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महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास

                 कृष्ण द्वैपायन व्यास की माता सत्यवती एक साधारण मछुआरे की पुत्री थी। उनका निवास कालपी के निकट यमुना नदी के तट पर था। उन्हें धीवर या कछारी भी कहा जाता है। एक दिन पराशर ऋषि यमुना तट पर आये। उन्हें नदी पार करनी थी। सत्यवती नाव चला रही थीं। दोनो की इच्छा हुई। उसी नाव में सहवास के फलस्वरूप सत्यवती गर्भवती हो गयी। और समय पर ऐसे महान् बालक को जन्म दिया। माँ ने अपने उस पुत्र का नाम कृष्ण रख दिया। स्पष्ट है कि समाज ने विवाह पूर्व जन्मे सत्यवती के पुत्र को स्वीकार कर लिया और उनका पालन-पोषण सहज ढंग से सम्भव हो सका। उस समाज में हमारे समाज जैसी संकीर्ण धारणायें नहीं थीं, अन्यथा सत्यवती और उसके परिवार का जीवन कठिन हो जाता और हम कृष्ण द्वैपायन जैसे महान् व्यक्तित्व से वञ्चित रह जाते।

उन्होंने हिमालय के बदरीनाथ क्षेत्र में रहकर तपस्या और ज्ञान साधना की। इस योग्य युवा को गर्व से सत्यवती ने भी पुत्र कहा, पराशर ने भी। बाद में सत्यवती का विवाह राजा शान्तनु से हुआ। वे कर्ण की माता कुन्ती पृथा की तरह निर्बल मन की नहीं थी जो अपने पुत्र को अपना कहने का साहस न कर सकें। शान्तनु से विवाह के समय सत्यवती के पिता ने वचन लिया था कि शान्तनु के बाद उनका पुत्र ही राजा बनेगा। इसी प्रकरण में शान्तनु के बड़े पुत्र देवव्रत ने कभी राजा न बनने और विवाह न करने का संकल्प लिया और भीष्म कहलाये। इस प्रकार देवव्रत भीष्म और कृष्ण द्वैपायन व्यास समकालीन थे और लगभग समवयस्क भी।

         शान्तनु के वचन देने के बाद भी सत्यवती ने कभी भी अपने पुत्र को ही राजा बनाने की जिद नहीं पकड़ी। उन्होंने भीष्म की योग्यता को सदैव वरीयता दी। सत्यवती ने भीष्म को राजा बनाने और विवाह कराने का प्रयास भी किया, लेकिन देवव्रत भीष्म ने उनकी बात नहीं मानी। चित्रांगद की मृत्यु होने और विचित्रवीर्य के सन्ताहीन मर जाने पर सत्यवती ने भीष्म से कहा कि उनकी पत्नियों से नियोग प्रथा के अनुसार सन्तान उत्पन्न करें लेकिन भीष्म ने यह भी स्वीकार नहीं किया। तब सत्यवती ने अपने पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास को आदेश देकर नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न करायी। इस प्रकार धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के वास्तविक जन्मदाता व्यास ही थे। जब तक बड़े होकर पाण्डु ने शासन नहीं संभाल लिया, तब तक रानी सत्यवती ने भीष्म के सहयोग से राजसत्ता चलायी। सत्यवती को महान् महिला शासक के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिये।

कृष्ण द्वैपायन हिमालय से लौटकर हस्तिनापुर आये और वैदिक साहित्य के सम्पादन का कार्य किया। वे वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक और सूत्र ग्रन्थों के भाष्यकार भी थे। इस प्रकार भारतीय धर्म संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कृष्ण द्वैपायन व्यास का योगदान बहुत अधिक है उन्होंने वैदिक साहित्य के सम्पादन का महत्वपूर्ण कार्य हमारे समय से लगभग बावन शताब्दियों पूर्व सम्पन्न किया।

