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कृष्णकाल का ऐतिहासिक महत्व

                        भारतीय इतिहास के कृष्ण काल कई कारणों से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। सबसे बडी बात है कि स्पष्ट रूप से निश्चित तिथिक्रम हमें  उसी काल में प्राप्त होता है। प्राचीन इतिहास का काल निर्धारण कृष्ण को आधार मानकर काफी स्पष्ट और विश्वसनीय़ रूप से किया जा सकता है। इस प्रकार तिथि निर्धारण करने के लिए हमारे पास ठोस आधार हैं। कुरुक्षेत्र का प्रशिद्ध महाभारत युद्ध होने के बाद युधिष्ठिर भारत के चक्रवर्ती सम्राट बने। कृष्ण की मृत्यु के बाद पाण्डव हिमालय में चले गये जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। युधिष्ठिर की मृत्यु पर लौकिक युग नामक सम्वत् प्रारम्भ होन का भी उल्लेख किया गया है। प्रशिद्ध इतिहासकार डा0 व्हूलर इन तीन सम्वतों का उल्लेख करते हैं। लौकिक युग के अधिक प्रमाणिक सन्दर्भ हमारे पास तो उपल्बध नहीं है।, लेकिन युधिष्ठिर शक तथा युगाब्ध का व्यापक प्रयोग होता रहा है। विक्रमादित्य ने शको को पराजित करने के बाद  युगाब्ध 3045 में नया विक्रम सम्वत् प्रारम्भ किया। और युधिष्ठिर सम्वत् का प्रयोग बन्द हो गया।  युगाब्ध का प्रयोग अभी तक किया जा रहा है।

         कृष्ण का ही एक मात्र ऐसा दुर्लभ व्यक्तित्व है जो जन्म से पूर्व ही भारतीय राजनीति को प्रभावित करने लगा था। देवकी वसुदेव के विवाह के बाद ही राजनीतिक समीकरण बदलने लगे थे। घनिष्ठतम् मित्र कंश और वसुदेव परम शत्रु बन गये और कूटनीतिक चालें चली जाने लगी। कृष्ण के जीवन के प्रथम दशक में वृन्दावन ग्राम की स्थापना हुई। द्वतीय दशक का  अन्त होते होते मथुरा नरेश कंश मार दिए गये।  पाचवें दशक में द्वारिका महानगर की स्थापना हो चुकी थी। सम्भवतः छठवें दशक में ही एक और महान् नगर इन्द्रप्रस्थ की स्थापना की गई जो आज भी दिल्ली के नाम से भारत की राजधानी है।

               वह समय भारत में राजनीतिक उथल पुथल का था। हस्तिनापुर के कुरुवंश को केन्द्रीय सत्ता का सम्मान प्राप्त था। लेकिन आन्तरिक कारणों से  लगातार निर्बल होती जा रही केन्द्रीय शक्ति के कारण  प्रान्तीय शासकों में महत्वाकांक्षायें  पनपनें लगीं थी। इसी उथल पुथल के बीच कृष्ण का जन्म हुआ। अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों के वाबजूद कृष्ण अपनी योग्यता क्षमता के बल पर धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के केन्द्र में आते गये और घटनाचक्र का धुरी बन गये। कृष्ण कभी शासक नहीं बनें लेकिन एक शताब्दी से अधिक समय तक राष्ट्रीय राजनीति के सञ्चालक रहें । उन्होने अजेय युद्ध कौशल और नेतृत्व क्षमता के साथ ही शसक्त चिन्तन से भी राष्ट्र को व्यापक रूप से प्रभावित किया। वंशीवादक कलाकार, महान योद्धा, राजनीतिक सूत्रधार, श्रेष्ठ विचारक और योगेश्वर के रूप में महानायक कृष्ण का व्यक्तित्व अतुलनीय है।

             मथुरा की क्रान्ति मे कंश वध के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को  ही राजा बनाया। इससे कंश के समर्थक भी विरोध नहीं कर सके। द्वारिका में उग्रसेन के बाद कृष्ण के पिता वसुदेव राजा बने। कृष्ण कभी स्वयं शासक नहीं बने। सत्ता से दूर रहकर वे सबके आदरणीय बने ऑऔर व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास कर सके।

