कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध
विराट नगर में अभिमन्यु के साथ उत्तरा के विवाह के बाद पाण्डवों समर्थकों की सभा हुई। उसमें आयोजक मत्स्य नरेश विराट पाञ्चाल नरेश द्रुपद, शिशुपाल के पुत्र चेदिनरेश धृष्टकेतु, द्वारिका के सेनापति सात्यिकी तथा पाण्डव, श्रीकृष्ण व राम भी उपस्थित थे। सात्यिकी तथा सहदेव जैसे गरम दल के लोग सीधे युद्ध चाहते थे। जबकि युधिष्ठर और कृष्ण जैसें गम्भीर लोग शान्ति के प्रयास में थे। सर्वसम्मति से तय हुआ कि युद्ध की तैयारी रखते हुए, शान्ति के प्रयास किए जायॆ। शान्ति वार्ता से राज्य मिल जाए तो ठीक है, अन्यथा य़ुद्ध तो होना ही है।
पाण्डवों के पक्ष में पाण्ड्य, द्वारिता, मत्स्य, पाञ्चाल, चेदि, मगध राज्यों की एक एक अक्षैहणिक सेना एकत्र हो गई। भीम पुत्र घटोत्कच भी अपनी सेना के साथ सातवें नायक बनकर सम्मिलित हो गए। पाण्डवों के पक्ष में यही सात राज्य़ों की सात अक्षैहिणीं सेनाए थी। कुरुओं के समर्थन में सिन्धुराज जयद्रध त्रिगर्त नरेश शुकर्मा, य़ादव सेनापतु कृतवर्मा, पूर्वोत्तर भारत के भगदत्त, अंगनरेश कर्ण आदि की सेनांए थी। कुरु पक्ष में कुल ग्यारह अक्षैहिणी सेना एकत्र हो गई। उस समय सेना के कुल चार अंग होते थे। अतः चतुरंगुणी सेना कही जाती थी। एक अक्षैहिणिक सेना में 21,870 रथी, इतने ही हाथी 65,610 अश्व तथा एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास पैदल सैनिक होते थे। रथ सेना, गुजसेना और अश्व सेना की सम्मिलित संख्या के बराबर पदाति सेना होती थी। इस प्रकार एक अक्षैहिणी सेना में कुल दो लाख अठारह हजार सात सौ सैनिक होते थे। इस तरह पाण्डव पक्ष में सात और कुरुपक्ष में ग्यारह अक्षैहिणी सेना में सैनिकों की संख्या 39,34,440 थी। कहा जा सकता है कि तत्कालीन भारत वर्ष या वर्तमान दक्षिण एशिया के लगभग चालीस लाख सैनिक दोनो पक्षों की ओर से लडने के लिए तैयार थे।
महायुद्ध की भीषण तैयारी के बाद पाञ्चाल नरेश यज्ञसेन द्रुपद के पुरोहित को दूत बनाकर पाण्डवों ने हस्तिनापुर भेजा। उन्होने पाण्डवों की ओर से उनका राज्य लौटाने की मांग रखी। जो अस्वीकृत हो गई। दुर्योधन और कर्ण का तर्क था कि अज्ञातवास के समय अर्जुन को पहचान लिया गया था। और पाण्डव प्रकट भई हो गये थे। दूत वापस लौट गया। उसके बाद धृतराष्ट्र ने सञ्चय को दूत बनाकर युधिष्ठर के पास भेजा। सञ्चय के शान्ति प्रस्ताव पर युधिष्ठर केवल पाँच गाव लेकर शान्ति के लिए तैयार हो गये। युधिष्ठर ने अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी और वारणावच नामक चार ग्राम और पाँचवा धृतराष्ट्र की इच्छानुसार देने के लिए कहा। ये सभी ग्राम राजधानी हस्तिनापुर के निकट थे। अतः दुर्योधन को न मानना था और न ही माने।
इसके बाद श्री कृष्ण शान्ति प्रयास में लगे रहे। अन्तिम प्रयास के रूप में वह स्वयम् हस्तिनापुर गये। लेकिन उन्हें भी दो टूक उत्तर मिला । सूच्याग्रम नैव दास्यमि बिना युद्धेन केशव। कुन्ती ने भी कृष्ण के द्वारा अपने पुत्रो को सन्देश भेजा। कि यदर्थे क्षत्रिया सूते तस्य कालोअमागतः । अर्थात् जिस उद्देश्य से क्षत्रिय नारी पुत्रो को जन्म देती है, वह समय आ गया है। कृष्ण ने कर्ण को कुन्ती का पुत्र बताकर उन्हे पाण्डव पक्ष में करने का प्रयास किया, पर वे नहीं माने। कुन्ती स्वय़म् कर्ण के पास गयी। लेकिन कर्ण ने कहा कि आपके चुप रहने के कारण ही मुझे सूतपुत्र कहलावाने का अपमान सहना पडा है। अब तो मैं उनका ही साथ दूँगा। जिन्होनें मुझे समाज में सम्मान दिलाया है। फिर भी कर्ण ने वचन दे दिया कि अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी पाण्डव का वध नहीं करूँगा।
