मगध राजवंश और तिथि क्रम
कौशाम्बी सम्राट उदयन प्राचीन पुरुवंश या भरतवंश के अन्तिम प्रतापी शासक थे। उसके बाद कौशाम्बी की शक्ति क्षीण होने लगी और मगध का प्रभाव बढने लगा। काशी, कोशल, मगध भी अवन्ति साम्राज्य में विलीन हो गये। इस प्रकार बुद्धोत्तरकालीन भारत में मगध साम्राज्य राजनीति का केन्द्र बन गया। इसके अलावा भारतीय इतिहास में मगध साम्राज्य का महत्व तिथि क्रम निर्धारण में भी बहुत अधिक है। मगध राज्य के संस्थापक चेदिराज वसु के पुत्र बृहद्रथ थे। अतः प्राचीनतम मगध राजवंश को बृदद्रथवंश कहा जा सकता है। बृहद्रथ के पुत्र जरासन्ध कृष्ण के समकालीन मगध नरेश थे। वह बृहद्रथ राजवंश पूरी तरह से सुरक्षित हमें उपलब्ध हैं।बृहद्रथ से आन्ध्रवंश तक सभी राजाओं के नाम और शासनकाल स्पष्टरूप से पुराणों में उल्लिखित है। इस प्रकार बृहद्रथ वंश भारतीय प्राचीन इतिहास के तिथिक्रम निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान करता है।
जरासन्ध के बाद की बाईस पीढियों का शासनकाल एक हजार वर्ष बताया गया है। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि बृहद्रथ वंश के राजाओं के नाम देने के बाद उनका सम्मिलित शासनकाल दे दिया गया है। इस वंश की कुल पीढियों की संख्या नहीं दी गई है। जबकि उसके बाद सभी वंशो के राजाओं की कुल संख्या भी बताई गई है। इससे प्रतीत होता है कि पुराणों के संकलन के समय में भी यह माना जाता था कि उन एक हजार वर्षोंमें हुए कुल राजाओं की संख्या बाईस से अधिक रही होगी और कुछ के नाम नहीं मिल सके होगें। एक हजार वर्षों में बाईस पीढियों का औसत शासन काल लगभग 45 वर्ष होता है जो अधिक ही प्रतीत हो पर असम्भव या अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता है।
बृहद्रथ वंश के अन्तिम मगध नरेश रिपुञ्जय थे। उनके प्रधानमन्त्री का नाम सुनिक था। सुनिक ने राजा की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को राजी बना दिया। विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय चौबीस के पहले तथा दूसरे वाक्य में ही जानकारी दी गई है। इससे स्पष्ट है कि मगध नरेश प्रद्योत के पिता मगध के ही मन्त्री थे। उनका अवन्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रद्योत के उत्तराधिकारी पुत्र बलाक हुए। बलाक के पुत्र विशाखयूप थे। उनके पुत्र जनक उनके बाद राजा बने। जनक के पुत्र नन्दिवर्द्धन हुए। उनके पुत्र का नाम नन्दी था। इन प्रद्योतवंशी राजाओं ने एक सौ अड़तीस वर्ष तक शासन किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास की कितनी स्पष्ट तिथियां हमारे पास सुरक्षित हैं।
प्रद्योत वंश के बाद मगध पर शिशुनाग का अधिकार हो गया। उनके बाद इस वंश में क्रमशः काकवर्ण, क्षेमधर्मा, क्षितिजा, विम्बसार, अजातशत्रु, दर्भक या दर्शक, उदायिन, नन्दिवर्द्धन तथा महानन्दी ने शासन किया। इस वंश का शासनकाल 362 वर्ष लिखा गया है विधिसार को पालिसाहित्य में विम्बसार कहा गया है। वे बुद्ध के समकालीन थे। उनके पुत्र अजातशत्रु के शासनकाल के नवें वर्ष में महात्मा बुद्ध ने शरीर त्याग दिया था। मगध में शिशुनाग वंश के राजा महाबन्दी के बाद महापदमनन्द ने राज्य किया था। महापदमनन्द के राज्यभिषेक और परीक्षित के जन्म के बीच का समय 1500 वर्ष है। यह स्पष्ट तिथिक्रम प्राचीन भारतीय इतिहास की प्रमाणिकता को स्पष्ट करता है। महापदमनन्द और उनके पुत्रों का कुल शासन काल एक सौ वर्ष था।