        महाभारत युद्ध में युधिष्ठिर की विजय में कृष्ण की कुशल रणनीति का बहुत योगदान रहा। कई दृष्टियों से हस्तिनापुर की सेना अधिक शक्तिशाली थी। उसकी सैन्य संख्या युधिष्ठिर पक्ष की तुलना में डेढ गुनी से अधिक थी। उसके सेनापति अधिक अनुभवी  और प्रतिष्ठित महायोद्धा थे लेकिन यही शक्ति कुरुपक्ष की सबसे बडी निर्बलता बनकर सामने आय़ी। कुरुसेना अपने ही भार से पिसकर दब गई। कृष्ण ने युद्ध को पुरातन और नवीन युग के बीच का संघर्ष बना दिया। वह पुरानी पीढी और नई पीढी का संघर्ष बन गया।

              कुरुसेना का नेतृत्व देवव्रत भीम कर रहे थे। वे पुराने मूल्यों व पुरानी पीढी के प्रतिनिधि थे। वे राम युग की मर्यादाओं की पुनर्स्थापना के प्रयासरत थे। दिये गये वचन और दी गई प्रतिज्ञा ही उनका धर्म था, भले ही परिणाम कुछ भी हो। भीष्म वयोवृद्धि भी थे, युद्ध नायकों, महानायको के पितामह थे। अतः सभी के लिए सम्मानीय भी थे। प्रतिज्ञा से बन्धी राजनिष्ठा और अपने पौत्रों के प्रतिमोह के बीच भीष्म सदैव किङ्कर्तव्यविमूढ रहे और स्पष्ट निर्णय कभी नहीं कर सके। युधिष्ठिर का मर्यादा प्रेम भीष्म की सदा कमजोरी बना रहा। वे अर्जुन के प्रति वात्सल्य से भी उबर नहीं पाये। लेकिन प्रतिज्ञा से बन्धी राजनिष्ठा के कारण युधिष्ठिर और अर्जुन के विरुद्ध लडते भी रहे। कर्ण ने भी भीष्म के नेतृत्व में युद्ध करना अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार कुरु सेना आन्तरिक विवाद और गरिमा के भार से बोझिल रही।

                 भीष्म के घायल होने पर द्रोण सेनपति बने। वे युधिष्ठिर आदि के गुरु थे। गरिमा और दुविधा से वे भी पीडित रहे। भीष्म और द्रोण चाहे जितने रणकुशल सेनापति रहे हों, पर जितनी गतिशीलता युवासेनापतियों  में हो सकती थी, उसका मुकाबला ये अतिवृद्धि सेना नायक नहीं कर सकते थे। बहुत बाद में अपेक्षाकृत युवाकर्ण को नेतृत्व मिला। लेकिन तब तक काफी क्षति हो चुकी थी। और कर्ण भी पाण्डवों के मामा शल्य के हतोत्साहन के शिकार रहे। सच तो ये है कि कुरुपक्ष में पुरानी पीढी ने सूतपुत्र मानकर कर्ण को कभी आदर की दृष्टि से देखा ही नहीं। यह भी पराजय का मुख्य कारण बना।

             दूसरी ओर युधिष्ठिर पक्ष में कृष्ण ने सदैव शक्ति को वरीयता दी।  वयोवृद्धि पुरानी पीढी का सम्मान किया गया, पर गरिमा को या किसी अहम् बोझ नहीं बनने दिया गया। उनके पक्ष के यज्ञ सेन द्रुपद अपने पुत्र के अधीन युद्ध करन में कोई आपत्ति नहीं हुई।  दूसरी बात यह है कि महासेनापति पाण्डव नहीं था। जिसे भीष्म या द्रोण के प्रति  कोई संकोच होता। द्रुपद परिवार उनके विरुद्ध अधिक घातक युद्ध कर सकता था। कृष्ण की आयु अधिक थी। अतः उन्होनें सेनापति तो होना दूर , हथियार तक नहीं  उठाया। वे कुशल महारथी अर्जुन का रथ चलाते रहे।