पाण्डू की दूसरी पत्नी माद्री के भाई मद्र नरेश शल्य य़ुधिष्ठर के पास जा रहे थे। रास्ते में दुर्योधन ने उनका स्वागत सम्मान करके अपनी ओर मिला लिया। लेकिन शल्य ने युधिष्ठर को वचन दे दिया। कि अर्जुन कर्ण युद्ध के समय कर्ण को हतोत्साहित करते रहेंगें। कृष्ण का शान्ति प्रयास विफल हो जाने के बाद युद्ध अनिवार्य था। सेना उपप्लव्य नगर के पास पूरी तरह सन्नद्ध स्थिति में उपस्थित थी। उपप्लव्य मत्स्य राज्य का सीमावर्ती नगलर था जो राजा विराट ने अभिमन्यु तथा उत्तरा का विवाह करते समय दहेज में दे दिया था। अज्ञातवास के बाद पाण्डवों की गतिविधियों का केन्द्र वही बना हुआ था। कृष्ण हस्तिनापुर से सन्धि प्रस्ताव में असफल होकर उपप्लव्य नगर लौटे तो सेना को प्रयाण का आदेश दे दिय़ा गया।
हस्तिनापुर से कृष्ण के वापस हो जाने के 6 दिन बाद ही सेना कुरुक्षेत्र पहुँच गई। हस्तिनापुर में भी इस स्थिति के लिए पहले से ही पूरी तैय़ारी थी। भीष्म के नेतृत्व में कुरुसेना भी पाण्डुसेना के सामने जा डटी। पाण्डु सेना के महासेनापति पाञ्चाल युवराज धृष्टधुम्न बनाए गये। इसके अलावा एक एक अक्षैहिणी सेना का सेनापति भीम, सहदेव, सात्यकि, द्रुपद तथा यादव महारथी चेकतान को बनाया गया। पाण्डव सेना के सेनापतियों में प्रधान सेनापति के अलावा द्रुपद व शिखण्डी दो पाञ्चाल व भीम चेकितान थे। इससे प्रतीत होता है कि उस सेना में पाञ्चालों को ही प्रधानता थी। उस युद्ध को इसीलिए कुरु पाञ्चाल य़ुद्ध भी कहा जाता है।
देवव्रत भीष्म ने दस दिन तक कुरुसेना का नेतृत्व किया। वे दसवें दिन पाञ्चाल राजकुमार शिखण्डी और अर्जुन के बाणों से घायल होकर गिर पडे। उनके घायल होते ही युद्ध रोक दिया गया। वे दोनो पक्षो के पूज्य थे। उन्नीस दिनों तक युद्ध विराम रहा। लेकिन भीष्म पुनः युद्ध में जाने योग्य स्वस्थ्य़ न हो सके। तब कर्ण की सलाह पर द्गोणाचार्य को सेनापति बनाया गया। द्रोण के नेतृत्व के तीसरे दिन अर्जुन के पुत्र वीर अभिमन्यु मारे गये। उसके अगले दिन अर्जुन ने जयद्रध का वध किया।
अर्जुन ने अभिमन्यु वध के प्रतिशोध में जयद्रध वध की प्रतिज्ञा की और भारी सुरक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करते हुए सूर्यास्त से पूर्व वीरता पूर्वक जयद्रध का वध किया। यह कहानी बाद में कल्पित हुयी कि चिता में प्रवेश के समय पास आ जाने पर अर्जुन ने जयद्रध को मारा। जयद्रथ के वध के अगले दिन सेनापति द्रोण मारे गये। उसके बाद मद्रनरेश शल्य सेनापति बनाए गये और पहले ही दिन मारे गये।
इस प्रकार कुरुक्षेत्र में हुआ भारत का तीसरा महाग्रहयुद्ध कुल अट्ठारह दिनों तक चला । भीष्म के घायल होने के उन्नीस दिनो के युद्धविराम को मिलाकर युद्ध प्रारम्भ होने से अन्त होने तक सैतीस दिन होते हैं अन्त में सेनापति शल्य के मरते ही कुरुसेना भाग खडी हुई। दुर्योधन भी भागकर एक सरोवर में छिप गये। पाण्डवों ने उन्हे खोज निकाला और भीम ने गदा प्रहार से उनकी जांघ तोडकर प्रतिज्ञा पूरी की।
