है इस प्रकारर हम रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण को प्राचीन काल की इतिहासत्रयी कह सकते हैं।

बुद्ध युग के बाद के तीन प्रमुख इतिहास ग्रन्थ भी परिवर्ती इतिहास निर्माण में हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। वे हैं कालिदास कृत रघुवंश, कल्हण कृत राजतरङिगणी और भोजकृत सञ्जीवनी। इतिहास की महत्ता को स्थापित करते हुए ही छान्दोग्य उपनिषद में भी कहा गया है – इतिहास पुराणः पञ्चमों वेदानाम् वेदः अर्थात् प्राचीन इतिहास वेदों में पाचवां वेद है। अतः इतिहास कोको हम भी महत्वपूर्ण उपवेद मानते हैं।

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वैदिक दर्शन के मूल तत्व

               वर्तमान भारतीय मूल धर्म मूलतः वैदिक और पौराणिक दर्शन ममें विभाजित हैं। दोनो में मूल अन्तर ब्रह्मवाद और देववाद का ही है। वैदिक ब्रह्मा इस सृष्टि का मूल तत्व है।वह सभी प्रकार के परमाणुओं तथा चतना से भी सूक्ष्म हैं। उसे परम तत्व कहा जाता है। ब्रह्म, ऋत और सत् वैदिक दर्शन के मूल तत्व है। सृष्टि का मूल तत्व या परम तत्व के रूप में ब्रह्मा और भौतिक द्रव्य या भूत को एक माना जाना चाहिए। भौतिकवादी कहे जाने वाले वैज्ञानिक जिसे गतिशील मूल द्रव्य कहते हैं, वेद और उपनिषद् उसे ब्रह्मा कहते हैं। उसमें गति और चेतना सहित सभी गुणों का समावेश माना जाता है। उस परम तत्व से ही विविधतापूर्ण सृष्टि का विकास हुआ है।

        ऋत की अवधारणा सम्पूर्ण दर्शन और विज्ञान का मूल है। ऋत का आशय है कि सृष्टि के सम्पूर्ण क्रिया कलाप निश्चित नियमों के अनुसार ही होते हैं। और उन नियमों में किसी भी प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। गुरुत्वाकर्षण का नियम, गति के नियम, ध्वनि, ऊर्जा के सञ्चरण नियम सार्वकालिक हैं। और कोई भी शक्ति इन नियमों में परिवर्तन नहीं कर सकती है। यही ऋत वैज्ञानिक प्रगति का मूल मन्त्र है। जब ऋत की अवधारणा के रूप में एक बार यह निश्चित हो गया कि सृष्टि का सञ्चालन निश्चित नियमों के अनुसार ही होता है। तो अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, विद्युत आदि के गुणधर्म की खोज और उनका उपयोग कर जीवन को सुविधापूर्ण बनाने के प्रयास प्रारम्भ हुए और विज्ञान का विकास तथा सभ्यता का जन्म हुआ।

सत् वैदिक दर्शन का तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है। इसका आशय है सृष्टि में विभिन्न परिवर्तनशील पदार्थों के बीच कुछ स्थायी और अपरिवर्तनीय है भी है। यह अनुभव किया गया कि जल, हिम, वाष्प के रूप अलग होते हुए भी मूलतः तत्व ही हैं। अग्नि और सूर्य में ऊष्मा एक ही है। दीपक, सूर्य और विद्युत से उत्पन्न प्रकाश तत्व एक ही है। जो सत् हो सकता है। यह विकास क्रम चलता रहा और यह निश्चित हुआ कि सम्पूर्ण सृष्टि में सत् केवल ब्रह्मा है और शेष सब कुछ परिवर्तनशील है। यही शिद्धान्त ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या कहकर व्यक्त किया गया है। इसका अर्थ है कि सत् अर्थात् स्थायी मूल तत्व केवल एक ही परमात्मा के हैं।