यदि कुरुसेना पहले दिन ही कर्ण को महासेनापति बनाती और भीष्म तथा द्रोण जैसे लोग पूरे मन से उनके नेतृत्व में युद्ध करते तो युधिष्ठिर के लिए कठिनाइयां बढ सकती थी। कर्ण द्रुपद के शत्रु और अर्जुन  के प्रबल प्रतुद्वन्दी थे। यद्यपि उसकी आयु भी युधिष्ठिर से काफी अधिक थी, पर पुरानी पीढी की तुलना में कर्ण बहुत गतिशील और तेजस्वी योद्धा थे। पुराना विरोध भाव उन्हें और भी दुर्धर्ष बना रहा था। लेकिन वास्तव में कर्ण को अपने पक्ष के लोगो के द्वारा ही मारा गया,  अर्जुन तो केवन निमित्ति बने थे। महारथी योद्धा हार गये, कुशल रणनीति विज. रही।

वास्तव में यह कृष्ण की महानता थी कि वे न ही राजा बने और न ही महाभारत में सेनापति। उनका जीवन संघर्षों में बीता था। और उन्होने परस्पर संघर्ष में उलझे और कमजोर हो रहे भारत का दर्द महसूस किया था अतः उन्होनें भारत के निर्णायक संघर्ष में भारतवर्ष की एकता का स्वप्न देखा और युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट बनाकर  उस स्वप्न को साकार भी कर दिखाया। टूटे बिखरे भारत का एकीकरण कृष्ण युग की चरम उपलब्धि है। उपनिषदों के चिन्तन को पूर्णतः भी उसी युग में प्राप्त हुई। महाभारत के महाविनाश के बाद शताब्दियों के बाद शान्ति कल्याण हो सकी जिसमें कला संस्कृति और ज्ञान विज्ञान का विकास सम्भव हो सका।

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कृष्ण का जीवन दर्शन

             योगेश्वर कृष्ण भारतीय इतिहास के महानतम् नायक हैं। इतना महान व्यक्ति उनसे पूर्व न कोई हुआ, न उनके बाद आज तक। कलाकार, राजनीतिज, समाजसेवी और दार्शनिक चिन्तक के रूप में कृष्ण आदर्श महानतम् थे। कृष्ण का जीवन दर्शन उनके जीवन दर्शन से ही समझा जा सकता है। उनका सम्पूर्ण जीवन सामाजिक विकास, क्षमता, प्रगति शीलता, रूढि विरोध, तथा संस्कृति के उन्नयन में ही व्यतीत हुआ।

                किशोरावस्था में कदम रखते हुए बालक कृष्ण नें  वृन्दावन वासियों को धार्मिक आडम्बर, कर्मकाण्ड और रुढियों से मुक्त कराया। निर्धनता और पिछडे पन से त्रस्त कृष्ण ने इन्द्र पूजा का विरोध करते हुए कहा कि हमारे पास न घर है, न दरवाजे, न खेत न कोई सम्पत्ति। हमें किसी पूजा पाठ की क्या आवश्यकता है। कृष्ण का मानना था कि धार्मिक कर्मकाण्ड धनी लोगो के लिए मनोरंजन और धन प्रदर्शन के साधन हैं। उन्होनें कहा कि पशुपालक बेघर गोपो के लिए गोवर्धन पर्वत ही देवता है। जिसकी वनस्पति से मनुष्य और पशुओँ का पेट भरता है अर्थात् निर्धन का धर्म भोजन है, धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं।

