कृष्ण का जन्म तथा बचपन
कृष्ण अभी बालक ही थे जब नन्द आदि ने गोकुल छोड़कर अन्यत्र बसने का मन बना लिया। अपने पशुओं के साथ शकटों पर सामान लादा और चल दिये। वृन्दावन के निकट शकटों को अर्द्ध चन्द्राकार खड़ा कर घेरा बनाया और डेरा डाल दिया। किशोरावस्था की ओर बढ़ते हुए कृष्ण एक दिन कदम्ब की डाल से यमुना में कूद गये। वहाँ कालिय नाग से मुठभेड़ हो गयी। कालिय के साथ बहुमूल्य आभूषण धारण किये हुए उनकी पत़्नियां भी थी। अतः कालिय को कृष्ण का दुस्साहस और भी असहनीय लगा। उन्होंने कृष्ण पर हमला कर दिया तो कृष्ण ने मार-मार कर अधमरा कर दिया। उनके क्षमा मांगने पर ही कृष्ण ने छोड़ा वे परिवार सहित कहीं और चले गये। कालिय को नागवंशी क्षत्रिय ही माना जा सकता है क्योंकि सर्प की पत़्नियां न मानव से बात कर सकती हैं और न आभूषण पहन सकती हैं।
कालिय दमन के कुछ समय बाद राम ने खेल के दौरान प्रलम्ब नामक एक दुष्ट का वध किया। दोनों बालक बहुत साहसी और बलवान् थे। घोड़े और गधे जैसे पशुओं से शारीरिक बल से मुकाबला करना तो उनकी आवश्यकता ही थी। वन के निकट निवास जो बन गया था। किशोरवय कृष्ण ने उन दिनों प्रचलित इन्द्र-पूजा पर रोक लगवा दी। कृष्ण ने कहा कि हम न कृषक हैं औऱ न व्यापारी। हम वनचर पशु पालक हैं। अतः उस प्रकृति की पूजा कर सकते हैं जो हमारा और पशुओं का पालन करें। लोगों को तर्क समज में आ गया औऱ इन्द्र पूजा नहीं हुई। वर्षा के देवता इन्द्र का कोप समझें या कृष्ण की अग्नि-परीक्षा, लगातार एक सप्ताह तक भारी वर्षा हुई। कृष्ण का जन्म ही ऐसे तूफानी मौसम में हुआ था। उन्होंने साहसपूर्वक स्थिति का सामना किया। अपनी चिन्ता न कर लोगों की सहायता में लगे रहें।
इस प्रकार परम्परावादी पूजा- पाठ पर रोक लगाकर कृष्ण ने अपना सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ किया। कृष्ण के लिए प्रकृति महत्वपूर्ण थी, पूजा पाठ के कर्मकाण्ड नहीं। वे बचपन से कर्मयोगी थे। महत्वपूर्ण कर्तव्य थे, धर्म-परम्परा की लकीर पीटना नहीं। कृष्ण का बचपन अभावों में ही बीता। इन्द्रपूजा का विरोध करते हुए उन्होंने स्वयम् कहा कि हम न किवाड़ लगाते हैं और न घर या खेत वाले हैं। गृहविहीन और भूमिहीन पशु पालकों के समाज में पाले गये थे कृष्ण। अपने पशुओं को लेकर चरागाहों की तलाश में इधर से उधर भटकते रहते थे गोप लोग। उस समय पर्याप्त वन होने तथा पशु पालक होने से भोजन तो पौष्टिक मिल जाता था, लेकिन घर और कपड़े जुटाना आसान नहीं था। कृष्ण का विचार था कि इन्द्र की पूजा का कर्मकाण्ड करने से कोई लाभ नहीं है। हमें तो वन और पर्वत की ही पूजा करनी चाहिये जो हमें और हमारे पशुओँ को पोषण देते हैं। धार्मिक कर्मकाण्ड में शक्ति और संसाधन व्यय करने से अच्छा है कि उसे अपने जीवन स्तर को उठाने में व्यय किया जाये। अपने परिवार से दूर अभावों में पलने वाले कृष्ण का तो क्रान्तिकारी और जनवादी विचारक बनना ही स्वाभाविक था। वे भाग्य के सामने समर्पण करने वाले निर्बल व्यक्ति थे ही नहीं।
