द्वापर युग में सूर्यवंश का पतन
द्वापर युग सत्ता का केन्द्र कुरु-पाञ्चाल प्रदेश रहा। इन प्रदेशों में चन्द्रवंश की विभिन्न शाखाओं का शासन था। यादव, वार्ष्णेय, पाञ्चाल, कौरव आदि प्रमुख राजवंश मूलतः चन्द्रवंश की ही विभिन्न शाखाओं के प्रतिनिधि थे। द्वापर युग इन्हीं राजवंशों के बीच सन्धि और विग्रह का इतिहास है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सत्ययुग के अन्त में हुए परशुराम और विश्वामित्र व्यावहारिक और गतिशील होने के कराण अपना महत्व बनाये रख सके जबकि कठोर परम्परावादी वशिष्ठ लुप्त हो गये। द्वापर युग में सूर्यवंश में लगभग तीन दर्जन पीढ़ियां हुईं लेकिन दशराज युद्ध के बाद उनमें कोई भी प्रतापी सम्राट नहीं हुआ। विभिन्न पुराणों में और कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में उन राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता है। कुश के शासन काल में ही विशाल साम्राज्य आठ बड़े स्वायत्तशासी प्रान्तों में विभाजित हो गया था। कुश केन्द्रीय सम्राट थे जिनका अपने चचेरे भाईयों द्वारा शासित प्रान्तों पर नाममात्र का ही अधिकार थआ। कुश के बाद केन्द्र की सत्ता धीरे-धीरे कमजोर होती चली गयी और परिणाम स्वरूप सुदास् के नेतृत्व में पाञ्चाल भारत का केन्द्र बन गया।
संस्कृत साहित्य के विद्वान् विद्यावाचस्पति ने लिखा है कि कालिदास ने रघुवंश के अन्तिम दो सर्गो में कुश के चौबीस उत्तराधिकारियों का उल्लेख किया है। उसमें कुश के पुत्र अतिथि को छोड़कर अन्य कोई भी ऐसा नहीं था जिसके विषय में कवि को दो-चार से अधिक श़्लोक कहने पड़े हों। वे सब सामान्य राजा थे। नल यौवन काल में ही राज्य का बोझ पुत्र पर डालकर वैरागी हो गये थे। परियात्र अत्यन्त भोग के कारण असमय में मर गये। ध्रुवसन्धि को शिकार का बहुत शौक था, वे शेर द्वारा मारे गये। सुदर्शन अभी आयु में छठवें वर्ष में ही थे कि मन्त्रियों ने देश को अराजकता से बचाने के लिए सिंहासनरूढ़ कर दिया। सुदर्शन बाल्यकाल में ही अनेक महान् पूर्वजों के सिंहासन पर आरूढ़ हो गये। यद्यपि उनकी आयु और शिक्षा अधूरी थी, तो भी कुल के प्रौढ़ संस्कारों के कारण उन्होंने राज्य के भारी बोझ को उठा लिया। इस विशेषता के कारण महाकवि कालिदास ने उन्हें विशेष सम्मान प्रदान किया है- रघुवंश में उसके सम्बन्ध में 19 पद्य हैं। सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण पूरी तरह अयोग्य निकले। कालिदास ने लिखा है कि कुछ समय तो अग्निवर्ण ने अपने पिता के अनुरूप कुशलता से राज्य का संचालन किया, परन्तु उसके पश़्चात् उन्हें कामुकता ने दबा लिया। उन्होंने राज्य का कार्य अपने मन्त्रियों पर डालकर यौवन स्त्रियों को अर्पण कर दिया। अग्निवर्ण राज्यक्ष्मा रोग (टी.