                राजा कंश के बुलाने पर वार्षिक खेल कूद में भाग लेने के लिए कृष्ण और बलराम मथुरा गये। नगर के वैभव को देखकर उन्हें बडी आत्मग्लानि हुई। राजकीय अधिकारियों का जीवन वैभव पूर्ण था और कृष्ण जैसे नागरिकों के पास ढंग के कपडे भी नहीं थे। कृष्ण ने कंश के धोबी  पर ढावा बोला और उसके वस्त्र लूट लिए। रात में खेल कूद का समारोह प्रतिष्ठित धनुष तोड डाला और कंश को सीधी चुनौती दे डाली। जब कंश ने उन्हें मारने का षड्यन्त्र रचा तहब कृष्ण ने कुशल रणनीति से कंश को मार गिराया। जब शासक प्रजा की उपेक्षा कर अपना ही धन वैभव बढाने लगे तब लूट और विद्रोही प्रशंसनीय़ हो जाते हैं। यह कृष्ण के जीवन का दूसरा प्रमुख सूत्र् हमें मथुरा क्रान्ति से मिलता है। उस क्रान्ति के बाद कृष्ण ने स्वयम् सत्ता नहीं सम्भाली, कंश के पिता को राजा बना दिया। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा मुख्य लक्ष्य में बाधक बन सकती है, यह कृष्ण ने तीसरा सूत्र बताया। मगध के अठ्ठारह आक्रमण के बाद जब कालयवन से भी संघर्ष करन पडा तब कृष्ण ने रण छोड कहलाना स्वीकार किया, युद्ध में होने वाले सर्वनाश को बचाया। स्वाभिमान भी अति की विनाश का कारण है, यह कृष्ण का चौथा प्रमुख जीवन उपदेश कहा जाना चाहिए।

       मथुरा छोडकर कृष्ण ने द्वारिका नगर बसाया। उन्होनें सभी राज्यों से मित्रता की नीति अपनायी। त्रिविष्टप के शक्तिशाली इन्द्र तथा अपने निकटवर्ती राज्यों मत्स्य, पाञ्चाल आदि से मैत्री सम्बन्ध बनाया और जहाँ आवश्यकता पडी युद्ध भी किया। प्रेम और शक्ति के सन्तुलित उपयोंग से कृष्ण पूरे भारत में आदरणीय बन गये और द्वारिका प्रमुख राज्य माना जाने लगा। यही सफल विदेशी नीति कहलाई। इस सबके पीछे कृष्ण का विराट स्वाध्याय और योगमय जीवन था। अध्ययन तो जैसे उनका व्यसन ही था। औपचारिक शिक्षा तो केवल 64 दिन ही उज्जयिनी में सान्दीपनी गुरु के पास प्राप्त की थी, लेकिन निरन्तर स्वाध्याय ने उन्हें प्रमुख विद्वान का सम्मान दिलाया। कृष्ण ने स्पष्ट किया कि कर्मों में  कुशलता ही योग है, समता को ही योग कहते हैं, उचित रूप से भोजन, निन्द्रा, दैनिक कार्य करना ही दुखों को दूर करने वाला योग है। समुचित आचार के साथ प्राणायाम और ध्यान से ही ऐसा सम्भव है।

इसीलिए किसी ने कृष्ण को रोते विलखते नहीं देखा। योगी स्वाध्यायी कृष्ण जीवन भऱ मुस्कारते रहे, सबको हँसना सिखाते रहे। समस्याएं और कठिनाइयाँ कृष्ण के जीवन में भी आयीं, लेकिन योगोश्वर कृष्ण अविचलित रहे। योगी के जीवन में कष्ट और समस्याये तो हो सकती हैं, परन्तु दुःख और चिन्ता नहीं। कृष्ण स्वयम् अपना परिचय देते हैं – वेदानाम समोवेदोअहम् अर्थात् मैं वेदों में सामवेद हूँ और गायत्री छन्दसामहम् अर्थात् मैं वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र हूँ। कृष्ण तो नियमित स्वाध्यायी है, महायोगी हैँ। लेकिन सामान्य लोग क्या करें। जिनके पास इतना धन और समय नहीं है, वे निर्धन लोग कैसे काम चलाएं। वैदिक साहित्य विशाल है। तो सामवेद ही पढ लें तो वह कृष्ण की सांस्कृतिक चेतना से जुडा रहेगा। कम से कम आडम्बर पूर्ण धार्मिक कर्मकाण्डो में फंसे रहकर धार्मिक रहने का अंहकार पालने वालों से अच्छा ही रहेगा। । स्वाध्याय और योग का कृष्ण दर्शन ही हमें वास्तविक धर्म से परिचित करा सकता है।

