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मथुरा पर 19 आक्रमण तथा द्वारिका की स्थापना

                                 मथुरा की सफल क्रान्ति के बाद उग्रसेन राजा बन गए। उनके लिए कृष्ण ने भव्य सभा मण्डप त्रिविष्टि से आयात किया। लेकिन जरासिन्ध ने शान्ति से उन्हें पहने नहीं दिया। उनकी पुत्रियाँ और कंश की पत्नियाँ जब बिधवा होकर मगध पहुचीं तो जरासिनध के लिए इस स्थिति को सहन कर पाना कठिन था। उन्होने भारी सेना के साथ मथुरा पर आक्रमण कर दिया। कृष्ण ने पहली बार सेनापति के रूप में मथुरा की सेना को नेतृत्व किया और जरासिन्धु को वापस लौटाने के लिए विवश कर दिया। जरासिन्ध ने एक के बाद लगातार 18 आक्रमण किये लेकिन हर बार कृष्ण विजयी रहे।

मगध के साथ युद्धों से त्रस्त मथुरा को ईरान की ओर से भी आक्रमण का सामना करना पडा।  तत्कालीन भारत की पश्चिमी सीमा पर यवन क्षत्रियों का शासन था। वे यवन भारतीय क्षत्रीय थे।और नाटकों में पर्दों का प्रयोग शुरु किया था। इसलिए संस्कृत नाटकों में पर्दे को यवनिका कहा जाता है। उन यवनों में कालयवन के नेतृत्व में मथुरा पर आक्रमण किया। जरासन्ध और कालायवन के बीच फंसकर मथुरा की स्थिति असहनीय हो गई थी। कृष्ण ने त्रिविष्टप की सहायता से पश्चिम समुद्र या सिन्धु सागर के तट पर नये दुर्ग द्वारिका का निर्माँण कराया और मथुरा के प्रमुख लोगों को उधर भेज दिया।

सभी लोगो को सुरक्षित द्वारिका भेजने के बाद कृष्ण भी कालायवन को चकमा देकर भाग निकले। कृष्ण को खोजने के प्रयास में वीर राजा मुचकुन्द के क्रोध का शिकारा होकर कालायवन भी मारा गया। इस प्रकार परिस्थिति को देखते हुए कृष्ण ने रण छोडकर कहलाना स्वीकार किया और सदा के लिए मथुरा छोडकर द्वारिका बस गये। जैनपुराण जरासन्ध को ही कृष्ण का मुख्य विरोधी प्रतिनायक मानते थे। विष्णु पुराण के अनुसार कालायवन के मारे जाने के बाद सेना भाग खडी हुई और काफी युद्ध सामग्री कृष्ण को मिली। द्वारिका में बसने के बाद शान्ति स्थापित हो गई। वह दुर्ग अजेय था।

अभी कुछ वर्षों में समुद्र के भीतर पुरातत्व विभाग ने खुदाई की है। वहाँ समुद्र में डूबी हुई द्वारिका पता चलता है। एक किले के कुछ अवशेष मिले भी, पर अभी यह निश्चय नहीं हो सका है कि वे अवशेष कृष्ण के किले के हैं या अन्य किसी के किले के। द्वारिका के राजा उग्रसेन ही थे। उग्रसेन के बाद वसुदेव को राजा बनाया गया। शान्ति स्थापना के बाद राम अपने गांव का हालचाल लेने गोकुल वृन्दावन की यात्रा पर गये। अब वे गांव के गोप नहीं द्वारिका प्रमुख सेनानायक थे ब्रज में उनका स्वागत सत्कार हुआ। राम ने वहां दो मास तक प्रवास किया और शराब पीना सीखा। यह लत उसके बाद उनसे जीवन भर नही छूटी। दो महीने के बाद वे द्वारिका लौट गये। वहां राम का विवाह राजा रेवत की पुत्री रेवती से हुआ और दो पुत्र निशठ और उल्मुक हुए।

