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शान्तनु तथा उत्तराधिकारी

दिलीप के पुत्र प्रतीप थे। प्रतीप के तीन पुत्र देवापि, शान्तनु और बाह़्लीक हुए। देवापि ने वैराग्य ले लिया, अतः प्रतीप के बाद शान्तनु राजा हुए। उनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने सर्वत्र शान्ति स्थापित की, अतः उनको शान्तनु कहा गया। हो सकता है कि उनका मूल नाम कुछ और हो, लेकिन वह ज्ञात नहीं है। शान्तनु के शासनकाल में एक बार भयंकर सूखा पड़ा। कई वर्षों तक पर्याप्त वर्षा नहीं हुई। पुरोहितों ने इसका कारण बताया कि आपके बड़े भाई देवापि जीवित हैं, अतः शासन का अधिकार उनका है। अतः आप यह राज्य उनको ही सौंप दें। आप केवल संरक्षक के रूप में राजकार्य करते रहें। आपका इससे कोई सम्बन्ध नहीं है।

यह सुनकर राजा शान्तनु बड़े भाई देवाप को मनाने के लिए वन गये। शान्तनु के साथ गये पुरोहितों ने वैदिक संस्कृति का हवाला देकर बड़े भाई होने के कारण राज्य सम्भालने का आग्रह देवापि से किया, लेकिन वे नहीं माने। उन्होंने ऋषि जीवन अपना लिया था और सन्तुष्ट थे। हम कह चुके हैं कि द्वापर युग जड़ मर्यादाओं का नहीं था। वह समय व्यावहारिक राजनीति का था। शान्तनु अपने बड़े भाई के खड़ाऊ मांगने नहीं गये थे। उनका उद़्देश्य वर्षा न होने का जो कारण बताया गया था, उस आरोप से मुक्त भर होना था।

             देवापि ने भी किसी के कहने से नहीं, स्वेच्छा से ऋषिधर्म चुना था। उन्हें कुटिल राजनीति की अपेक्षा सम्मानीय और शान्तिपूर्ण ऋषि जीवन ही पसन्द था। जो भी हो, देवापि ने शासन करना स्वीकार नहीं किया। शान्तनु के साथ गये, पुरोहितों ने शान्तनु से कह दिया कि आप शासन कर सकते हैं। पुरोहितों ने वर्षा होने का आश्वासन भी दिया था। धीरे-धीरे वर्षा की स्थिति भी सुधरी और शान्तनु का शासन अधिकार मान्य हो गया। शान्तनु के भाई बाह़्लीक के पुत्र सोमदत्त हुए। उनके तीन पुत्र भूरि, भूरिश्रवा और शल्य थे।

               राजा शान्तनु के शासनकाल में हस्तिनापुर भारतवर्ष का प्रमुख सत्ता केन्द्र था। लेकिन उस पारिवारिक कलह के बीज भी शान्तनु ने ही बो दिये थे जिसके कारण केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ने लगी और पाञ्चाल, मथुरा तथा मगध में महत्वाकांक्षायें पनपने लगीं। शान्तनु की दो पत़्नियां थीं – गंगा और सत्यवती। उन्होंने दोनों विवाह सौन्दर्य से आकर्षित होकर ही किये थे। इसी कमजोरी के कारण वंश खतरे में पड़ गया था। शान्तनु प्राशासनिक कुशलता के बावजूद सफल शासक नहीं बन सके। इसका कारण उनकी कमजोर सौन्दर्यलिप्सा भी थी। उनकी पहली पत़्नी गंगा अपने पुत्र देवव्रत को लेकर महल छोड़ गयी। कहा जाता है कि गंगा ने अपने सात पुत्रों को जन्म लेते ही गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया था लेकिन उन्होंने देवव्रत को अच्छी शिक्षा दिलायी और शस्त्र तथा अस्त्र में पारंगत कर दिया। बाद में शान्तनु अपने उस योग्य पुत्र को ले आये और युवराज घोषित क दिया। देवव्रत सुयोग्य और बुद्धिमान् थे। उनके नेतृत्व में सशक्त और सुव्यवस्थित साम्राज्य के संगठन की आशा बंधने लगी थी। लेकिन परिस्थितियों ने अचानक ऐसा मोड़ लिया कि योग्यता-क्षमता के बावजूद देवव्रत लाचार होकर रह गये।