कृष्ण समस्याओं का व्यावहारिक समाधान खोजने पर विश्वास रखते हैं । वे समाधान माँगने के लिए कभी किसी  रुढिवादी पुरोहित के पास नही जाते। इसलिए कृष्ण पर सामाजिक  अन्याय का कोई आरोप नहीं है।। उन्होने कभी न किसी सीता या लक्ष्मण को घर से निकाला और न किसी शम्बूक की हत्या की। कृष्ण ने बल, बुद्धि और रणनीतिक कौशल से सफलताएं प्राप्त कीं। उचित लगा तो सच्चे सैनिक की तरह रण छोड गये। कृष्ण का जीवन आडम्बर रहित ईमानदार जीवन है। यही कृष्ण की सबसे बडी विशेषता है।

आज हमारे पास कृष्ण का लिखा कोई ग्रन्ध उपलब्ध नहीं है। उनका जीवन ही श्रेष्ठ महाकाव्य है। महाभारत और विष्णु पुराण आदि में उनका जीवन और दर्शन सुरक्षित है। गीता को महाभारत का अंश माना जाता है। यद्यपि वर्तमान समय में उपलब्ध गीता को कृष्ण कालीन पुस्तर मानना कठिन है, फिर भी उसमे कृष्ण के विचार  बहुत कुछ सुरक्षित हैं। बाद में महाभारत और गीता में कविकल्पना और चमत्कार, जुडते गये, पर मूल भाव बहुत कुछ यथावत् हैं। निष्काम कर्मयोग कृष्ण के पूरे जीवन में मिलता है। उनका मानना रहा है कि तात्कालिक लाभ हानि  का विचार करके कार्य किया गया तो व्यक्तिवाद पनपेगा और समाज व्यवस्था ध्वस्त हो जायेगी। अतः जीवन का एक लक्ष्य, एक दिशा तय करो और उस उद्देश्य को प्रयास करते समय परिणाम की चिन्ता मत करो। यदि इस प्रयास में प्राण भी चले गये तो भी अच्छे उद्देश्य के लिये बलिदान का यश और सन्तोष तो मिलेगा ही।

योगेश्वर कृष्ण जानते हैं कि अहिंसा भई योग का प्रमुख तत्व है। लेकिन उसे किसी सैनिक की कायरता का आवरण नहीं बनने दिया जा सकता है। निजी स्वार्थ के लिए किसी को कष्ट पहुचाना हिंसा है, अनुचित है, अपराध है। किन्तु समाज के लिए युद्ध करना कर्तव्य है, हिंसा भाव नहीं। कृष्ण दर्शन करम सिखाता है, पलायन नहीं। वह समानता सिखाता है, भेदभाव नहीं। इनका योग कर्मयोग है। कृष्ण की स्पष्ट घोषणा है कि – योगः कर्मसु कौशलम्, समत्वम् योग उच्चते। जिस योग साधना से कर्तव्य कर्मों में कुशलता नहीं प्राप्त होगी और समता का भाव नही आता, वह योग नहीं है। वह तो साक्षात भोग और ढोंग हैं। समाज में वर्ण है कृष्ण भी मानते हैं – परन्तु उनका कहना कि हैं तो, पर गुण कर्म विभागतः। वर्ण गुण कर्मों का विभाग है, ऊँच नींच और भेदभाव के लिए नहीं। कर्म और समता भाव से रहित कोई व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। कृष्ण कहते है – कभी नहीं।

