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कौशाम्बी, कोशल और मगध

                   सम्राट जनमेजय के बाद उनके पुत्र सतानीक सिंहासन पर बैठे। पुराण उनकी प्रशंसा करने में भी उदार रहें हैं। शतानीक के काल मे भी पुराण रचना की परम्परा जारी रही। उन्हें शस्त्र और शास्त्र दोनो में पारंगत बताया गया है। उन्होनें याज्ञवल्क्य ऋषि से वेदों और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त किया तथा सैनिक ऋषि को अध्यात्मिक गुरु बनाकर आत्मज्ञान प्राप्त किया। उनके समय में उपनिषदों का दर्शन काफी विकसित हो चुका था। और कर्मकाण्ड के स्थान पर अध्यात्म दर्शन को धर्म का मूल तत्व माना जाता था। पुराणों के इतिहास और उपनिषदों के माध्यम से दर्शन को महत्व मिलने लगा तथा अश्वमेध जैसे विराट यज्ञों की परम्परा समाप्त हो गई। शतानीक के उत्तराधिकारी पुत्र अश्वमेध दत्त थे। यह भी सम्मव है कि शतानीक के पुत्र का जन्म जनमेजय के अश्वमेध या नागयज्ञ के समय हुआ हो। उसके बाद मौर्य काल तक किसी सम्राट ने अश्वमेध यज्ञ नहीं किया। मौर्यों के बाद पुष्यमित्र शुङंग ने ही अश्वमेध यज्ञ किया था। अश्वमेधदत्त के उत्तराधिकारी अधिसीमकृष्ण हुए। उसके बाद निचक्नु भारत के सम्राट बने।

विष्णु पुराण के अनुसार निचक्नु के शासनकाल में ही गंगा नदी की भीषण बाढ़ से हस्तिनापुर नगर नष्ट हो गया। सम्भवतः गंगा नदी धारा बदल कर नगर में बहने लगी थी। अतः उन्होनें कौशम्बी में राजधानी बनाई। कौशम्बी प्रयाग के निकट प्राचीन नगर था। सत्ययुग के अन्तिम चरण में, अर्थात् सूर्यवंशी सम्राट हरिश्चन्द से लगभग एक शताब्दी पूर्व, चन्द्रवंश में प्रशिद्ध राजा कुशाम्ब हुए थे। उन्होनें ही कौशम्बी नगर की स्थापना की थी। अतः चन्द्रवंशी सम्राट निचक्नु ने हस्तिनापुर नष्ट होने पर कौशम्बी को नयी राजधानी बना लिया। उसके बाद गौतम बुद्ध के समय तक प्रमुख राज्य के रूप में कौशम्बी  की प्रतिष्ठा बनी रही। पुरात्ववेत्ताओं को कोसम नामक स्थान पर प्राचीन राजधानी कौशाम्बी के अवशेष खुदाई में मिलें हैं।

सम्राट जनमेजय के बाद शतानीक, अश्वमेधदत्त और अधिसीमकृष्ण ने शासन किया।इन तीन राजाओं के बाद निक्चनु सिंहासन पर बैठे। तीन राजाओं का शासन काल एक शताब्दी से पर्याप्त अधिक था। अतः चौथी पीढी में हुए निक्चनु के शासनकाल में हस्तिनापुर नष्ट होने और कौशाम्बी में नई राजधानी बनाये जाने की घटना का समय 29वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व माना जा सकता है। सम्राट युधिष्ठिर के बाद हस्तिनापुर और कौशाम्बी राजधानियों में पाण्डु वंश के तीस राजाओं के शासन का उल्लेख मिलता है। इनमें निक्चनु छठवें राजा थे जिन्होंने कौशाम्बी को राजधानी बनाया। इस वंश में चौहदवीं पीढ़ी में राजा नृचक्षु हुए। उन्हें भी कौशाम्बी को राजधानी बनाने का श्रेय दिया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नामों के मिलते जुलते होने के कारण यह भ्रम हुआ है।