कृष्म का विवाह  विदर्भ देश की राजकुमारी रुक्मिणी से हुआ था। उस समय विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर थी उसके राजा भीष्मक थे। भीष्मक के पुत्र रुक्मी चेदि नरेश शिशुपाल के मित्र थे। उन्होने अपनी बहन रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ करना तय कर दिया। शिशुपाल के विवाह में जरासंध भी आये थे। कृष्ण भी यादव सेना के साथ पहुंचे थे। कृष्ण और रुक्मिणि एक दूसरे से प्य़ार करते थे। लेकिन राजाओं के विवाह भी राजनीतिक आधार ही होते थे। जरासन्ध, शिशुपाल और रुक्मी के त्रिगुट ने कृष्ण का प्रस्ताव ध्वस्त कर दिया और रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ तय़ हो गया।

विवाह के एक दिन पूर्व रुक्मिणी का अपहरण करके कृष्ण द्वारिका की ओर भाग निकले। उस विवाह में आए जरासन्ध, शिशुपाल पौण्ड्रक, दन्तवक्र, विदूरथ आदि राजाओं ने रुक्मिणी की खोज शुरु की लेकिन कृष्ण तो रुक्मिणी को लेकर  काफी आगे निकल गये थे। राम के नेतृत्व  में यादव सेना ने विरोधियों को रोक लिया। रुक्मी ने कृष्ण का पीछा किया और काफी दूर जाकर उन्हें घेर लिया। कृष्ण रुक्मी को पपाजित कर  अपनी प्रेयसी रुक्मिणी के साथ सकुशल द्वारिका पहुँच गए।  बलराम भी सेना के साथ द्वारिता पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का विवाह सम्पन्न हुआ।

रुक्मिणी के पहले पुत्र प्रद्युम्न थे। जन्म के छठवें दिन ही शम्बर ने उनका अपहरण कर लिया शम्बर की एक पत्नी मायावती कम आयु थी। बढे होने पर प्रद्युम्न से उनका प्रेम हो गया। उनकी सहायता से प्रद्युम्न ने शम्बर को मारने में उन्होने सफलता प्राप्त की और अपनी प्रेमिका मायावती के साथ द्वारिका आ पहुँचे। प्रद्युम्न को उनके अपहरण आदि की जानकारी मायावती ने ही दी थी। प्रद्युम्न का दूसरा विवाह अपने मामा रुक्मी की पुत्री के साथ स्वयम्वर में हुआ। इतना स्पष्ट है कि उस समय ममेरे फुफेरे भाई बहनों के बीच विवाह सामान्य बात थी।

रुक्मिणी के अन्य पुत्रों के नाम चारुदेंष्ण, सुदेष्ण, सुषेण, चारुगुप्त, चारुविन्द और सुचारु थे। उनकी एक पुत्री चारुमती थी। कृष्ण की अन्य सात पत्नियाँ कालिन्दी, मित्राविन्दा, सत्या, सत्यभामा, जम्बावती, भद्रा और रोहिणी थी। कृष्ण के जीवन में मुख्य रूप से पत्नी के रूप में रुक्मिणी की ही भूमिका ही रही है। उस समय़ की सामाजिक परिस्थितियों में से एक अधिक विवाह  होना सामान्य बात थी। अतः कृष्ण की आठ पत्नियों का होना सहज स्वीकार्य का स्वाभाविक लगता है। कृष्ण अनेक गुणों के कारण हमारे महानायक हैं। उनको महान कहने के लिए एक पत्नी व्रत सिद्ध करने के लिये प्रयास करना आवश्यक नहीं है।

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 इन्द्रप्रस्थ की स्थापना

                          लाक्षाग्रब अग्निकाण्ड से बच निकलने के बाद माता कुण्डी के सहित पाण्डव उत्तराखण्ड के सघन वनों की ओर चले गए थे। वहां पर भीम ने हिडिम्ब को मारकर उनकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया जिससे महाबली पुत्र घटोत्कच उत्पन्न हुए। इसी बीच दरिद्र ब्राह्मण  के वेश में एक चक्रा नामक नगरी में भीमम ने आतंक बन गए। वकासुर नामक राक्षस को मार गिराया। था। ब्राह्मण वेशधारी पाण्डवों ने इस बीच चित्ररथ गन्धर्व से मित्रता की। यक्ष और गन्धर्व मित्रता उत्तराखण्ड की तराई में बसने वाली सुसंस्कृति जातियाँ थी।

