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इक्ष्वाकुवंश तथा शाक्यों का विनाश

                     सम्राट उदयन का समकालीन कोशल नरेश प्रसेनजित थे। महाभारत युद्ध में तत्कालीन कोशल नरेश बृहद़्बल ने धृतराष्ट्र पुत्रों की ओर से युद्ध किया था और अर्जुन पुत्र अभिमन्यु द्वारा मारे गये थे। सूर्यवंश में तबतक लगभग एक सौ पीढियाँ हो चुकी थीँ। बृहद़्बल के बाद उनके पुत्र वृहतक्षण कोशल के राजा बने। उनकी स्थिति चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर के अधीन सामन्त की थी। युधिष्ठिर के बाद भी कई पीढियों तक हस्तिनापुर के भरतवंश की चक्रवर्ती सत्ता बना रही। युधिष्ठिर के बाद उनके युवा पुत्र परीक्षित उनके सम्राट बने और साठ वर्ष तक शासन करते रहे।

परीक्षित के बाद जनमेजय, उनके बाद शतानीत प्रथम और उनके बाद अश्वमेधदत्त हस्तिनापुर सम्राट बने। अधिसीमकृष्ण उनके बाद गद्दी पर बैठे। अधिसीमकृष्ण के बाद उनके पुत्र निचक्नु के शासनकाल में गंगा नदी की भीषण बाढ में हस्तिनापुर नगर नष्ट हो गया। तब निचक्नु ने कौशाम्बी को राजधानी बनाया। इससे अनुमान किया जा सकता है कि उस समय कोशल या मगध केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध शक्ति बढा रहें होगें तथा देश की पश्चिमी सीमा पर खतरा नहीं होगा। इसलिए निचक्नु ने नई राजधानी कौशाम्बी में बनाई और इसके लिए हस्तिनापुर के निकट स्थित इन्द्रप्रस्थ को नहीं चुना। कौशाम्बी से सम्भावित प्रतिद्वन्दियों कोशल, मगध और अवन्ति पर नियन्त्रण रखना अधिक सरल था। कोशल में वृहदबल की 22वीं पीढी सञ्जय हुए। वंशक्रम में वृहदबल के बाद क्रमशः वृहदक्षण, उरूक्षय, वत्सव्यूह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, वृहदश्व, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीक, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नर, अन्तरिक्ष, सुपर्ण, अमित्रजित, वृहद्राज, धर्मी, कृतञ्जय, रणञ्जय, सञ्जय कोशल नरेश हुए।

स्वतन्त्र और शक्तिशाली राज्य न रहने के कारण कोशल का प्राचीन गौरव धीरे धीरे नष्ट हो गया। कोशल और विदेह राज्य के इक्ष्वाकु और जनकवंश के राजपरिवार के अनेक लोग छोटे छोटे सामन्त बन गये और दोनो प्राचीन राज्य एक प्रकार से समाप्त हो गये। कोशल राजवंश में सञ्जय के बाद पुराणों में शाक्य का नाम आता है। बुद्ध के समय शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु थी जबकि कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी। कोशल नरेश प्रसेनजित थे तथा गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के राजा थे। इतना तो निर्विवाद सत्य है कि शाक्य वंश स्वयम् को इक्ष्वाकुवंश के अन्तर्गत ही मानता था। ठीक वैसे ही जैसे राम का रघुवंश इक्ष्वाकुवंश के अन्तर्गत माना जाता है। इक्ष्वाकुवंश ही रघु के नाम पर रघुवंश कहलाया और शाक्य के नाम पर शाक्यवंश कहा गया।

        सम्राट उदयन और गौतम बुद्ध के समय अयोध्या राजधानी नहीं रह गयी थी। यह भी सत्य है कि शाक्यवंशी लोग स्वयम् को उच्चकुलीन इक्ष्वाकुवंशी मानते थे और कोशल नरेश प्रसेनजित को अपनी तुलना में निम्न मानते थे इसलिए जब राजा प्रसेनजित ने शाक्य राजकुमारी से विवाह करना चाहा तो शाक्यों को यह प्रस्ताव अपमानजनक लगाऔर राजनीतिक दबाववश अस्वीकार नहीं कर सके तो शाक्यों ने राजकुमारी के स्थान पर दासी से प्रसेनजित का विवाह कर दिया।