सभी पुराणों के साथ व्यास का नाम जुड़ा हुआ है। इसके पीछे भी कोई उपयुक्त कारण अवश्य होना चाहिये। जय नामक इतिहास ग्रन्थ कृष्ण द्वैपायन व्यास की महत्वपूर्ण रचना है। उन्होंने चार हजार चार सौ अथवा छह हजार श्लोकों में उसकी रचना की थी। बाद में अन्य विद्वानों ने उसका आकार दस हजार या चौबीस हजार श्लोकों का बनाकर भारत नाम रख दिया। यह बात प्रचलित हो गयी कि जो कुछ भारतवर्ष में है, वह सब कुछ भारत ग्रन्थ में है। बाद में उस ग्रन्थ का आकार एक लाख बीस हजार श्लोकों का हो गया। इसी प्रकार से सम्भव है कि कृष्ण द्वैपायन व्यास ने प्राचीन इतिहास को समेट कर पुराण के रूप में सम्पादन किया हो जिसके आधार पर ही विभिन्न लोगों ने समय-समय पर अनेक पुराणों की रचनायें की होंगी। शायद इसलिए उस सभी विनम्र लोगों ने पुराणों की रचना का श्रेय व्यास को ही दिया हो। स्वयम् को नहीं। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में प्रचलित किसी पुराण के रचनाकार महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास नहीं हैं, भले ही सभी पुराणों के मूल प्रेरणास्रोत वे ही हों। द्वापर युग का अन्तिम चरण काफी राजनीतिक उथल-पुथल का समय था। कृष्ण द्वैपायन व्यास उस युग के अति महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। विद्वान्, सम्पादक, भाष्यकार, महान् दार्शनिक, महाकवि और महत्वपूर्ण इतिहासज्ञ होने के साथ ही वे अपने समय के इतिहास के प्रमुख पात्र भी थे। धृतराष्ट्र और पाण्डु के जन्मदाता होने के साथ ही वे हस्तिनापुर राजपरिवार के प्रेरणास्रोत और नैतिक परामर्शदाता भी थे। कठिन समय में अनेक बार सत्यवती तथा अन्य लोगों ने उनके परामर्श से शान्ति प्राप्त की। कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के बाद उन्होंने उसका इतिहास लिखकर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित कर दिया। आश्चर्य होता है कि इतनी बहुमुखी प्रतिभा का धनी कोई व्यक्त हो सकता है।

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हस्तिनापुर राजपरिवार

में कलह

             जिस समय कृष्ण द्वैपायन व्यास वैदिक संस्कृति के आधारभूत ग्रन्थों का सम्पादन कर व्यवस्थित कर रहे थे, भारतवर्ष की केन्द्रीय सत्ता हस्तिनापुर के कुरुवंश में पारिवारिक कलह के लक्षण उभरने लगे। शान्तनु के बड़े पुत्र देवव्रत भीष्म की योग्यता, क्षमता, वीरता और सदिच्छा के बावजूद उस महान् वंश के पतन को रोका नहीं जा सका। भीष्म शासन न करने की अपनी प्रतिज्ञा पर पूरी तरह दृढ़ थे और संयोगवश कोई और योग्य शासक सिंहासन पर नहीं बैठ सका। भीष्म के दोनों छोटे सौतेले भाई निःसंतान मर गये और नियोग से उत्पन्न बड़े पुत्र धृतराष्ट्र ने अन्धे ही जन्म लिया। अतः छोटा होने के बावजूद पाण्डु को राजा बनाया गया। यहीं से पारिवारिक कलह का बीज पड़ गया जिससे लम्बे समय तक यह राजपरिवार और फलस्वरूप पूरा देश प्रभावित रहा।

   परिस्थितिवश पाण्डु के संन्यास ले लेने और उस समय तक किसी उत्तराधिकारी के न होने के कारण अन्धे धृतराष्ट्र को ही सिंहासन पर बैठाकर भीष्म शासन का संचालन करने लगे। संयोगवश धृतराष्ट्र की पत्नी गन्धारी और पाण्डु की पत्नी पृथा (कुन्ती) एकसाथ गर्भवती हुईं। अब यह विचार किया जाने लगा कि जो पहले उत्पन्न होगा, वही उत्तराधिकारी बनेगा। यहीं से राजनीतिक षड्यन्त्र का दौर शुरू हो गया। पृथा (कुन्ती) और माद्री के पुत्रों पाँच पाण्डवों का जन्म व पालन वन में हुआ। पाण्डु के मरने पर उन दोनों पत्नियों और पाँचों पुत्रों को हस्तिनापुर राजभवन में भीष्म के संरक्षण में भेज दिया गया। भीष्म धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों के लिए समुचित शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था कर दी। कुरुवंश के सम्राट धृतराष्ट्र थे, अतः उनके पुत्र ही कुरुकुल के उत्तराधिकारी कौरव कहे जाते थे। पाण्डु के पुत्र पाण्डव कहे जाने लगे। छात्र जीवन से ही दोनों पक्षों में सत्ता के उत्तराधिकार को लेकर षड्यन्त्र प्रारम्भ हो गये। 