उसी बीच पाञ्चाल नरेश द्रुपद ने अपनी पुत्री कृष्णा (द्रौपदी) के स्वयम्वर का आयोजन किया। इसमें कृष्ण भी आए थे और पाण्डव भी ब्राह्मण वेश में पहुँच गये थे। अर्जुन ने घूमती हुई मछली की आँख को वाण से भेद कर द्रौपदी का वरण किया। वहाँ द्रौपदी ने कर्ण को सूतपुत्र कहकर लक्ष्य भेदने से रोक दिया था। कर्ण को अपमान का घूँट पीना पडा। उन्होंने कहा कि किसी कुल में जन्म तो भाग्य पर निर्भर है, पर पौरुष मेरे अधीन है।

भटकते हुए इस पाण्डवो के इस स्वयम्बर में पाञ्चाल राज्य का आश्रय और द्वारिका राज्य का समर्धन मिला। उस समय तक कृष्ण धर्म, दर्शन और राजनीति में प्रतिष्ठता प्राप्त कर चुके थे। पाण्डव माता कुन्ती के सहित द्रुपद के यहाँ सम्मान पूर्वक रहने लगे। हस्तिनापुर को जब यह ज्ञात हुआ कि पाण्डव जीवित है तब धृतराष्ट्र ने उन्हें बुलवा लिया और हस्तिनापुर में उत्सव मनाया गया। लेकिन आपसी विरोध के कारण राज्य को बाँटना पडा। पश्चिमी कुरु  साम्राज्य पाण्डवों को मिला। यमुना के किनारे इन्द्रप्रस्थ नांम से नयी राजधानी स्थापित की गई। द्वारिका और पाञ्चाल के सहयोग से नया इन्द्रप्रस्थ राज्य विकसित होने लगा।

इन्द्रप्रस्थ की स्थापना में कृष्ण का पूरा सहयोग रहा। द्वारिका के बाद वह दूसरा प्रमुख नगर  कृष्ण की योजना के अनुसार स्थापित हुआ। इन्द्रप्रस्थ ही वर्तमान नयी दिल्ली की प्राचीनतम नगर है। दिल्ली में एख पुराना किला भी उपेक्षित सा है। उसी स्थान पर पाण्डवों का इन्द्रप्रस्थ माना जाता है। कुछ लोग पाण्डवों का इन्द्रप्रस्थ वर्तमान दिल्ली के यमुना पार क्षेत्र से मानते हैं। जब तक पुरात्तव की खुदाई से कोई प्रमाण न मिले, इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। 51 शताब्दियों मे न जाने कितनी बार तो यमुना नदी में कटाव व धारा परिवर्तन हुआ होगा। युधिष्ठर ने नई राजधानी  इन्द्रप्रस्थ में भी लम्बें समय तक शासन किया क्योंकि उस अवधि में अर्जुन ने 12 वर्षों तक प्रवास लेकर भारत भ्रमण किया और तीन विवाह किए।

                इसके बाद सम्राट बनने के लिए युधिष्ठर ने राजसूय यज्ञ किया। इसी क्रम में कृष्ण के साथ मगध जाकर भीम ने सम्राट जरासन्ध का वध किया और इससे मगध पर पाण्डवों का अधिकार हो गया। और उससे अधीन सभी राज्य इन्द्रप्रस्थ साम्राज्य में सम्मिलित हो गये। कृष्ण ने इस प्रकार जरासन्ध से अपना बदला चुकाया। राजसूय यज्ञ में कृष्ण को मुख्य़ प्रतिष्ठा मिली। पाण्डव उनके कृतज्ञ थे। शिशुपाल इस बात को सहन नहीं कर सके। कृष्ण उनकी होने  वाली पत्नी को भगा लाए थे। बहुत विवाद बढने पर कृष्ण ने उनका वध कर दिया। उसके बाद राजसूय .ज्ञ सम्पन्न हो गया। तथा युधिष्ठर सम्राट मान लिए गये।