पौराणिक दर्शन ब्रह्म के साथ ही सर्वशक्तिमान देवों की सत्ता भी मानता है। उसका मानना है कि कुछ देव शक्तियाँ सब कुछ करने में समर्थ हैं कि और अपने अनुकूल लोगों की सहायता तथा विपरीत लोगों की क्षति भी करती रहती हैं। देवता किन बातों को अच्छा और बुरा मानते हैं, इस चिन्तन के आधार पर पाप और पुण्य की अवधारणा स्थापित हुई और स्वर्ग और नरक की भी धारणा बनी इस धारणा के अनुसार पूजा पाठ करके देवों को प्रसन्न करना मुख्य कार्य बन गया और माना जाने लगा कि इससे देवगढ प्रसन्न होकर हमारी सहायता करें और हमारे कार्य सुगमता पूर्वक सम्पन्न होने लगें। यह भी प्रचारित किया गया कि पूजा पाठ न करने तथा विरोध करने पर देवता हाँनि भी पहुँचाते हैं।

व्यवहार मे यह भी देखा गया कि पूजा पाठ करने वाले और धर्म कही जाने वाली बातों का पालन करने वाले कष्ट भोगते हैं और विपरीत कार्य विचार वाले लोग सुखी रहते हैं। इसका समाधान पूर्व जन्म के कर्म को बताया जाने लगा। यह माना गया कि कष्ट भोगने वाले धार्मिक व्यक्ति ने पूर्व जन्म में पाप किए थे जिनका फल वह इस जन्म में भोग रहा है और इस इस जन्म के अच्छे कर्मों का फल उसे मरने के बाद स्वर्ग में प्राप्त होगा। पुनर्जन्म की अवधारणा इससे बहुत मजबूत हो गई होगी। अप्रत्याशित रूप से बन जाने वाले संयोगों तथा समझ में न आ पाने वाली घटनाओं को देवताओं का चमत्कार कहा जाने लगा। किसी परेशान व्यक्ति की सहायता यदि उसके किसी मित्र, परिचित या अपरिचित व्यक्ति ने कर दी और उसे राहत मिल गई तो इसे देवताओं की कृपा माना गया। इसी प्रकार अचानक हो जाने वाली दुर्घटनाओं को धार्मिक लोग देवताओं के कोप का दण्ड बताने लगे। धीरे धीरे जीवन में सब कुछ देवताओं की कृपा पर ही आश्रित माना जाने लगा।

      इस अवधारणा के प्रचार से बहुत अधिक परेशान व्यक्ति को थोडा मनोवैज्ञानिक सहारा अवश्य मिला। उसे आशा बंधी कि देवताओं की कृपा से कष्ट दूर भी हो जायेंगे तथा उसने कष्टों को पूर्व जन्म का फल मानकर सन्तोष भी कर लिया। इससे परम निराशा और चरम अवसाद की स्थितियों से कुछ सुरक्षा अवश्य मिली, लेकिन इससे मनुष्य की कर्म स्वतन्त्रता छिन हो गई और वह देवताओं की कृपा का दास बनकर रह गया। धीरे धीरे भाग्य की अवधारणा प्रबल होती गयी और सुख दुख भाग्य के अधीन माना जाना प्रारम्भ हो गया। इस भाग्यवाद को ही मानव की अकर्मण्यता का मूल माना जाना चाहिए।

जब यह मान लिया गया कि सब कुछ देवताओं की इच्छा से ही होना है और मनुष्य के प्रयासों से कुछ भी सम्भव नहीं है तो अकर्ममण्यता को बढावा मिला। देवताओं की इच्छा होगी तो कार्य सफल हो जायेगा, हमारे प्रयासों से कुछ भी नहीं  हो सकता, इस विचार से प्रगति का मार्ग अवरूद्ध होने लगा। फिर इसमें कुछ संसोधन करना पडा। यह कहा जाने लगा कि देवता भी उन्ही की सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयम् करने के लिए तत्पर रहते हैं।इस प्रकार पौराणिक देववाद और भाग्यवाद की तुलना  में वैदिक ब्रह्मवाद और ऋतवाद पूर्णतः तर्कसङ्गत वैज्ञानिक चिन्तन हैं। वैदिक दर्शन वैज्ञानिक अध्यात्म भी माना जाता है। जो धार्मिक आडम्बर और देवताओं को नियामक मानने को अस्वीकार करता है और मनुष्य को कर्म की स्वतन्त्रता प्रदान करता है।

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      दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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