अतः नन्दवंश का अन्त और मौर्य वंश का आरम्भ महाभारत युद्ध के 1600 वर्षों के बाद हुआ। सभी भारतीय साक्ष्य इन्हीं तिथियों को मान्यता देते हैं लेकिन आधुनिक इतिहासकारों के चन्द्रगुप्त मौर्य को सिकन्दर का समकालीन सेण्ड्रोकोटस का पर्याय मान लेने के कारण सारा तिथिक्रम उलझकर रह गया है। विचित्र बात यह है कि किसी भी इतिहास कार ने इस तथ्य की ओर ध्यान देने का प्रयास नहीं किया कि चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु और मन्त्री विष्णुगुप्त चाणक्य कौटिल्य ने अपने प्रशिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र में नन्दवंश के विनाश का तो उल्लेख किया गया है लेकिन सिकन्दर के आक्रमण और उसके सेनापति सेल्यूकस की पराजय तथा उसकी पुत्री हेलेना के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के विवाह का उल्लेख तक नहीं किया। यदि सिकन्दर उनके समकालीन होते तो इतनी बढी घटना का उल्लेख जरूर होना चाहिये था। उल्लेखनीय है कि अर्थशास्त्र मूलतः राजनीति का ही ग्रन्थ है और उसे ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। किसी भारतीय पुस्तक में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में सिकन्दर या सेल्यूकस का उल्लेख नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा यूनानी सम्राट सिकन्दर समकालीन नहीं थे। दोनों के बीच लगभग बारह शताब्दियों का अन्तर है।
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बुद्घकालीन प्रमुख सम्प्रदाय
बुद्धकालीन वैदिक धर्म का सबसे अधिक प्रचलित रूप यज्ञ धर्म था। चिन्तनशील बुद्धिजीवी ऋषि उपिनिषदों में प्रतिपादित दर्शन का मन्थन कर रहे थे, लेकिन जब जनसाधारण के लिए विभिन्न प्रकार के यज्ञों का आयोजन ही धर्म था। बडे बडे यज्ञों का अनुष्ठान चलता रहता था। यज्ञों का विधिपूर्वक सञ्चालन करना प्रतिष्ठित आजीविका का साधन बन गया था। सबसे बढी विकृति यह आ गई थी कि यज्ञों में पशु हत्या बहुत बढे पैमाने पर होने लगी थी। इस प्रकार यज्ञ प्रत्यक्ष रूप से और उसी कारण से धर्म हिंसा का पर्याय बन गया था।
यद्यपि कर्मकाण्डपरक यज्ञों को ही सर्वोच्च धर्म मान लेने का शालीनता के साथ विरोध तो उपनिषदों में ही प्रारम्भ हो गया था, लेकिन हिंसा प्रधान हो जाने पर तो खुले विद्रोह की स्थिति स्पष्ट दिखाई पडने लगी थी। बुद्ध के समय तक आते आते यज्ञ विरोधी सन्यास धर्म बहुत प्रबल हो गया था। बुद्ध काल में अधिकांश लोग जो यज्ञीय हिंसा से त्रस्त थे, सामाजिक जीवन छोडकर सन्यासी बनने लगे थे। बुद्ध के समय में ऐसे सन्यासियों के 63 संगठित सम्प्रदाय थे जो अपने अपने ढंग से उस समस्या का हल खोजने में व्यस्त थे। उनमें वैचारिक मतभेद बहुत तीव्र थे और परस्पर विरोध स्पष्ट था। उनमें समानता केवल इतनी थी सभी यज्ञीय हिंसा से ऊब कर गृहस्थ जीवन छोडकर सन्यासी बन गये थे। वे सभी योग साधना में विश्वास रखते थे और शरीर को कष्ट देनें में भी सुख का अनुभव करते थे। इस प्रकार यज्ञीय हिंसायुक्त धर्म के विरोध में योग तथा तप युक्त सन्यास धर्म का एक रूप जैनमत भी है। जैनमत का संस्थापक आदिनाथ ऋषभदेव को माना जाता है।