अब हस्तिनापुर छोटा सा राज्य रहा और युधिष्ठर भारत सम्राट हो गये। हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र् तो नाम मात्र के थे वास्तविक शासन उनके बढे पुत्र दुर्योधन ही थे। युधिष्ठर का बैभव और अपना अपमान वे सह नहीं सके। राजसूय़ यज्ञ से लौटकर उन्होने धृतराष्ट्र को भडकाने के लिए यह भी कह दिया। कि द्रौपदी ने उन्हें अन्धे का पुत्र कहा था। यद्यपि यह बात असत्य थी। भीम ने उनकी हँसी उडाई थी। उनके मामा शकुनि अब गान्धार के राजा बन चुके थे। वे बढे कूटनीतिज्ञ थे और अजेय जुआरी भी। वे हस्तिनापुर के सलाहकार बन गये। पाण्डवों के सलाहकार कृष्ण भी चतुर कूटनीतिज्ञ थे और योगेश्वर भी। इसके बाद की सारी राजनीति इन्हीं दो के कूटनीतिज्ञों का खेल बनकर रह गई थी। मुख्य बात यह हैं कि कृष्ण योगेश्वर थे और शकुनि जुआरी और शराबी। यद्यपि उन दिनों क्षत्रिय समाज में शराब और जुआ बुरा नही माना जाता था। लेकिन केवल सामाजिक मान्यता मिल जाने से कोई बुराई अच्छे फल तो नही देने लगती। इसके लिए कृष्ण बडे भाई राम का विरोध भी करते थे।

कुछ समय के बाद हस्तिनापुर से द्यूत या जुआ का निमन्त्रँण भेजा गया। क्षत्रियों में युद्ध और द्यूत को समान प्रतिष्ठता प्राप्त थी। दोनो का निमन्त्रण ठुकराया नही जा सकता था। उस ऐतिहासिक द्यूत में पाण्डव अपना सब कुछ हार गए। द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित किया गया। कर्ण ने उन्हे पांच पतियों की पत्नी वेश्या कह कर स्वयम् को अपमान का बदला चुकाया। अन्तिम दांव हारने पर पाण्डवों और द्रौपदी को 12 वर्ष का बनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पडा। उसी समय भीम ने दुर्योधन की जड्घा के खून से द्रौपदी के केश सीचने और द्रौपदी ने तब तक केश खुले रखने की प्रतिज्ञा की।

भारी कटुता के साथ पाण्डवों का वनवास शुरु हुआ। पाण्डवों ने वनवास के प्रथम 6 वर्ष उत्तराखण्ड के वनो में बिताये। प्रारम्भ में ही कृष्ण आकर सुभद्रा और अभिमन्यु को द्वारिका लो गये। तेरह वर्ष तक अभिमन्यु अपने मामा के यहाँ रहें और युद्ध कला सीखी। वनवास के एक वर्ष बाद ही अर्जुन कैलाश पर्वत पर शिव से और उससे भी सबसे आगे त्रिविष्टप या तिब्बत में इन्द्र से संहारक अस्त्र शस्त्र प्राप्त कर ने चले गए। 5 वर्ष तक उस क्षेत्र में रहने के दौरान उन्होनें  अनेक संहारक अस्त्र शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त किया। गुरु दक्षिणा में अर्जुन ने निवात कवच दैत्यों को पराजित किया। वह पश्चिमी समुद्र का शक्तिशाली द्वीप देश था। लंका नरेश दशग्रीव भी उन्हें पराजित नहीं कर सके थे और मैत्री सन्धि कर ली थी।