जब कृष्ण के कार्यों से अभिभूत लोगों ने उनकी प्रशंशा की तो उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे बीच का ही साधारण मानव हूँ। यह अवश्य विचारणीय है कि जिस कृष्ण ने स्वयम् को साधारण मानव कहा औऱ इन्द्र की पूजा का विरोध किया, आज हम उसी कृष्ण की पूजा करने लगे, उसे पत्थर का बनाकर मन्दिर में बन्द कर दिया। यदि हम कृष्ण की बातें सुनें तो वे आज भी हर स्थिति में हमें रास्ता दिखा सकते हैं औऱ आज की ज्वलन्त समस्याओं का उपाय बता सकते हैं।
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कंश वध
जिस समय कृष्ण अपने क्रान्तिकारी विचारों के साथ गोपो को संड्गठित कर रहॆं थे, कंश के सामनें उनका भेद खुल गया। जब कंश को पता चला कि राम र कृष्ण देवकी के सातवें और आठवे पुत्र ह। तो उनके पैरों के नीचे धरती खिसक गई। वे अपने क्रोध को वसुदेव से भी नहीं छुपा सकें। लेकिन अब कोई बढा कदम उठाने से अब कोई लाभ नहीं होने वाला था। कंश ने मन्त्रियों से विचार विमर्श कर एक योजना तैयार की। मथुरा की वार्षिक खेल प्रतियोगता में कृष्ण और राम को बुलाने का निश्चय हुआ। कूट योजना थी कि खेल प्रतियोगिता के दौरान ही कृष्ण को मार डाला जाएगा और एक दुर्घटना बताकर मामला खत्म कर दिया जाएगा। श्वफल्क के पुत्र अक्रूर को बलराम और कृष्ण को बुलाने के लिए गोकुल भेजा गया। निर्णायक युद्ध के लिए कंश और वसुदेव ने अपनी अपनी तैयारियाँ शुरु कर दीं।
अक्रूर मथुरा से वृन्दावन गये और सभी को कंश का संदेश सुनाया। राजा के आदेश का पालन तो होना ही था। एक रात रुककर अगले दिन अक्रूर राम और कृष्ण को अपने रथ में बैठाकर मथुरा के लिए चल दिए और सायम् मथुरा पहुँच गये। मथुरा पहुँचकर अक्रूर ने राम और कृष्ण को रथ से उतार दिया और अकेले कंश के पास चले गये। दोनो भाई पैदल आगे बढे कृष्ण ने भी निर्णय करने का मन बना लिया था। जब भेद खुल गया तब कंस चैन से जीने तो देगा ही नहीं, अतः क्यों न एक बार में आरपार का निर्णय कर लिया जाए।
दोनो भाइयों के पास मथुरा जैसी राजधानी में घूमने के लिए ढंग के कपडे नहीं थे। अतः पहला हमला कंश के धोबी के यहाँ किया गया ।
धोबी की हत्या करके कृष्ण ने कंश को सीधी चुनौती दी और उनके ही अच्छे कपडे ले के चल दिए । अब राम और कृष्ण के पास राजाओँ के जैसे वस्त्र थे। अतः कंश के माली ने उन्हें राजकुमार ही समझा। और सम्मानपूर्वक पुष्प हार अर्पित किए। आगे बढने के लिए उन्हें कंश के लिए अनुलेपन तैयार करने वाली युवती अनेकवक्रा कुब्जा मिली। उससे मांगकर कृष्ण ने अनुलेपन लिया और उल्लापन विधान के ज्ञाता होने के कारण उसका शारिरिक कष्ट भी दूर कर दिया।