बुद्धकालीन 63 श्रमण संगठनों में 6 प्रमुख माने गये हैं। उनमें एक सम्प्रदाय के आचार्य पूरण कश्यप थे। उनका मानना था कि मनुष्य कुछ भी अच्छा बुरा कार्य करे, उसे पाप या पुण्य नहीं मिलता है। कोई कितनी भी हत्यायें करे या कितना भी दान दे, उसे कोई फल पाप या पुण्य के रूप में नहीं मिलेगा। निष्काम कर्मयोग फल या लाभ हानि की चिन्ता किये बिना कर्तव्य करने की प्रेरणा देता है जबकि पूरणकश्यप का अक्रियावाद कर्तव्य अकर्तव्य का विचार किये बिना कुछ भी करते रहने की छूट दे देता है। इसके पीछे यज्ञ को ही पुण्य तथा यज्ञ के विरोध को पाप मानने की प्रवृत्ति को रोकने का ही प्रयास परिलक्षित होता है।
पकुध कात्यायन का मत अकृततावाद कहा जाता था। उनका मत भी बहुत कुछ पूरण कश्यप से ही मिलता जुलता था। उनका कहना था कि जो तेज शस्त्रों से दूसरों का सिर काटता है, वह हत्य नहीं करता। सिर्फ उसका शस्त्र उन तत्वों के बीच के रिक्त स्थान में ही प्रवेश करता है जिनसे जीव निर्मित हैं। पकुध कात्यायन कर्म का दायित्व मनुष्य पर नहीं छोडते, अतः पाप पुण्य जैसे कार्य फल का प्रश्न ही नहीं उठता है। तीसरा प्रमुख मत अजित केस कम्बली का उच्छेदवाद था। उनका मानना था कि मृत्यु के बाद शरीर के तत्व अपने अपने स्थान में समा जाते हैं। और कुछ भी शेष नहीं बचता है। विद्वान और मूर्ख दोनो का मृत्यु के बाद उच्छेद हो जाता है। इसे जडवाद भी कहा जाता है।
चौथे संघ के प्रमुख आचार्य मक्खल गोसाल थे। उनका मत देववाद था। उसके अनुसार मनुष्य़ आदि प्राणियों में स्वयम् कुछ भी करने की शक्ति नहीं है। मनुष्य बिना किसी कारण के ही पवित्र और अपवित्र होता है। अस्सी लाख महाकल्पों के फेरे में पडे बिना किसी भी दुख का नाश नहीं होता है। यह मत भाग्यवाद की पराकाष्ठा है। पांचवें संघ के आचार्य जैन साधु निगण्ठ नाग पुत्र थे। वे उक्त मतों की बात करते थे। और आधुनिक अर्थों में समन्वयवादी उन्होनें इन चार मतों का प्रतिपादन किया है। छठे प्रमुख आचार्य सञ्जय बेलपुत्त थे। उनका मानना था कि लोक परलोक, कर्म फल तथा मृत्यु के बाद जीवन है या नहीं, इन सबके विषय में निश्चय पूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस मत को अनिश्चिततावाद कहते हैं। वास्तव में देखा जाये तो आज तक इन सब मामलों में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सका है। ये सारे मामले आस्था से जुडे हैं और सभी के अपने अपने विश्वास हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हिंसामय यज्ञों से ऊबकर घर छोडकर सन्यासी बने इन लोगों में एक बात पर ही सहमति खोजी जा सकती है कि ये लोग चाहते थे कि लोग हिंसक यज्ञों को बन्द कर किसी भी गम्भीर धर्म का आचरण करें। वह गम्भीर धर्म कैसा होना चाहिए, इस बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका था।
बुद्ध ने इन तमाम अतियों के बीच मध्यम मार्ग पर बल दिया। उन्होंने हिंसामय यज्ञों का विरोध किया, अहिंसा पर बल दिया, करुणा और मैत्री का सन्देश दिया। लेकिन बुद्ध ने अहिंसा की इतनी भी अति नही होने दी कि जीवन यापन की अव्यावहारिकता के कारण असम्भव जैसा बन जाए। महात्मा बुद्ध वैदिक धर्म के अतार्किक विरोधी नहीं थे। उन्होनें उसमें आ गई विकृतियों का परिमार्जन किया तथा अन्य मतों की उपयोगी बातों को समन्वित कर मानव जीवन को अधिक पूर्णतः प्रदान करने का प्रयास किया।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………