सम्राट उदयन कौशाम्बी के बुद्धकालीन शासक थे। वे पाण्डु वंश में युधिष्ठिर के बाद 25वीं पीढी में हुए थे। गौतम बुद्ध से सम्बन्ध होने के कारण उनके विषय में पर्याप्त ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध है। वे कुशल शासक और वीर सेनापति थे। तब तक पाण्ड़ु वंश के पास भारत की चक्रवर्ती सत्ता नहीं रह गई थी। और अनेक राज्य स्वतन्त्र हो चुके थे। सम्राट उदयन ने अवन्ति पर विजय प्राप्त की और उसका नाम उदयनपुरी रख दिया। बाद में उसी का अपभ्रंश होकर उसका नाम उज्जैन हो गया। यह मान्यता इतिहासकारों के बीच सामान्यतः स्वीकृत है।

कृष्णोत्तरकालीन इतिहास में पाण्डु वंश के अतिरिक्त कोशल और मगध को काफी महत्व दिया गया है। कोशल का सूर्यवंश सबसे प्राचीन और सबसे लम्बे समय तक अस्तित्व बनाये रखने वाला राजवंश था। गौतम बुद्ध भी कोशल के सूर्य वंश में हुए थे। सूर्यवंश में राम के के कारण रघुवंश को जो सम्मान मिला, वही महत्व गौतम बुद्ध के कारण शाक्यवंश को मिला। महाभारत के युद्ध में सूर्य़वंश के कोशल नरेश वृहद़्बल ने कुरु पक्ष में युद्ध किया था और अभिमन्यु के द्वारा मारे गये थे। उनके बाद उनके पुत्र वृहत्क्षण कोशल नरेश हुए। निश्चित रूप से वे युधिष्ठिर के अधीन प्रान्तीय शासक थे। उनके बाद 25वीं पीढ़ी में राजा शाक्य़ हुए जिनके नाम पर शाक्यवंश प्रशिद्ध हुआ। इसी वंश में राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ हुए जो सन्यासी होकर गौतम बुद्ध के नाम से विश्व विख्यात हैं। इस प्रकार से सूर्यवंश में वैवस्वत मनु से सिद्धार्थ बुद्ध तक सवा सौ से अधिक पीढियों का क्रमबद्ध वर्णन हमारे पास उपलब्ध है। बुद्ध के समकालीन श्रावस्ती नरेश प्रसेनचित् सूर्यवंशी कौशलक और महात्मा बुद्ध के समवयस्क भी थे। प्रसेनजित के बाद हुए श्रावस्ती के शासकों क्षुद्रक, कुण्डक, सुरथ, सुमित्र को भी सूर्यवंशी कोशल नरेश कहा गया है। सभी पुराण इस तथ्य पर एकमत है कि सुमित्र के बाद सूर्यवंश समाप्त हो गया था।

मगध को मिलने के कारण उसका परिवर्ती काल में बना वर्चस्व है। महात्मा बुद्ध के बाद मगध ही राजनीति का केन्द्र बन गया। अतः मगध का इतिहास संकलित करने को अधिक महत्व मिला। जिस प्रकाप सत्ययुग और त्रेता में सूर्यवंश प्रमुख रहा और द्वापर तथा कलियुग में कुरुवंश में महत्व प्राप्त किया, उसी प्रकार बुद्ध के 2500 वर्ष बाद गुप्तवंश के समय तक मगध ही भारतीय राजनीति के केन्द्र में रहा। इसलिए मगध का इतिहास अधिक व्यवस्थित और क्रमबद्ध उपलब्ध है।

कृष्णकालीन मगध नरेश जरासन्ध थे। उनके बाद उनके वंश ने मगध पर एक हजार वर्ष तक शासन किया। उनके वंश में इस अवधि में लगभग दो दर्जन राजा हुए। स्वाभाविक रूप से वे हस्तिनापुर और कौशाम्बी के सम्राटों के अधीन  प्रान्तीय शासक रहे होगें। कौशाम्बी की सत्ता कमजोर पडने पर मगध ने स्वतन्त्र अस्तित्व बनाया। जरासन्ध वंश के बाद मगध में कई राजवंशों ने शासन किया और विद्रोहों, क्रान्तियोंऔर सत्ता परिवर्तन के बाद मगध की शक्ति लगाकर बढती ही गई।