रात में दोनो भाइयों ने एक भयंकर काण्ड कर डाला। उस खेल प्रतियोगिता के लिए एक विशेष धनुष तैयार किया था। दोनो भाई वहां पहुच गयें। राजसी वेद देखकर कर्मचारियों ने धनुश दिखा दिया। कृष्ण ने प्रतिञ्चा चढाने का प्रयास करते हुए उसे तोड डाला। कंश को इसकी सूचना मिली तो कंश ने रात में आपात बैठक की। तय हुआ कि जब कल प्रातः दोनो भाई खेल के मैदान में प्रवेश करेगे तब हाथी को भडका दिया जायेगा। यदि वे दोनो बच गये तो मल्लयुद्ध में ही उनको मार डालने का प्रयास किया जाएगा। मथुरा के वार्षिक खेलकूद का उद्घाटन दिवस। प्रातः से ही क्रीडा क्षेत्र खचाखच भर गया था। पुरुष और नारियाँ, बच्चे, किशोर और ब़ढे बूढे लोग महान खेलकूद आयोजन को देखने के लिए एकत्र थे।
जिस समय कृष्ण उस भव्य और विशाल क्रीडक्षेत्र में पहुचें, वहाँ पर कंश उपने विशिष्ट स्थान पर आकर बैठ चुके थे। उनके मन्त्री और अन्य प्रमुख अधिकारी भी उसी दीर्घा में बैठे हुए थे। वसुदेव, नन्द, अक्रूर, अनेक विशिष्ट लोग एक अन्य विशिष्ट दीर्घा में थे। देवकी तथा नगर की अन्य महिलाएं भी मौजूद थीं। मुख्य द्वार प्रशिक्षित हाथी कुवलीयापीड दर्शको का स्वागत कर रहा था। लेकिन इसमें कंश की कुटिल चाल छिपी थी। वहां पर राम और कृष्ण के पहुचते ही महावत नें हाथी को भडका दिया। लेकिन वे दोनो भाई ऐसी स्थतियों में खेलते हुए ही बडे हुए थे। कृष्ण और राम ने हाथी की सूँड को पकडकर ऐंठ दिया और उसका एक एक दांत उखाड लिया। इस प्रकार हाथी तो मारा ही गय़ा, हाथी के लम्बे दातो को हथियार बनाकर महावत शिर भी फोडा।
मल्लयुद्ध उस समय का सबसे प्रमुख खेल था। उस समय के नियमों के अनुसार मल्लयुद्ध अक प्रकार का बिना हथियारों का युद्ध ही था। निर्णय तभी होता था जब एक पक्ष हार मान ले या मारा जाए। उसमें कृष्ण का मुकाबला चारूण के साथ तथा राम का मुकाबला मुष्टिक के साथ था। वे दोनो ही कंश के प्रमुख सेनाधिकारी थे। दोनों ही मल्लयुद्ध में मारे गये और कृष्ण तथा राम विजयी रहें।
कंश की योजना थी कि इस खेल में राम और कृष्ण को मार डाला जायेगा लेकिन हुआ बिल्कुल विपरीत। इस पर कंश अपना संतुलन खो बैठे। उन्होने राम तथा कृष्ण को अनुचित ढंग से सेनाधिकारी मल्लों की हत्या का दोषी माना और दोनो को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया। इस पर वसुदेव के समर्थकों ने योजनाबद्ध ढंग से घेराबन्दी कर ली और आदेश का विरोध किया। इस अव्यवस्था के बीच कृष्ण ने अप्रत्याशित ढंग से कृष्ण को ही आसन से खीच लिया जिससे सभी लोग सकते में आ गये। कंश के भाई सुमाली ने आक्रमण करने का प्रयास किया, लेकिन राम ने कुछ कर पाने से पहले ही उनकी हत्या कर दी। इस बीच कृष्ण भी कंश को प्राणो से मुक्त कर चुके थे। कंश के मरते ही चारो तरफ हाहाकार और अफरा तफरी मच गई। वसुदेव के लोगो ने घेरा मजबूत कर लिया और भीड की भगदड के बीच सारी सुरक्षा ध्वस्त हो गई। इस तरह अप्रत्याशित ढंग से खेल के मैदान में इतना बढा खेल हो गया। और मथुरा की क्रान्ति सफल हुई।