धृतराष्ट्र पाण्डु से बड़े थे और सत्तासीन सम्राट थे। अतः उनके बड़े पुत्र दुर्योधन को स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था। दुर्योधन वीर, साहसी और कुशल योद्धा भी थे, लेकिन संयोगवश युधिष्ठिर का जन्म उनसे पहले हो गया था। पाण्डु के समर्थकों ने इसे प्रतीकात्मक रूप में ही सही, युधिष्ठिर के बड़े होने को मुद्दा बनाकर उन्हें उत्तराधिकारी बनाने का प्रयास शुरू कर दिया। राजनीतिक जोड़-तोड़ की इन परिस्थितियों में धृतराष्ट्र और उनके पुत्र दुर्योधन को पाण्डवों का अस्तित्व ही घातक लगने लगा। जब पाण्डु के निधन पर उनके पुत्र हस्तिनापुर आये तब उनका भव्य औपचारिक स्वागत किया गया, लेकिन उनसे छुटकारा पाने के लिए प्रयास भी प्रारम्भ हो गये। स्थिति यह हो गयी कि दोनों पक्ष एक दूसरे को समाप्त करने की ताक में रहने लगे। युधिष्ठिर का स्वभाव एवम् विचार देवव्रत भीष्म से मेल खाता था। अतः उन्हें सत्ता के असली सूत्रधार पितामह महारथी भीष्म का समर्थन प्राप्त था। दोनों ही परम्पराओं की मर्यादा पर चलने वाले थे। इस तरह दोनों को कहीं न कहीं व्यक्तिगत प्रशंसा और सहानुभूति मिल जाती थी।

उस समय भारतवर्ष की वास्तविक सत्ता भीष्म के हाथों में केन्द्रित थी। व्यक्तिगत त्याग करने के कारण कुरु परिवार में उनका सम्मान भी था। वैसे भी वे दुर्योधन और युधिष्ठिर जैसे प्रतिद्वन्द्वियों के पितामह होने के कारण पूज्य थे। लेकिन कुरुवंश के बाहर भारतवर्ष के प्रान्तीय शासकों में भीष्म की छवि अच्छी नहीं थी, अपितु क्रूर, अत्याचारी एवं लडाकू की थी। उन्होंने अपने भाइयों के लिए काशी नरेश की पुत्रियों अम्बा और अम्बालिका का अपहरण किया था और इसी तरह अपने भतीजे धृतराष्ट्र के लिए गान्धारी को शक्ति के बल पर उठा लाये थे। गान्धार इस अपमान को कभी भुला नहीं पाया और भीष्म को नीचा दिखाने के उपाय सोचता रहा।

देवव्रत भीष्म की सम्पूर्ण शक्ति व्यक्तिगत त्याग और परम्परावादी नैतिकता थी। उनकी परिभाषा के अनुसार शान्तनु के वंश की रक्षा और उस कुल की परम्पराओं का पालन उनके लिए सबसे बड़ा धर्म था। चाहे उसके लिए कितना भी क्रूर कर्म क्यों न करना पड़े। लेकिन गान्धार राजकुमार शकुनि के लिए इस धर्म को पचा पाना बड़ा कठिन था कि उनकी बहन का अपहरण करके एक अन्धे व्यक्ति के साथ विवाह कर दिया जाये। गान्धारी को जैसे ही अपने पति धृतराष्ट्र के अन्धे होने का पता चला, उन्होंने भी अपनी आँखों पर स्थायी तौर पर पट्टी बाँध ली। पता नहीं यह उनका पतिव्रत धर्म और समर्पण था या प्रतिरोध व्यक्त करने का एक विवश नारी का अपना तरीका। लेकिन गान्धारी की आँखों पर बांधी हुई उस पट्टी ने शकुनि को कभी इस अन्याय की ओर से आंख फेरने नहीं दिया। जब उन्हें पता चला कि देवव्रत भीष्म उनके भांजे दुर्योधन का अधिकार छीनकर युधिष्ठिर को उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं, तब उन्होंने हस्तिनापुर के इस राजनीतिक खेल का सूत्र अपने हाथ में ले लिया।