जरासन्ध वंश के अन्तिम राजा रिपुञ्जय थे। उनके महामन्त्री सुनिक ने उनकी हत्या कर दी और अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया। इस प्रकार प्रद्योत का राज्यारोहण महाभारत युद्ध  के एक सहस्र वर्ष पश्चात माना जाना चाहिये। मगध और भारत के इतिहास में प्रद्योत के राज्यारोहण का बहुत महत्व है। उसके बाद मगध के राजाओं का शासनकाल स्पष्ट रूप से सुरक्षित है। अतः प्रद्योत के समय से एक एक वर्ष का निश्चित उल्लेख करते हुए सभी राज्यवंशो का इतिहास प्रस्तुत किया जा सकता है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि पुराणों के माध्यम से प्राचीन इतिहास संकलन का जो कार्य कृष्णकाल में प्रारम्भ हुआ था, वह प्रद्योत के काल से ही तिथिक्रमपूर्वक क्रमबद्ध ढंग से लिखा जाने लगा। उनके समय से ही भारतीय राजनीति में मगध का उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ जो तेजी से उन्नति करते हुए साम्राज्य बन गया। ऐतिहासिक सन्दर्भ में कौशाम्बी का वर्चस्व तोडने का श्रेय मगध नरेश प्रद्योत को ही दिया जाना चाहिए।

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गौतम बुद्ध

           मगध में प्रद्योत वंश में कुल पाँच राजा हुए। उन्हें पञ्च प्रद्योत के नाम से जाना जाता है। लेकिन इस वंश की कुल सात पीढियों का उल्लेख मिलता है हम जानते हैं कि बृहद्रथ वंश के अन्तिम राजा रिपुञ्जय का वध उनके मन्त्री सुनिक ने किया था। उन्होनें अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया। प्रद्योत के उत्तराधिकारी बलाक हुए। बलाक के बाद विशाखयूप और उनके बाद जनक नामक राजा हुए। जनक के उत्तराधिकारी नन्दिवर्धन हुए। इस प्रकार प्रद्योत से नन्दिवर्द्धन तक पञ्च प्रद्योत मगध नरेश हुए। नन्दिवर्द्धन के पुत्र महानन्दी थे। सम्भवतः उन्हें शासन का अवसर नहीं मिल सका। प्रद्योत वंश का शासनकाल 138 वर्ष माना गया है। प्रद्योत का राज्यारोहण कलिसम्वत् 1000 के लगभग हुआ। इस प्रकार प्रद्योत वंश का शासन कलि सम्वत् 1138 तक रहा।

उसके बाद मगध शिशुनाग वंश का अधिकार हो गया। शिशुनाग को प्रद्योत वंश के अन्तिम राजा महानन्दी का पुत्र भी कहा गया है। इस वंश में दस राजाओं ने राज्य किया।  उनका शासन काला तीन सौ बाँसठ वर्ष बताया गया है। शिशुनाग के उत्तराधिकारी पुत्र काकवर्ण थे। उन्हें कालाशोक भी कहा गया है। काकवर्ण के पुत्र क्षेमधर्मा और उनके पुत्र क्षितीजा थे। उनके उत्तराधिकारी पुत्र विम्बसार हुए जो गौतम बुद्ध के समकालीन थे। उनके बाद अजातुशत्रु हुए। अजातुशत्रु के शासन काल के आठवें वर्ष में अस्सी वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध का निर्वाण हुआ।