बी.) का शिकार हो गये और सन्तानहीन मर गये। प्रजा में क्षोभ के भय से उनका अन्तिम संस्कार राजमहल के उद्यान में ही कर दिया गया। मन्त्रियों ने ऐसी स्थिति में अग्निवर्ण की रानी को ही राज सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया। कालिदास के अनुसार उस समय रानी गर्भवती थीं। उन्हें पहली महिला शासक कहा जा सकता है। अग्निवर्ण की रानी के उत्तराधिकारी पुत्र का नाम शीघ्रग था। उनके बाद द्वापर युग में इस वंश में दस राज और हुए। द्वापर के अन्त में हुए महाभारत युद्ध में सूर्यवंश के प्रतिनिधि कौशल नरेश बृहद़्बल मारे गये थे।
द्वापर युग का इतिहास जानने से पूर्व त्रेतायुग पर पुनरावलोकन द़ृष्टि डाल देना उपयोगी होगा। त्रेतायुग में सूर्यवंश की पैतीस-छत्तीस पीढ़ियां हुईं। सामरिक द़ृष्टि से त्रेतायुग नये-नये हथियारों के विकास और दक्षिण एशिया में अन्तर्राष्ट्रीय युद्धों का युग था। नवीनतम शस्त्रास्त्रों का आयात-निर्यात भी होता रहा। मध्य एशिया के कश्यप सागर के तट पर वैकुण्ठ राज्य का उदय महत्वपूर्ण है। लंका में दशग्रीव रावण के नेतृत्व में भौतिकवादी राक्षस संस्कृति का उदय और विशाल साम्राज्य की स्थापना कर तत्कालीन विश्व की प्रमुख शक्ति के रूप में उभरना एक प्रमुख घटना है। थोड़े समय के लिए सही, राक्षस शक्ति का लोहा सभी को मानना पड़ा था। उसी के विरोध में चिर प्रतिद्वन्द्वी वशिष्ठ और विश्वामित्र आश्रमों में सहयोग बना जिसके प्रतिफल थे महानायक राम।
सामाजिक द़ृष्टि से वह युग विभिन्न वर्गों के मजबूती से उभरने का काल था। वंशानुगत शासन मजबूत होने से राजवंशीय शासक वर्ग का अलग अस्तित्व बन गया था। उन्हें वंश गौरव और कुलीनता का गर्व था और स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझने की भावना थी। विभिन्न ऋषिकुलों और आश्रमों के रूप में पुरोहित वर्ग भी प्रभावी और शक्तिशाली था। उनकी अवहेलना का साहस तो सम्राट भी नहीं कर सकते थे। जनता के लिए मूलभूत सुविधायें और सामरिक आवश्यकताओं के लिए शिल्पकार वर्ग अस्तित्व में आया। शिल्प कौशल और उद्योग व्यापार पनपने लगा। सैनिक अभियान, प्रशासन व्यवस्था और उद्योग व्यापार की आवश्यकताओं के अनुरूप आवागमन के साधन जैसे आधारभूत ढ़ांचे का विकास भी स्वाभाविक रूप से हुआ।
धार्मिक द़ृष्टि से त्रेतायुग यज्ञ प्रधान था। विभिन्न प्रकार के जटिल यज्ञों का विकास हो गया था। उनके विधि विधान से सम्पन्न कराने की योग्यता रखने वाला सीमित वर्ग था और उसका काफी महत्व था। सत्ययुग के वेदपाठ, स्वाध्याय तथा सहज ध्यान योग का स्थान जटिल कर्मकाण्डों ने ले लिया था। यज्ञों के अलावा सहज और सरल धर्म भी प्रचलित था, भले ही वह धारा क्षीण हो। महर्षि कपिल, ऋषि शम्बूक, करुणामूर्ति शबरी, सुतीक्ष्ण, महर्षि वाल्मीकि, महर्षि अगस्त्य तथा विश्वामित्र और परशुराम आश्रमों के अधिष्ठाता ऋषि सरल लोकधर्म के ध्वजवाहक प्रतिनिधि थे। इसका यह अर्थ नहीं कि ये लोग यज्ञ विरोधी थे। यज्ञ तो सत्ययुग में भी होते थे, लेकिन उनकी प्रणाली जटिल और तकनीकी नहीं थी।