इस तरह शकुनि ही सम्राट धृतराष्ट्र के मुख्य सलाहकार बन गये। भीष्म अपने ही जाल में फंस चुके थे। वे सत्ता का समर्थन करने के लिए विवश थे और धृतराष्ट्र शकुनि की सलाह पर चलने लगे थे। शकुनि ही धृतराष्ट्र और गान्धारी की आँखें बन चुके थे। दुर्योधन के भीतर चक्रवर्ती सम्राट बनने की महत्त्वाकांक्षा कूट-कूट कर भरी गयी। पाण्डवों को रास्ते का कांटा बताकर समाप्त करने के लिए उन्हें प्रेरित किया जाने लगा। शकुनि के नेतृत्व में राजनीतिक षड्यन्त्रों का एक अन्तहीन दौर शुरू हो गया। पाण्डों में भीम सबसे अधिक शक्तिशाली थे, अतः वे सबसे बड़ा खतरा लगे थे। एक बार दुर्योधन ने उन्हें नदी में डुबोकर मारने का प्रयास किया लेकिन वे संयोगवश सुरक्षित बच निकले। पाण्डवों ने भी रणनीति के तहत इस मामले को तूल नहीं दिया।

एक अवसर पर शकुनि की सलाह पर पाण्डवों के लिए दुर्योधन ने हस्तिनापुर के निकट वारणावत में भव्य भवन बनाया। उसके निर्माण में लाक्षा आदि अति ज्वलनशील पदार्थों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया। महामन्त्री विदुर को इस षड्यन्त्र की भनक लग गयी। उन्होंने विश्वस्त लोगों द्वारा पाण्डवों को इसका संकेत भेज दिया। जब पाँच पाण्डव तथा माता कुन्ती उस भवन में थे, शकुनि की योजना के अनुसार उस भवन में आग लगा दी गयी। संयोगवश या योजनानुसार उस जले हुए भवन में एक महिला सहित छह लोगों के शव बुरी तरह जली अवस्था में निकले। हस्तिनापुर में अधिकृत तौर पर मान लिया गया कि दुर्घटनावश हुए अग्निकाण्ड में कुन्ती तथा पाँच पाण्डव भाई जलकर मर चुके हैं। इतिहास में वह दुर्घटना लाक्षागृह काण्ड के रूप में दर्ज हो गयी है।

कुन्ती और उनके पाँचों पुत्र लाक्षागृह में गुप्त सुरंग बनाकर निकल गये थे। उस सुरंग का बाहरी द्वार दूर वन में खुलता था। उन्होंने उचित समय की प्रतीक्षा करते हुए कुछ समय तक हस्तिनापुर से दूर ही रहने का निश्चय किया और छद्मवेश में जीवन-यापन करते हुए उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे।

लाक्षागृह षडयन्त्र में पाण्डवों और कुन्ती के जीवित बच निकलने की जानकारी केवल विदुर को थी। राजपरिवार के छह लोगों के एक साथ जल मरने की सूचना से हस्तिनापुर में शोक छा गया। शकुनि और दुर्योधन की मण्डली अपनी ‘निर्णायक सफलता’ पर मन ही मन प्रसन्न थी, लेकिन इस दुर्घटना पर राजकीय शोक मनाया गया। देवव्रत भीष्म को गहरा आघात लगा। पाण्डु समर्थक लोगों को इस दुर्घटना के पीछे शकुनि की गहरी साजिश की पूरी आशंका थी। लेकिन जो हो चुका था, उसके सम्मुख सभी अपने को पूरी तरह विवश पा रहे थे।

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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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