अजातु शत्रु के पुत्र अर्भक और और उनके पुत्र उदयन हुए। उदयन के पुत्र नन्दिवर्द्धन और उनके पुत्र महानन्दी हुए। वे शिशुनाग वंश के अन्तिम राजा थे। उनके बाद महापद़्म नन्द ने बौद्ध विहारों के सहयोग से मगध पर अधिकार कर लिया। महापद़्म का राज्यारोहण कलि सम्वत् 1500 में हुआ। महाभारत के बाद महापद़्म नन्द से पूर्व मगध में बृहद्रथ वंश के 22 प्रद्योत वंश के 5 और शिशनाग वंश के 10 मिलाकर कुल 37 राजा हुए। इन सैतींस राजाओं ने कुल मिलाकर 1500 वर्ष तक शासन किया। इस प्रकार इनके काल निर्णय में किसी प्रकार के सन्देह या विवाद की सम्भावना नहीं है।

इस स्पष्ट सुनिश्चित तिथि क्रम के अनुसार गौतम बुद्ध का समय स्पष्ट करने का प्रयास करेंगें। यह बात सर्वमान्य है कि महात्मा बुद्ध मगध नरेश बिम्बसार और कौशाम्बी नरेश उदयन के समकालीन तथा कौशल नरेश प्रसेनजित् के समवयस्क भी थे। प्रसेनजित् और बुद्ध कौशल राजवंश की ही विभिन्न शाखाओं में हुए और दोनों का जन्म वर्ष एक ही था।

बुद्ध के समकालीन मगध नरेश विम्बसार से पूर्व शिशुनाग वंश में चार राजाओं का शासन काल समाप्त हो चुका था। यह भी स्पष्ट है कि विम्बसार और प्रसेनजित जैसे समकालीन लोगों का जन्म विम्बसार के पिता या पितामह के शासन काल में हुआ था। अजातुशत्रु के राज्यारोहण के समय बुद्ध की आयु 72 वर्ष थी। उस समय विम्बसार का पचपन साल का शासन समाप्त हुआ। इस प्रकार बुद्ध की आयु विम्बसार के  राज्यारोहण के समय 17 वर्ष थी। अतः बुद्ध के जन्म के समय मगध नरेश विम्बसार के पिता क्षितिजा या क्षेमजीत थे। वे शिशुनाग वंश के चौथे राजा थे।

इस प्रकार बुद्ध निर्वाण के पूर्व मगध में शिशुनाग वंश के पांच राजाओं का शासन काल समाप्त हो चुका था। और छठे राजा अजातुशत्रु के शासन के आठ वर्ष हो चुके थे शिशुनाग के वंश के कुल दस राजाओं का शासनकाल 362 वर्ष था। अतः पाँच राजाओं का समय भी अनुमानित 181 वर्ष लगभग होना चाहिए। उसमें 72 वर्ष पूर्व बुद्ध का जन्म हुआ और आठ वर्ष बाद निर्वाण हो गया। इस गणना के अनुसार महात्मा गौतम बुद्ध ईस्वी पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी में थे। गौतम बुद्ध का जन्म वर्ष कलि सम्वत् 1215 माना जाता है। यह वर्ष ईस्वी पूर्व 1878 होता है। बुद्ध की आयु 80 वर्ष थी। अतः उनका निर्वाण ईस्वी पूर्व 1807 या कलि सम्वत् 1295 में हुआ। इस गणना के अनुसार अजातुशत्रु का राज्याभिषेक बुद्ध निर्वाण के आठ वर्ष पूर्व कलि सम्वत1278 में हुआ होगा। उसके 55 वर्ष पूर्व विम्बसार के राज्याभिषेक 1232 कलि सम्वत् में हुआ।