मरणासन्न दुर्योधन को खोजते हुए उनके तीन महारथी वीर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा उनके पास पहुँचे। दुर्य़ोधन ने वहीं गुरुपुत्र अश्वत्थामा को सेनापति नियुक्त किया। उन्होने पाण्डवों के शिविर में घुसकर सोते हुए धृष्टधुम्न, शिखण्डी, द्रोपदी के पाँचो पुत्रों तथा अनेक अन्य लोगो की हत्या कर दी । अश्वत्थामा ने दुर्योधन को जाकर इस बात की सफलता की सूचना दी। तो सुखपूर्वक उन्होने अपने प्राण त्याग दिए। उसके बाद कृपाचार्य हस्तिनापुर , कृतवर्मा द्वारिका तथा अश्वत्थामा व्यास के आश्रम में चले गये। पाण्डवों ने वहाँ पर अश्वत्थामा को खोज निकाला। और घायल कर छोड दिया।
vv vv
युधिष्ठिर का शासन काल
कुरुक्षेत्र का महाविनाश कारी युद्ध समाप्त होने के बाद युधिष्ठिर भारत के चक्रवर्ती सम्राट बन गये। उन्होने अपने मन्त्रीपरिषद् में विदुर को ही प्रधान मन्त्री बनाये रखा। वे धृतराष्ट्र के भी प्रधान मन्त्री थे। वयोवृद्ध सञ्जय को विधि मन्त्रालय मिला। धौम्यमुनि धार्मिक मामलों के मन्त्री बने। वे संकट काल में पाण्डवों के पुरोहित बन गये थे। युवराज का सबसे प्रमुख पद भीम को मिला। इसके अलावा सभी प्रमुख पदों पर पाण्डव रहे। प्रतिरक्षा मन्त्री अर्जुन बने और नकुल को भी सेना की व्यवस्था का प्रभार मिला। सहदेव सम्राट युधिष्ठिर के साथ विना विशेष दायित्व के मन्त्री बने।
उत्तरायण हो गया था भीष्म के स्वस्थ्य होने के कोई आसार नहीं थे। एक दिन कृष्ण, युधिष्ठिर आदि प्रमुख लोगो की उपस्थिति में भीष्म ने प्राण त्याग दिए। परम्परागत रूप से भींष्म के निधन की तिथि माघ शुक्ल अष्टमी मानी जाती है। भीष्म की मृत्यु के बाद धीरे धीरे शासन प्रसासन व्यवस्था बनने का प्रयास किया गया। कुछ महीनों में स्थिति सामान्य हुई तो अश्वमेथ यज्ञ करने का विचार हुआ। चक्रवर्ती सम्राट के लिए यह आवश्यक कर्तव्य माना जाता था। लेकिन य़ुद्ध में खजाना खाली हो चुका था। महर्षि व्यास ने हिमालय में गढे राजा मरूत्व के खजाने का पता बताया। कृष्ण को हस्तिनापुर में छोडकर युधिष्ठिर स्वयम् अपने भाइयों के साथ गय़े। और अपार धन लेकर लौटे। इसी बीच अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने परीक्षित को जन्म दिया। परीक्षित के पिता की पीढी में भी कोई जीवित नहीं था। अपनी पीढी का तो वह एक मात्र बालक था ही। उसके जन्म की प्रसन्नता के साथ अश्वमेध महा यज्ञ सम्पन्न हुआ। अश्वमेध की विजय यात्रा में अर्जुन को एक मात्र युद्ध मणिपुर में करना पडा, वह भी अपने पुत्र वभ्रुवाहन से। वे चित्रांदगदा से उत्पन्न हुए थे जो मणिपुर की राजकुमारी थी। अर्जुन की एक और पत्नी नागकन्या उलूपी भी वहीं पर मिली।
युधिष्ठिर के शासन काल के बीस वर्ष बाद धृतराष्ट्र, गन्धारी, कुन्ती और विदुर ने वानप्रस्थ ले लिया था। वन में एक दिन आग में जलकर धृतराष्ट्र, गन्धारी और कुन्ती की मृत्यु हो गई। विदुर ने प्राणायाम के द्वार योगमुद्रा में प्राण त्यागे। उसके तीन वर्ष बाद व्यास ने चार हजार चार सौ श़्लोकों में जय नामक इतिहास ग्रन्थ की रचना की। उनके शिष्यों ने उसे बढाकर दस हजार श़्लोकों का भारत ग्रन्थ बाद में बनाया। उसके लगभग चार हजार वर्ष के बाद वह चार हजार वर्ष के बाद बढकर एक लाख से अधिक श़्लोकों का वर्तमान महाभारत ग्रन्थ तैयार हो सका।