मथुरा की सफल क्रान्ति के बाद वसुदेव और कृष्ण का महत्व बढा। अब तक गोकुल और वृन्दावन में अभावों के बीच पलते हुए कृष्ण और राम को समुचित शिक्षा भी नहीं मिल पाई थी। अब वे मथुरा के राज्य के सर्वोच्च प्रतिष्ठित लोगो में से एक थे। अतः दोनो भाई अवन्तिकापुर में सन्दीपनी आश्रम में अध्ययन के लिए गये। वहाँ भी उन्हें केवल 64 दिनो तक ही अध्ययन का अवसर मिल सका। सन्दीपनि ऋषि के पुत्रों का अपहरण प्रभाष क्षेत्र पश्चिमी समुद्र के जल दस्युयों ने कर लिया था। कृष्ण ने गुरू को दक्षिणा में उनके पुत्रों को वापस लाकर देने का वचन दिया।
कृष्ण और राम नें पश्चिमा समुद्र् (अरब सागर या सिन्धु सागर) में खोज प्रारम्भ की। इसी क्रम में उन्होनें जलदस्यु पञ्तजन्य को मार कर उनका पाञ्चजन्य शंख प्राप्त किया। इसी खोज में वे पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित यमलोक में पहुचें। वहां का राजा यम कहलाता था और विवस्वान् का ही वंशज माना जाता था। विवस्वान् के पुत्र मनु के वंशज ही भारत में इक्ष्वाकुवंशीय या सूर्यवंशीय कहलाते थे। यमलोक का शासन बहुत कठोर था। हम जानते है कि पहले लंकानरेश दशग्रीव रावण ने उस देश पर विजयी पाई थी। और कठोर यातना भोग रहे लाखो लोगो को मुक्त करा दिया था। कृष्ण ने अपने गुरु के पुत्रो को वहां से निकाला और चले आये। लौटकर उन्होने सन्दीपनि को उनके पुत्र सौपें और मथुरा लौट आये। हो सकता हो राम और कृष्ण अधिक अध्ययन के इच्छुक हो। लेकिन मथुरा पर मगध नरेश जरासिन्धु का दबाब बढ रहा था। अतः उन्हे स्थिति को देखते हुये अपना अध्ययन छोडकर बीच में ही वापस आना पडा हो।
जैनियों के पुराणो में कुछ अधिक सटीक जानकारी है। किसी कारण से कंश को उनके पिता उग्रसेन ने निकाल दिया था। वसुदेव ने सूरसेन य़ा सौरीपुर में कंश को आश्रय दिया। वसुदेव और मगध सम्राट में मित्रता थी। जब हस्तिनापुर का राजपरिवार आपसी संघर्ष में कमजोर पड रहा था, मगध सम्राट जरासिन्धु ने चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए शक्ति को बढाना प्रारम्भ किया। वसुदेव नें राजा सिंगस्थ को जीतकर उसे भी मगध के अधीन कर दिया। जरासिन्धु ने वसुदेव के कहने पर कंश को सहायता दी। और वे पिता को बन्दी बनाकर राजा बन गये। वसुदेव के उपकारों से दबे कंश उनके साथ अपनी बहन का विवाह कर चुके थे। वसुदेव से विरोध होने पर कंश ने देवकी और वसुदेव को अपने पास अपनी सुरक्षा में रख लिया। वसुदेव और उनकी पत्नी देवकी कंश के किले में एक महल में रहने लगे। कंश ने कृष्ण जन्म के बाद ही उनको वहां से जाने की अनुनति दी।
कृष्ण जन्म के विषय में जैन पुराण एक महत्वपूर्ण सूचना देते हैं। उसके बाद जब वसुदेव कृष्ण को लेकर जा रहें थे। तो गोकुल के नन्द मृत बालिका को लेकर यमुना में प्रवाहित करने आए बुए थे। वहां वसुदेव ने जीवित बालक नन्द को सौंपा और मृत कन्या लेकर वापस चले गए। यह प्रचारित कर दिया गया कि देवकी ने मृत कन्या को जन्म दिया है।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………