विश्व के बहुत बडे भाग पर बुद्ध का प्रभाव पडा है। चीन एंव जापान सहित सम्पूर्ण पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया पर अब भी बौद्ध धर्म का बहुत अधिक प्रभाव है। अतः बुद्ध के विषय में हर देश की अपनी मान्यता और किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं। इसी कारण से बुद्ध के समय पर आधुनिक इतिहासकारों में विवाद खडा हो गया है। चीन में बुद्ध का निर्वाण 1221 ईस्वी पूर्व और श्रीलंका में 686 ई. पू. माना जाता है। इन दोनों वर्णनों के बीच 535 वर्ष का अन्तर है। बुद्ध का निर्वाण विलियम जोन्स के अनुसार 1028 ई. पू. डा. फ्लीट के अनुसार 1631 ई. पू. तथा फाह्वान के अनुसार 1015 ई. पू. होना चाहिए। ए. वी. त्यागराज एक शिलालेख के अनुसार 17वीं शताब्दी ई. पू. मानते हैं। इस प्रकार आधुनिक इतिहासकारों के अनुमानों में एक हजार वर्ष के लगभग अन्तर है।

इन अनुमानों का कारण यह है कि गौतम बुद्ध को प्राचीन इतिहास की परम्परा से काटकर  स्वतन्त्र रूप से अनुमान लगाने का प्रयास किया गया है। लोगों ने अपनी मान्यता के अनुसार बुद्धकाल का अनुमान कर पूरे भारतीय इतिहास का अलग अलग तिथि निर्धारण करने का प्रयास किया गया है यूनानी के सम्राट सिकन्दर का समकालीन मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को मान लेने की धारणा से इन अटकलों को और बल मिला। यूनान के इतिहासकारों ने सिकन्दर के समकालीन तीन भारतीय सम्राटों का नाम जेण्ड्रमस, सेण्ड्रोकोटस और सिण्ड्रोकिप्टस बताएं हैं। आधुनिक यूरोपीय इतिहासकारों ने भारतीय पुराणों  और बौद्ध ग्रन्थों को वंशावलियों को देखकर अनुमान लगाया कि उपर्युक्त तीनों नाम भारतीय सम्राटों क्रमशः धननन्द, चन्द्रगुप्त मौर्य और बिन्दुसार के लिए लिखे गयें हैँ। यद्यपि इस अनुवाद का प्रमाण तो, दूर अब तक कोई आधार भी नहीं बताया गया है। इसी एक महाभूल के कारण गौतम बुद्ध का काल निर्णय तथा उसके आधार पर पूरे इतिहास का काल निर्णय अटकलों का शिकार हो गया है।

यह भी विचित्र विडम्बना है कि हमें बताया जा रहा है कि कृष्ण पांच हजार वर्ष पूर्व हुए और बुद्ध ढाई हजार वर्ष पूर्व। अब कोई भी यह सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। कि कृष्ण से बुद्ध तक कुल पचीस तीस राजाओं का शासन काल ढाई हजार वर्ष कैसे हो सकता है। स्वयम् सिद्धार्थ गौतम बुद्ध और उनके समकालीन कौशाम्बी नरेश उदयन अपने वंश में महाभारत के बाद 25वीं पीढी में हुए थे इस अवधि में मगध लगभग तीस पीढियाँ हुई थी। इस प्रकार एक पीढी का औसत शासनकाल सौ वर्ष निकलता है। जो पूरी तरह असम्भव है। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में एक शताब्दी में तीन राजाओँ का औसत शासनकाल मिलता है।

हम यह भी जानतें हैं कि महाभारत युद्ध और सम्राट विक्रमादित्य के जन्म के बीच तीन हजार वर्षों में सौ से अधिक राजा हो गये। इस प्रकार बुद्ध से विक्रमादित्य तक सत्तर से भी अधिक राजाओं ने मगध पर शासन किया। अब यह कैसे माना जा सकता है कि 2500 वर्षों में कुल तीस राजा हुए और बाद के 500 वर्षों में 70 राजा हो गये।  चन्द्रगुप्त मौर्य को सिकन्दर का समकालीन मानने पर तो उसके बाद केवल तीन सौ वर्षों में विक्रमादित्य तक साठ से अधिक राजाओं को मानना पडेगा। 2500 वर्षों में 30 और तीन सौ वर्षों में साठ पीढियों का स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

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      दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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