युधिष्ठिर के शासन काल में द्वारिका में ग्रह युद्ध हुआ। वहाँ यादवों के दो प्रमुख गुटों के बीच संघर्ष में अधिकांश प्रमुख लोग मारे गये। यादवों में वृष्णि और भोज दो प्रमुख गुट थे। उनके बीच प्रतिद्वव्न्दिता पुरानी थी। यह विवाद मथुरा से ही चला आ रहा था। द्वारिका के विवाद को शान्त करने भारत के प्रतिरक्षा मन्त्री अर्जुन गय़े। लेकिन उन्हें वहाँ पर प्रमुख यादव नेताओं का दाह संस्कार करने का दायित्व निभाना पडा। उसी समय बाग में बैठे हुए कृष्ण भी एक बाण लगने से मारे गये। शोकाकुल अर्जुन ने राजपरिवार की स्त्रियों और राजकीय सम्पत्ति को एकत्र कर राजधानी की ओर प्रयाण किया। उन्होने यदुकुल के बचे खुचे लोगों को कुरुक्षेत्र में बसाया। इन्द्रप्रस्थ सहित यमुना के पश्चिम का बडा क्षेत्र उन लोगों के प्रशासन में दे दिया गया।
इसी मार्ग में अहीर लोगो द्वारा अर्जुन को लूटे जाने का उल्लेख मिलता है। लेकिन इस घटना का क्षेत्र बरेली के पास अहिक्षत्र माना जाता है। द्वारिका के कुरुक्षेत्र य़ा हस्तिनापुर के मार्ग में अहिक्षेत्र कैसे आ गया। यह समझ में नहीं आता है हो सकता है। कि अहिक्षेत्र के विद्रोह की सूचना मिलने पर अर्जुन मार्ग बदलकर उधर चले गये हो या यह घटना कहीं अन्यत्र हुई। अथवा उस घटना का समय कोई और हो सकता है।
युधिष्ठिर ने युधिष्ठिर शक नामक नया सम्वत्सर प्रारम्भ किया था। उसका आरम्भ इन्द्रप्रस्थ नगर की स्थापना के समय़ किया गया था युदाब्ध या कलि सम्वत् महाभारत युद्ध से आरम्भ होता है। वह विश्व का प्राचीनतम प्रमाणिक सम्वत्सर है। युधिष्ठिर सम्वत् की प्रारम्भ तिथि 3138 इस्वी पूर्व है। कुछ ही कम प्राचीन मैक्सिको के मय सम्वत् क् प्रारम्भ होने का वर्ष 3113 ई.पू. है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैक्सिको के मय सम्वत् का आरम्भ भारत के युधिष्ठिर सम्वत् 25 में हुआ था।
इसमें दो बातें महत्वपूर्ण लगती हैं। युधिष्ठिर की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर और इनके राजसूय यज्ञ के सभाभवन का वास्तुकार भी कोई मय ही था। युधिष्ठिर सम्वत् 25 में मैक्सिकों में भी एक मय सम्वत् का आरम्भ होता है। अतः यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है। कि युधिष्ठिर के सहयोग से मय ने मैक्सिको में राज्य स्थापित किया हो। और मय सम्वत् का आरम्भ हुआ होगा।
महाभारत में उल्लेख है कि महाभारत युद्ध के समय कलियुग प्रारम्भ हो गया था। अतः युद्धा कलि सम्वत् के प्रथम वर्ष में हुआ था। यह भी मान्यता है कि युगाब्ध या कलि सम्वत् का आरम्भ युधिष्ठिर सम्वत् 36 में हुआ था। युधिष्ठिर का शासन काल 36 या 62 वर्ष माना जाता है। एक मत के अनुसार कृष्ण का निधन होने पर युधिष्ठिर ने परिक्षित का राज्यभिषेक कर दिया था और हिमालय की यात्रा पर निकल गये थे। दूसरे मत के अनुसार कृष्ण की मृत्यु के बाद भी युधिष्ठिर राज्य करते रहे थे।
महाभारत युद्ध की तिथि 3102 ई0 पूर्व मानी जाती है। इसके पक्ष में युधिष्ठिर सम्वत् और युगाब्ध भी सबसे बडे परिमाण हैं। बाद की राजाओं की वंशावलियाँ भी उसकी पुष्टि करती हैं। लेकिन पुणे के विद्वान डाँ0 पी0 वी0 वार्तिक ने दावा किया है। कि महाभारत युद्ध 16 अक्टूबर 5562 ईस्वी पूर्व प्रारम्भ हुआ था। उस दिन सूर्यग्रहण भी था। अतः तिथि अमावस्या होनी चाहिये। परम्परागत रूप से भी युद्ध का आरम्भ कार्तिक अमावस्या से माना जाता है। जो अक्टूबर में पडना सम्भव है डा0 कार्तिक का आकलन ज्योतिषी गणना पर आधारित है लेकिन उनका आकलन जिन ज्योतिषीय उल्लेखों पर आधारित है, सम्भव है वे बाद के कवियों की कल्पनाँए हो। ऐतिहासिक तिथिक्रम उनका समर्थन नहीं करता है।
vv vv
दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………