उसके बाद अर्जुन ने हिरण्यगर्भ नामक शक्तिशाली राज्य को नष्ट किया वब मध्य एशिया का कोई पर्वतीय राज्य प्रतीत होता है। इन दोनो सफल अभियानों में अर्जुन ने नए नए हथियारो का व्यावहारिक परीक्षण भी कर लिया। कैलास और त्रिविष्टप जैसे उन्नत राज्यों से सैनिक एंव मैत्री सन्धि करके अर्जुन अपने भाइयों के वापस लौट आए। अब तक वनवास के 6 वर्ष पूर्ण हो चुके थे। 4 वर्ष और हिमालय में बिताकर पाण्डव वापस मैदानी क्षेत्र की ओर लौट आए।

वनवास के अन्तिम चरणों में दो घटनांए हुई । अक बार संकट में पडे हुए हस्तिनापुर के राजकुमारों को पाण्डवो ने बचाया। युधिष्ठर की नीति थी कि आपस में लडते समय हम सौ और पाँच हैं। लेकिन बाहरी शत्रु के सामने एक सौ पाँच है। अक बार सिन्धु नरेश जयद्रध ने द्रौपदी को हरण करने का प्रयास किया था। लेकिन पराजित हुए। 12 वर्ष के वनवास के बाद एक वर्ष अज्ञातवास पाण्डवों ने मत्स्यदेश के राजा विराट के यहां नौकरी बिताते हुए बिताया। अन्तिम दिनों में राजा के शाले और सेनापति कीचक की बुरी नजर द्रौपदी पर पडी  तो गुप्त रूप से भीम ने उनका वध कर दिया। कीचक बहुत ही शक्तिशाली सेनापति थे।उनके कारण मत्स्य देश समृद्ध और अजेय बन गया था। इस सूचना से शकुनि को  सन्देह हो गया था। कि इस प्रकार कीचक का वध भीम ही कर सकते हैं ।

विराट से पराजित त्रिगर्त नरेश शुशर्मा ने आक्रमण का प्रस्ताव रखा। यदि पाण्डव वहाँ हुए तो सामने आ जाएगे और यदि नहीं हुए तो कीचक के अभाव में विजय मिलना सम्भव है। इस योजना से साथ मत्स्य देश पर त्रिगर्त और कौरव सेना  ने आक्रमण कर दिया। मत्स्य की राजधानी विराटनगर वर्तमान पश्चिमी बुन्देलखण्ड अथवा पूर्वी राजस्थान के क्षेत्र में ही कहीं स्थित थी। राजा विराट त्रिगर्त सेना के साथ मुकाबला कर रहे थे। कि दूसरी ओर से कुरु सेना ने आक्रमण कर दिया। इस स्थिति में ही पाण्डवों ने छदम् देश में मोर्चा संभाला और विजयी भी हुए। लेकिन युद्ध को दौरान अर्जुन पहचान लिए गये थे। जबकि वे नारीवेश में थे।इस प्रकार पाण्डवों के पहचाने जाने से कुरु राजकुमार और शकुनि बहुत प्रसन्न हुए लेकिन भीष्म, कृपाचार्य, विदुर आदि से गणना कर घोषणा कर दी कि पाण्डवों के अज्ञातवास और वनवास की तेरह वर्ष की अवधि पूरी हो चुकी है। पर दुर्योधन ने उस बात को नही माना।

विराटनगर में अभिमन्यु का विवाह वहाँ की राजकुमारी उत्तरा के साथ कर दिया। कृष्ण द्वारिका से सुभद्रा और अभिमन्यु को लेकर आ गये थे। विवाह में ही पाण्डवों को दहेज में आधा मत्स्य राज्य भी मिल गया। इसके बाद पाण्डवों का केन्द्र मत्स्य देश बन गया। द्वारिका और  पाञ्चाल राज्यों का समर्धन  उनको पहले से ही प्राप्त था इस प्रकार पश्चिमी  भारत पाण्डवों के प्रभाव क्षेत्र में आ गया था।

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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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