राजा शान्तनु ने धीमक कन्या सत्यवती पर मोहित होकर उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। कन्या के पिता ने शर्त रख दी कि उसका पुत्र ही सत्ता का अधिकारी होगा। देवव्रत को युवराज घोषित किया जा चुका था, अतः यह वादा करना सम्भव नहीं था। शान्तनु दुःखी रहने लगे। समस्या का समाधान युवा देवव्रत ने ही किया। उन्होंने सत्ता स्वीकार न करने और आजीवन अविवाहित रहने का प्रण कर लिया। इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत को भीष्म कहा जाने लगा।

दूसरी रानी सत्यवती ने भी शान्तनु के दो पुत्रों चित्रांगद और विचित्रवीर्य को जन्म दिया। गन्धर्वों के साथ तीन वर्ष तक चले युद्ध में बड़े पुत्र चित्रांगद का वध इसी नाम के गन्धर्व ने कर दिया। अतः शान्तनु के सबसे छोटे पुत्र विचित्रवीर्य राजा बने। शान्तनु के ये दोनों पुत्र अयोग्य थे। कोई राजकुमारी उनसे विवाह करने को भी तैयार नहीं थी। देवव्रत भीष्म ने काशी नरेश की दो पुत्रियों अम्बिका और अम्बालिका का सेना के बल पर अपहरण कर लिया और अपने छोटे भाईयों का विवाह कर दिया। इस तरह अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना उस युग के क्षत्रियों में प्रचलित प्रथा थी। इसे राक्षस विवाह कहते थे। पर इस तरह विवाह अपहरण करने वाला ही करता था। लेकिन वे राजकुमार इतने निकम्मे और कायर थे कि स्वयं अपहरण भी नहीं कर सके। अम्बा और अम्बालिका ने इसी आधार पर देवव्रत भीष्म से कहा कि अपहरण तुमने ही किया है, अतः विवाह भी तम्हीं करो। लेकिन देवव्रत विवाह न करने का प्रण कर चुके थे।

इन अनैतिक विवाह से भी कोई लाभ नहीं हुआ और विचित्रवीर्य भी यक्ष्मा रोग से सन्तानहीन मर गये। अतिभोग विलास का यह स्वाभाविक परिणाम था। देवव्रत भीष्म ने नियोग व्यवस्था के तहत भी अम्बिका और अम्बालिका को पुत्र देना स्वीकार नहीं किया। तब रानी सत्यवती ने महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास से नियोग का अनुरोध किया। उन्होंने दोनो राजवधुओं से धृतराषट्र और पाण्डु तथा उनकी एक दासी से विदुर को जन्म दिया। इस प्रकार नियोग की प्रथा का सहारा लेकर कुरुवंश की रक्षा की गयी। महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास भी सत्यवती के ही पुत्र थे जो शान्तनु से विवाह के पहले ही उत्पन्न हुए थे। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे। उनका विवाह भी भीष्म ने सैनिक बल के सहारे गान्धार की राजकुमारी गान्धारी के साथ करा दिया था। पाण्डु छोटे थे किन्तु धृतराष्ट्र के अन्धे होने के कारण पाण्डु को राजा बनाया गया।

उल्लेखनीय है कि अपनी प्रतिज्ञा के कारण भीष्म सिंहासन पर कभी नहीं बैठे लेकिन राजा शान्तनु के बाद हस्तिनापुर साम्राज्य और राजपरिवार की सुरक्षा और व्यवस्था का वास्तविक दायित्व वे ही सम्भाले रहे। राजगद़्दी पर सत्यवती के वंशज ही बैठते रहे। विचित्रवीर्य के सन्तानहीन स्थिति में मर जाने पर भी भीष्म सिंहासन पर नहीं बैठे। उस दौरान प्रतीक सत्ता महारानी के पास रही और देवव्रत उनके आदेशानुसार शासन व्यवस्था का संचालन करते रहे। अतः पाण्डु को जन्म लेते ही राजा बना दिया गया था। उससे कम आयु में कोई भी शासक गद़्दी पर नहीं बैठा होगा क्योंकि ऐसा सम्भव ही नहीं है।