    उसी दासी के पुत्र विडूडभू या विरुद्धक हुए जो प्रसेनजित के उत्तराधिकारी नरेश थे। लेकिन जब प्रसेनजित को दासी से विवाह का रहस्य ज्ञात हुआ तो उन्होनें विडूडभू और उनकी माँ से सम्बन्ध तोड लिया। बाद में महात्मा बुद्ध के समझाने पर प्रसेनजित ने पत्नी वासभ खत्रिया और पुत्र विडूडभू को स्वीकार कर लिया। इस घटना का ऐतिहासिक महत्व भी है। विडूडभू ने अपने पिता प्रसेनजित और शाक्यों से बदला लेने के लिए प्रसेनजित की अनुपस्थिति में सत्ता पर अधिकार कर लिया तथा शाक्यों पर आक्रमण कर उनका समूल नाश कर दिया। इस प्रकार इस घटना से प्राचीन इक्ष्वाकुवंश नष्ट हो गया।

अब प्रश्न उठता है कि प्रसेनजित कौन थे ? प्रसेनजित के पिता का नाम महाकोशल मिलता है वे बुद्ध के पिता शुद्धोधन के समकालीन श्रावस्ती नरेश थे शब्द महाकोशल नाम से अधिक उपाधि प्रतीत होती है। कोशल नरेश का नाम महाकोशल मूल नाम नहीं लगता। बौद्ध साहित्य में तत्कालीन श्रावस्ती नरेश अग्निदत्त का नाम भी मिलता है। कुछ इतिहासकार अग्निदत्त नाम प्रसेनजित का ही मानते हैं। सम्भव यह है यह नाम प्रसेनजित का पिता महाकोशल का हो। सम्भव है कि अग्निदत्त या महाकोशल ने शक्ति एकत्र कर श्रावस्ती पर अधिकार कर लिया हो और इसी कारण शाक्य को भागकर कपिलवस्तु में जाना पडा हो। राजा शुद्धोदन के बाद तो शाक्यवंश ही समाप्त हो गया और उस राज्य पर प्रसेनजित का का सीधा नियन्त्रण स्थापित हो गया। शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार  शिद्धार्थ सन्यास लेकर बुद्ध बन गये थे। शिद्धार्थ के पुत्र राहुल भी बुद्ध के संघ में सम्मिलित हो गये थे।

प्रसेनजित ने स्वयम् को कोशलक कहा है। जनपद के आधार पर वे कोशलक थे ही, सम्भवतः इक्ष्वाकुवंश की ही शाखा में रहे हों। इसलिए पुराणों की वंशावली में इक्ष्वाकुवंश में शाक्य राजा शुद्धोदन के बाद प्रसेनजित का नाम आता है। उसके बाद विडूडभ, कुलक, सुरक्ष और सुमित्र नरेश कौशल नरेश हुए। सुमित्र के बाद कोशल राज्य और प्राचीन राजवंश पूरा तरह से समाप्त हो गया। कौशाम्बी के साम्राज्य काल में  कोशल का अस्तित्व किसी तरह बना रहा लेकिन मगध के उत्कर्ष के समय वह पूरी तरह इतिहास के पृष्ठो में विलीन हो गया।