कृष्ण ने भारतवर्ष की एकता के लिए सफल प्रयास किया। युधिष्ठर के नेतृत्व में उन्होने राजनीतिक रूप से राष्ट्रीय एकता स्थापित की, लेकिन राजनीतिक स्थाई नहीं होती। साम्राज्य कमजोर पडेगा तो अनेक राज्य बन जाएँगें। ऐसा कृष्ण से पहले भी होता रहा था और उनके बाद भी होता रहा। स्थाई और वास्तविक एकता के लिए तो कुछ और भी आवश्यकता थी। कृष्ण के समय में भी भारत में परस्पर लडने वाले अनेक राज्य थे। लेकिन उनके बीच एकता के कतुछ सूत्र भी थे। पूरे राष्ट्र् का एक साझा प्रेरणादायक इतिहास था और पूरे राष्ट्र में सम्मानित प्राचीन साहित्य वेद था। उसके विद्वान पूरे राष्ट्र में आदर पाते थे। राष्ट्र नायक ने उसी सूत्र को पकडा। उन्होनें स्वयम् को सामवेद कहा। उन्होनें प्राचीन इतिहास के संकलन पर बल दिया। उसी समय से पुराणों की रचना प्रारम्भ हुई। बाद में लिखे जाने वाले पुराण साम्प्रदायिक खण्डन मण्डल ममें फंस गये और आडम्बरवादी हो गये। लेकिन प्राचीन पुराणों में इतिहास के संकल्पन की प्रवत्ति स्पष्टतः प्रमुख है। पुराणों में कृष्ण को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि पुराणों की रचना के पीछे कृष्ण की प्रेरणा अवश्य थी और कृष्ण के अनुयायियों ने ही पुराणों की रचना की थी। प्राचीन इतिहास, भूगोल, दर्शन, सामाजिक व्यवस्था आदि जितना व्यवस्थित ढंग से पुराणों में उपलब्ध है, उतना भारत में अन्यत्र कहीं नहीं। इस प्रकार पुराणों में साहित्य और इतिहास का परिचय संकलित कर लिया गया है।  अनेक साम्प्रदायिकों क्षेपको के बावजूद पुराण भारतीय संस्कृति के आधार ग्रन्थ बन गये।

इस प्रकार कृष्ण का सबसे बडा जीवन मूल्य है समता भाव। उनका दर्शन है कर्मयोग। भारतीय संस्कृति के मूल तत्व हैं वेद तथा इतिहास। कृष्ण के समय भाषा सामान्य नहीं थी। संस्कृति पूरे राष्ट्र की प्रतिष्ठित भाषा थी। कृष्ण के चिन्तन का सार है समता भाव के साथ कर्तव्य कर्म का निर्वाह और प्राचीन भाषा तथा साहित्य, इतिहास का स्वाध्याय तथा संरक्षण। इसे हमें चाहे तो सांस्कृतिक विकासवाद  कह सकते हैं। मूल सिद्धान्त है मूल रूप से जुडे रहकर सभी के विकास का प्रयास करना। वैदिक साहित्य, संस्कृत, भाषा, प्राचीन इतिहास और योग के साथ समता भाव ही कृष्ण दर्शन है।

कृष्ण काल में समा काफी खुला हुआ था। सत्यवती और कुन्ती जैसी महिलाएं विवाह पूर्व गर्भ धारण कर सकती थीं, सन्तान को जन्म भी दे सकती थीं। पुरुषों के समान महिलाओं को भी वहु विवाह का अधिकार था। द्रौपदी अपवाद नहीं थी। अज्ञातवात के समय सैरन्द्री के रूप में भी उन्होने बता रखा था कि उनके पाँच गन्धर्व पति हैं। इससे स्पष्ट है कि उस समय एक नारी के पाँच पति होना भी सहज स्वीकार्य था, निन्दनीय नहीं। ऋषि पुरोहित उस समय भी थे जो समाज का मार्गदर्शन करते थे लेकिन उनमें जडता नही थी और नियम कठोर नहीं थे। बन्धन ढीले पड जाने से समाज में गतिशीलता आई और अपेक्षाकृत अधिक प्रगतिशील और मुक्त समाज विकसित हुआ।इसी मुक्त वातावरण में उपनिषदों का स्वतन्त्र चिन्तन विकसित हुआ।

लेकिन उन्मुक्त समाज में कुछ बुराइँया पनपने लगीं। कृष्ण कालीन समाज में जुआँ और समाज को सामाजिक स्वीकृति ही नहीं, प्रतिष्ठता भी प्राप्त थी। शासत वर्ग के लिए युद्ध और द्युत समान रूप से सम्मानीय थे। वीर पुरुष तथा द्युत का निमन्त्रण ठुकराना अपमानजनक मानते थे। इस एक बुराई ने समाज का बहुत अहित किया था। कृष्ण के पौत्र के विवाह में कृष्ण के शाले रूक्मी और बडे भाई राम के बीच द्यूत हुआ।  उस जुएं में हार जीत को लेकर हुए विवाद में  राम ने रुक्मी की हत्या कर दी।  उस समय कृष्ण की स्थिति बडी दयनीय हो गई थी एक तरफ उनके भाई थे और दूसरी तरफ उनकी पत्नी के रुक्मणी का भाई। कृष्ण न बडे को नाराज कर सकते थे और न पत्नी का क्रोध झेल सकते थे।