राजा पाण्डु किसी ऋषि के शाप से सन्तान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह गये थे। उनका विवाह वसुदेव की बहन कुन्ती के साथ हुआ था। कुन्ती भी विवाह से पूर्व एक पुत्र कर्ण को जन्म दे चुकी थी। यह अलग बात है कि वे कभी कर्ण को अपना पुत्र कहने का साहस नहीं जुटा सकीं। कुन्ती ने भी नियोग प्रथा का सहारा लेकर युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन को जन्म दिया। पाण्डु की एक और पत़्नी थी माद्री। उन्होंने भी नियोग के सहारे ही नकुल और सहदेव को उत्पन्न किया। इस प्रकार पांच पाण्डव कहलाये। धृतराष्ट्र और गान्धारी के पुत्र दर्योधन, युयुत्सु और दुःशासन थे।

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 द्वापर युग का अन्तिम चरण

      द्वापर युग की अन्तिम शताब्दी अनेक विचार धाराओं के बीच निर्णयक संघर्ष का समय था। देवव्रत भीष्म, कृष्ण द्वैपायन व्यास, वसुसेन कर्ण, धर्मराज युधिष्ठिर, युग पुरुष महानायक योगिराज वासुदेव कृष्ण, आचार्य द्रोण आदि केवल अपने समय के प्रमुख व्यक्ति की नहीं, विभिन्न प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि भी थे। तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं का ज्वलन्त उदाहरण हैं वीर यौद्धा कर्ण। कर्ण को जन्म देने वाली माँ कुमारी कुन्ती थी। वे वसुदेव की बहन और कृष्ण की बुआ थीं। कुन्ती के साथ सूर्य के विवाह पूर्व सम्बन्धों का परिणाम कर्ण थे। उस सम्बन्ध को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल सकी थी, इसलिए देवव्रत भीष्म कभी कर्ण का सम्मान नहीं कर सके। भीष्म और कर्ण एक ही पक्ष में धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के नेतृत्व में कार्य करते हुए भी कभी निकट नहीं आ सके। इसके विपरीत कृष्ण विरोधी पक्ष में होते हुए भी सदैव कर्ण का सम्मान करते रहे। इसी न्यायप्रियता और उदारता के कारण ही तो कृष्ण युगनायक बने।

         सूर्य पुत्र कर्ण को जन्म देकर पृथा कुन्ती ने उसे लकड़ी के सन्दूक में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया। स्पष्टतः माँ के रूप में उनकी इतनी इच्छा तो थी ही कि यदि कोई इस शिशु को जीवित बचा ले तो अच्छ है, लेकिन दूसरे पुत्र युधिष्ठिर के देवव्रत भीष्म से प्रभावित होने के कारण वे कभी कर्ण को अपना पुत्र कहने का साहस नहीं जुटा सकीं। सम्मानित कुल में जन्म लेने के बावजूद कर्ण उपेक्षित और निन्दित रहे। यह अलग बात है कि पृथा कुन्ती के शेष तीनों पुत्र भी उनके पति की सन्तान न होकर अन्य लोगों से ही उत्पन्न हुए थे। लेकिन नियोग प्रथा को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी थी, अतः युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन कुलीन राजकुमार कहलाये और सहज प्रेम की परिणति कर्ण को सूतपुत्र कहकर अपमानित किया गया। कुन्ती इस बात को छिपाकर अपना सम्मान बचाये रही और कर्ण अपमान सहते रहे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पृथा ही कुन्ती का बचपन का वास्तविक नाम था।