प्रसेनजित को पाँच राजाओं के दल का प्रधान कहा गया है। लेकिन उन राजाओं के नाम नहीं मिलते हैं। अधिक सम्भावना यही है कि कौशाम्बी और  मगध साम्राज्यों के बीच स्थित छोटे छोटे अनेक राज्यों से संघ बना लिया होगा और उनमें अधिक शक्तिशाली होने के कारण प्रसेनजित को उस संघ का प्रधान चुन लिया होगा। हम जानते हैं कि कौशाम्बी औप मगध साम्राज्यों के बीच स्थित दो  प्राचीन प्रमुख राज्यों कोशल और विदेह के टूट जाने पर उनके जनपदों में गणतन्त्रात्मक शासन प्रणाली स्थारपित हो गयी थी। इन गणतन्त्रों के संघ का प्रधान प्रसेनजित को बना लिया होगा। इस प्रकार चक्रवर्ती साम्राज्य रह चुके कोशल राज्य का अस्तित्व बचाने के लिए सामन्त राज्य से गणतन्त्र तक  अनेक उपाय किये गये लेकिन मगध के उत्कर्ष के दौरान कोशल का नाम भी बचाया नहीं जा सका। इस प्रकार शाक्यवंशी शुद्धोदन और श्रावस्ती नरेश प्रसेनजित को कोशल के इक्ष्वाकुवंश का अन्तिम प्रकाश माना जा सकता है। उसके बाद विडूडभ ने तो शाक्यों का क्रूर विनाश करके गणतन्त्रों का समर्थन भी खो दिया और भविष्य में शक्ति सञ्चय की सम्भावना भी समाप्त हो गई। वही समय था जब कौशाम्बी और मगध के बीच भारत के साम्राज्य के लिए निर्णायक संघर्ष शुरु हो रहा था। जिसमें अन्ततः मगध को सफलता मिली। इन दो बडे शक्तिशाली साम्राज्यों के बीच संघर्ष में शक्तिहीन कोशल के लिए कोई महत्वपूर्ण स्थान बन पाना सम्भव नहीं रह गया था। जातकों के अनुसार तो एक बार काशी नरेश ने कोशल को अपने राज्य में मिला लिया था लेकिन फिर कोशल स्वन्त्र हुआ तो प्रसेनजित के पिता के राज्य में काशी के कुछ क्षेत्र भी सम्मिलित थे।

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अवन्ति के शासक और उसका महत्व

         बुद्धकाल में अवन्ति की स्थिति काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। इतिहासकार तत्कालीन भारत में अवन्ति को चार प्रमुख साम्राज्यों में एक मानते हैं। लेकिन अवन्ति के इतिहास के विषय में कुछ साहित्यिक पुस्तकों पर ही निर्भर रहना पडता है। इसलिए इस सम्बन्ध में बहुत मतभेद भी हैं। साहित्यिक पुस्तकों में अवन्ति के तीन शासकों के नाम चण्ड, पज्जोत तथा महासेन मिलते हैं। आधुनिक इतिहासकारों ने कल्पना के अनुसार तीनों को एक ही व्यक्ति मान लिया और उस प्रद्योत माना है। बौद्ध साहित्य में पज्जोत नामक अवन्ति नरेश का वर्णन क्रूर, युद्ध प्रिय और महत्वाकांक्षी शासक के रूप में हुआ है। ऐसा माना जाता है कि कि प्रद्योत का पालिभाषा रूप पज्जोत है लेकिन पज्जोत का संस्कृत रूप प्रज्योत् या अन्य कुछ भी तो हो सकता है। संस्कृति नाटक प्रतिज्ञा यौगन्धरायण में कौशाम्बी सम्राट उदयन के समकालीन अवन्ति नरेश का नाम महासेन मिलता है। भरतवंशी सम्राट उदयन की ऐतिहासिकता असन्दिग्ध है। उनका विवाह अवन्ति नरेश महासेन की  पुत्री वासदत्ता के साथ हुआ था।