उस समय शराब का प्रचलन भी बहुत था। कृष्ण के बडे भाई राम को भी शराब की लत थी लेकिन कृष्ण जुआँ और शराब को पसन्द नहीं करते थे। वे राम की इस आदत का स्पष्ट विऱोध करते थे। द्वारिका का सबसे बडा हीरा था स्यामन्तक मणि। कुछ लोगो का मानना है कि उसी को बाद में कोहिनूर नाम दे दिया गया। राम स्यमन्तक मणि को अपने पास रखना चाहते थे। कृष्ण ने उनके समक्ष शराब छोडने की शर्त रख दी। राम ने उस मणि के स्थान पर शराब को वरीयता दी। मणि अक्रूर के पास रही।

जुआं और शराब के अलावा कुलीनता का आग्रह कृष्णकालीन समाज की तीसरी प्रमुख समस्या थी। प्रशिद्ध महाभारत युद्ध का प्रमुख और प्रत्य़क्ष कारण द्यूत क्रीडा बनी। शराब के कारण द्वारिका का ग्रहयुद्ध हुआ। जिसमें यदुकुल का व्यापक विनाश हुआ। कुलीनता के आग्रह ने भी स्थान स्थान पर अनेक समस्यायें खडी की। उच्च कुल न होने कारण एकलव्य को द्रोणाचार्य के गुरुकुल में प्रवेश नहीं मिल सका और प्रतिहिंसा और स्वार्थ में अन्धें द्रोण ने उनका अँगूठा कटवा लिया।

राजा बनने पर यज्ञसेन द्रुपद नें द्रोण को मित्रता को योग्य नहीं माना और यजक कहकर अममानित किया। उस अपमान का बदला लेने का द्रोण ने हस्तिनापुर का राज्याश्रय लिया और द्रुपद को परास्त किया। राजवंश की कुलीनता ने निर्धन विद्वान ब्राह्मण का अपमान किया और संघर्ष की भूमिका तैयार की। भीष्म आदि कुलीन राजपुरुष महारथी कर्ण को जीवन भर सूतपुत्र कहकर  अपमानित करते रहे, उनके गुणों को कभी महत्व नहीं दिया। इसी कुलीनवाद के शिकार स्वयम् कृष्ण भी हुए। सारी योग्यता क्षमता के बावजूद कृष्ण कृष्ण के प्रेमी उन्हें गोप या ग्वाला कहते रहे। कृष्ण की आलोचना करने का और कोई आधार किसी के पास था ही नहीं। अर्थात् उन्हें गोप कहकर ही सम्पूर्ण व्यक्ति को नीचा दिखाना चाहते थे।

कृष्ण की इन सब कुरीतियों के विरूद्ध चिन्तन और आचरण का प्रमाण प्रस्तुत करते रहे। उन्होनें जुआं शराब और कुलीनवाद की स्पष्ट आलोचना की। अपने बडे भाई राम को भी कृष्ण ने जुआं और शराब की लत के लिए क्षमा नहीं किया। उन्होनें सबसे प्रिय अर्जुन से भी अधिक सम्मान कथित सूतपुत्र कर्ण को दिया। उन्होने कर्ण को युधिष्ठिर पक्ष में लाने के लिए अग्रज होने के कारण उन्हें ही सम्राट बनाने के प्रस्ताव भी रखा। अज्ञात कुल गोत्र की और एक विलासी राजा की कैद में पडी 16000 कन्याओं को अपना संरक्षण देकर समाज में प्रतिष्ठा दिलायी।  इस प्रकार जुआं, शराब और जातिवाद या कुलीनता के विरुद्ध अभियान कृष्ण को महान समाज सुधारक भी प्रमाणित करता है।

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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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