पृथा और वसुदेव के पिता शूरसेन के मित्र कुन्तिभोज सन्तानहीन थे। अतः उन्होंने पृथा को गोद ले लिया था, इसलिए पृथा को कुन्ती भी कहते हैं। पृथा द्वारा त्यागे गये कर्ण को अतिरथ ने पुत्र की तरह पाल लिया। अतिरथ की पत़्नी का नाम राधा था। इसलिए कर्ण को राधेय भी कहा जाता है। पृथा कुन्ती के पुत्र कर्ण राधा की गोद में पलकर बड़े हुए। कृष्ण भी माता-पिता से दूर किसी और की गोद में पले थे, अतः कर्ण का दुःख समझ सकते थे। अतिरथ सम्भवतः सूत या रथचालक थे, इसलिए कर्ण को सूतपुत्र के रूप में अपमान सहना पड़ा, लेकिन विष्णु पुराण के अनुसार अतिरथ भी चन्द्रवंश की अंग शाखा में थे। यह सम्भव है कि वे राजा न हों। विष्णु पुराण के अनुसार चन्द्रवंश में प्रमुख राजा पुरूरवा, आयु, नहुष, ययाति आदि हुए।

        ययाति के पांच पुत्र यदु, तुर्वसु, द्रुह़्य, अनु व पुरु थे। ययाति ने आज्ञाकारी होने के कारण सबसे छोटे पुत्र पुरु को उत्तराधिकारी बनाकर प्रतिष्ठान की केन्द्रीय सत्ता सौंपी और अन्य पुत्रों को क्षेत्रीय राजा बनाया। पुरुवंश सर्वाधिक प्रभावशाली रहा और भरत, सुदास् जैसे सम्राटों को जन्म दिया। शान्तनु, भीष्म, युधिष्ठिर आदि इसी वंश में हुए। यदुवंश भी अनेक शाखाओं में अपना प्रभावशाली अस्तित्व बनाये रहा, यद्यपि वह देश की राजनीति का केन्द्र नहीं बन सका। ययाति के चौथे पुत्र अनु के वंश में राजा बलि के पांच पुत्र अङ्ग, बङ्ग, कलिंग, सुह़्य और पौण्ड्र थे। इन सभी ने अपने-अपने नाम पर जनपदों की स्थापना की। अङ्ग के वंश में कई पीढ़ियों के बाद चित्ररथ हुए। उन्हें रोमपाद भी कहा गया। चित्ररथ रोमपाद अङ्ग देश के राजा थे। उनका उल्लेख बाल्मीकि ने रामायण में भी किया है। कर्ण का पालने करने वाले अतिरथ इन्हीं चित्ररथ रोमपाद के वंश में हुए थे, ऐसा विष्णु पुराण में उल्लेख है। इस प्रकार अतिरथ भी उच्चकुलीन थे। यद्यपि वे स्वयं राज नहीं ते और रथचालक के रूप में अपनी अजीविका चलाते थे। जो भी हो, अतिरथ ने कर्ण का पालन-पोषण भलीभांति किया, उन्हें श्रेष्ठ आदर्शवादी संस्कार दिये और उच्च सैनिक शिक्षा भी दिलायी।

कर्ण महान् शूरवीर, अप्रतिम धनुर्धर, अतुलनीय दानशील मानव रत़्न थे। कृष्ण, अर्जुन और भीष्म के अलावा कोई भी धनुर्धर उनका सामना करने का साहस नहीं कर सकता था। उन्होंने अनेक अवसरों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की थी। भीष्म के बाद हस्तिनापुर की राजसत्ता की रक्षा करने वाले वे सबसे महान् शक्ति थे। धृतराष्ट्र के शासनकाल में सभी विजय अभियान कर्ण के बल पर ही सम्पन्न हो सके थे।

अपने युग के तथाकथित सूतपुत्र कर्ण का चरित्र सर्वाधिक निष्कलंक था। कुछ आलोचकों का विचार है कि कर्ण ने साथी गलत चुना। लेकिन यदि परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाये तो उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। भीष्म और युधिष्ठिर जैसे परम्परावादी उन्हें सूतपुत्र कहकर अपमानित करते थे। आचार्य द्रोण केवल कुलीन क्षत्रियों के राजकुमारों को शिक्षा देने वाले वेतन भोगी शिक्षक बनकर रह गये थे। अर्जुन की श्रेष्ठता को चुनौती न मिले, इसलिए वे एकलव्य का अंगूठा कटवा लेते हैं।