प्रद्योत के विषय में यह महत्वपूर्ण है कि मगध की राजवंशावली में प्रद्योतवंस के शासन का उल्लेख मिलता है। महाभारत कालीन जरासन्ध वंश के लगभग दो दर्जन राजाओं के बाद मगध में प्रद्योतवंश के पाँच राजाओं ने शासन किया था। उसके बाद आये शिशुनाग वंश के पाँचवें छठवें राजाओँ के समय गौतमबुद्ध हुए थे। अतः इतना स्पष्ट है कि मगध शासक प्रद्योत और अवन्ति शासक पज्जोत, चण्ड या महासेन अलग – अलग व्यक्ति ही थे, एक व्यक्ति नहीं। हो सकता है कि सम्राट उदयन के लम्बे शासन काल के दौरान अवन्ति में तीन राजा हो गयें। उपयुक्त प्रमाण हो तो तीनो को एक भई माना जा सकता है। अवन्ति नरेश पज्जोत या प्रद्योत ने अपने आस पास के कुछ दक्षिणी राज्यों पर विजय प्राप्त की थी। मगध के शासक अजातुशत्रु ने भी उनके भय से राजधानी नगर राजगृह की किलेबन्दी कराई थी। प्रद्योत का शासन काल 23 वर्ष माना गया है। उसके बाद उनके छोटे पुत्र पालक राजा बने। इस बात का अवरोध उनके भतीजे अजक, आर्यक और सूर्यक ने किया। इस विद्रोह को दबाने में कौशाम्बी नरेश उदयन ने सहायता दी थी। इससे भी उदयन की प्रमुखता स्पष्ट होती है। पालक का शासन काल 24 वर्ष रहा उसके बाद आर्यक ने 21 वर्षों तक शासन किया।

संयोगवश अब तक कहीं भी अवन्ति की राजवंशावली प्राप्त नहीं हो सकी है। महभारत काल से बुद्ध काल तक तथा उसके बाद अवन्ति सम्राट विक्रमादित्य तक कोई वंशावली हमारे पास नहीं है। पुराणों में कौशाम्बी, कोशल और मगध की वंशावलियाँ उपलब्ध हैं, लेकिन अवन्ति की वंशावली नहीं मिलती है। इसलिये किसी घटना विशेष का साहित्यिक वर्णन करने वाले ग्रन्थों पर ही निर्भर रहना पडता है। इससे अनुमान होता है कि अतिप्राचीन काल में अवन्ति का राजनीतिक महत्व अधिक नहीं था। अतः उसका वर्णन वत्स, कोशल और मगध साम्राज्यों के विजय अभियान और विवाह सम्बन्धी के सन्दर्भ में ही किया गया है।

अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीन काल में अवन्ति राज्य हस्तिनापुर या कौशाम्बी साम्राज्य के अन्तर्गत ही रहा होगा और वहां पर किसी प्रमुख राजवंश के शासन के स्थान पर केन्द्रीय शासन द्वारा नियुक्त सामन्त शासन करते होगें। सम्राट की इच्छानुसार ये सामन्त बदलते रहे और कोई राजवंश स्थापित नहीं हो सका। कौशाम्बी सम्राट उदयन के बाद भरतवंश की शक्ति कमजोर पडने लगी तो मगध का महत्व बढने लगा। कालान्तर में कौशाम्बी साम्राज्य के विभिन्न राज्यों पर मगध का अधिकार होता चला गया। इसी क्रम में अवन्ति राज्य भी कुछ समय बाद मगध साम्राज्य का अंग बन गया। सम्राट विक्रमादित्य के दो या तीन शताब्दियों पूर्व तक अवन्ति राज्य मगध साम्राज्य का ही अंग बना रहा। मगध के शिशुनाग वंश, नन्द वंश, मौर्य वंश, शुंगवंश, कण्डवंश तथा आन्ध्र सातवाहनवंश के सम्राटों ने अवन्ति के राज्य पर प्रभुत्व बनाये रखा।

वास्तव में अवन्ति या उज्जैन का महत्व सम्राट विक्रमादित्य के कारण ही है। विदेशी शकों को परास्त कर विक्रमादित्य ने उज्जैन को भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक राजनीतिक के रूप में स्थापित कर दिया। बाद में शताब्दियों तक, गुप्त काल के बाद तक उज्जैन का महत्व बना रहा। गुप्तवंशी सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ने स्वयम् विक्रमादित्य की उपाधि धारण की  और उज्जैन को अपने साम्राज्य की दूसरी राजधानी का गौरन भी प्रदान किया। बुद्धकालीन इतिहास में अवन्ति का महत्वपूर्ण उल्लेख होने के कारण यह भी है कि वह बुद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया था। सम्भवतः इसलिए इतिहासकार अवन्ति को बुद्घकालीन प्रमुख राज्य मानते हैं।

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         दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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