अतः युद्ध विद्या में अर्जुन के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी कर्ण उनसे क्या अपेक्षा कर सकते थे। द्रोण के विरोधी पाञ्चाल नरेश द्रुपद अपनी पुत्री कृष्णा द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ कर चुके थे। अतः कर्ण के लिए वहाँ भी कोई स्थान नहीं था। अतः अपने समय के श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के सामने लाचार उनके जन्मजात प्रतिद्वन्द्वी और हस्तिनापुर में कुरुवंश की सत्ता के स्वाभाविक उत्तराधिकारी दुर्योधन ने जब उन्हें अपना मित्र बनाकर उनके गृहप्रदेश अङ्ग राज्य का राजा बना दिया, तब उन्होंने सच्चे मित्र की तरह आजीवन अपने उपकारी मित्र का साथ दिया। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि दुर्योधन हस्तिनापुर साम्राज्य के स्वाभाविक उत्तराधिकारी क्यों थे? धृतराष्ट्र बड़े थे और पाण्डु छोटे। इसलिए धृतराष्ट्र के बाद उन्हें ही राजा बनना था। यदि देवव्रत भीष्म उस साम्राज्य का विभाजन नहीं करते और बाद में हुए युद्ध में वे मारे नहीं जाते तो हस्तिनापुर साम्राज्य का सम्राट तो उन्हें होना ही था।

हस्तिनापुर के कुरुवंश का स्वाभाविक उत्तराधिकारी सम्राट होने के कारण ही देवव्रत भीष्म दुर्योधन का साथ देते थे। लेकिन वैचारिक निकटता के कारण वे युधिष्ठिर को अधिक चाहते थे। भीष्म इस बात को समझते थे कि दुर्योधन की उत्तराधिकारी सम्राट होंगे, अतः उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का विभाजन करके पश़्चिम क्षेत्र युधिष्ठिर को दे दिया। अपेक्षा यह की गयी होगी कि वह नया प्रान्त केन्द्रीय सत्ता के रूप में हस्तिनापुर को सम्मान देता रहेगा। लेकिन युधिष्ठिर स्वयम् सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए थे। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ नगर बसाकर समान्तर साम्राज्य खड़ा करने का प्रयास करना आरम्भ कर दिया। कृष्ण के पिता वसुदेव युधिष्ठिर के मामा थे और युधिष्ठिर की माँ पृथा कुन्ती कृष्ण की बुआ थीं। इसके अलावा कृष्ण की बहन सुभद्रा से अर्जुन ने प्रेम विवाह कर लिया था। अतः अर्जुन कृष्ण की फुफेरे भाई के साथ साथ बहनोई भी बन गये थे। इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण युधिष्ठिर को कृष्ण का समर्थन भी प्राप्त था। पाञ्चाल नरेश द्रुपद की कन्या कृष्णा द्रौपदी पाञ्चाली भी अर्जुन सहति पांच पाण्डवों की पत़्नी थीं। अतः पाञ्चाल का समर्थन भी युधिष्ठिर को मिला हुआ था। इन्द्रप्रस्थ, पाञ्चाल और द्वारिका से घिरा हुआ मत्स्य या विराट राज्य भी उनका समर्थक बन गया था। अतः पश़्चिमोत्तर भारत का विशाल क्षेत्र युधिष्ठिर को सम्राट बनाने में लगा था। मन से देवव्रत भीष्म का आशीर्वाद तो उनके साथ था ही। पूर्वी भारत के प्रान्तीय राजा परम्परागत रूप से हस्तिनापुर की केन्द्रीय सत्ता का समर्थन करते थे। काशी, कोशल, मगध, अङ्ग आदि प्रान्त दुर्योधन के समर्थ थे। कलिंग और प्राग्ज्योतिषपुर भी उसके साथ थे। इनमें अङ्ग नरेश कर्ण तो उनके व्यक्तिगत समर्पित मित्र थे ही। कर्ण अपना अपमान करने वालों को मजा चखाना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य की शक्ति का उपयोग किया। अपनी शक्ति से युद्ध जीतने का उन्हें उचित विश्वास था और साम्राज्य की सत्ता पर दुर्योधन के नैतिक अधिकार पर भरोसा था।

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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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