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सुदास् के बाद का भारतवर्ष
द्वापर युग में सबसे अधिक प्रभावशाली कुरुवंश की सत्ता रही। उस काल में विभिन्न जनपदों पर चन्द्रवंश की ही विभिन्न शाखाओं का शासन रहा। दशराज युद्ध के नायक सुदास् के वंश में सहदेव, सोमक, पृषत्, द्रुपद, धृष्टकेतु आदि प्रमुख पाञ्चाल नरेश हुए। हस्तिनापुर, काशी, शूरसेन (मथुरा) अङ्ग, बङ्ग, कलिंग, पौण्ड्र, सुध्य, चम्पा, मगध, केकय, मद्र आदि विभिन्न महाजनपदों पर चन्द्रवंश की शाखाओं का राज्य था। कौशल जनपद में सूर्यवंश का अस्तित्व बना रहा। चन्द्रवंश की प्रमुख शाखाओं में पाञ्चाल, मगध, कुरु, यादव, काशेय, अन्धक, वृष्ण आदि प्रमुख थीं।
चन्द्रवंश की सबसे प्रभावी शाखा पुरुवंश रही। दुष्यन्त और भरत पुरुवंश में ही हुए। भरतवंश में ही सम्राट हस्तिन् हुए जिन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य की नींव डाली। हस्तिन् के पुत्र अजमीढ़, द्विजमीढ़ और पुरमीढ़ थे। इनमें अजमीढ़ का वंश अधिक प्रभावी रहा। उनके तीन पुत्र ब्रह़्मदिव, नील व ऋक्ष थे। नील का वंश पाञ्चाल का शासक हुआ। दशराज युद्ध के नायक सुदास् इसी नील के वंशज थे। ऋक्ष का वंश हस्तिनापुर में शासन करता रहा। इसी ऋक्ष के वंश में संवरण और कुरु हुए। सुदास् के साथ युद्ध में संवरण पराजित हुए थे। उसके बाद उसके वंशज कुरु ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और पाञ्चाल के उत्तर का विशाल क्षेत्र उनके नाम पर कुरुक्षेत्र कहा जाने लगा। उनकी राजधानी हस्तिनापुर थी। कुरु के बाद द्वापर युग में उनकी कम से कम बीस पीढ़ियों ने हस्तिनापुर में शासन किया। भीष्म, युधिष्ठिर आदि महाभारत युद्ध के मुख्य पात्र इसी वंश में हुए।
पुराणों में मगध, पाञ्चाल और काशेय राजाओं की वंशावलियां सुरक्षित हैं। पुराणकारों ने कम से कम प्रमुख राजाओं के नाम तो लिख ही दिये हैं। यदुवंश भी चन्द्रवंश की ही एक अन्य मुख्य शाखा है। यदुवंश के अन्तर्गत ही अन्धक, वृष्णि, हैहय, मधु, अनु, महाभोज आदि उपशाखायें भी थीं। द्वापर के युगावतार और महाभारत युद्ध के मुख्य नायक वसुदेव पुत्र कृष्ण यदुवंश में हुए थे।
मिथिला या जनकपुर का निमिवंश भी महत्वपूर्ण है। इस वंश को भी इक्ष्वाकुवंश की ही शाखा माना गया है। त्रेतायुग नायक राम की पत़्नी सीता के पिता सीरध्वज जनक इसी वंश के थे। निमिवंश की तिरेपन पीढ़ियों की सूची हमारे पास उपलब्ध है। सूची में निमि से प्रारम्भ कर सीरध्वज जनक का क्रम बाइसवां है। सीरध्वज के पुत्र का नाम भानुमान् था जो सीता के भाई थे। कालक्रम के अनुसार यदि उनको त्रेतायुग का अपने वंश में अन्तिम राजा मान लिया जाये तो उनके बाद हमें कुल तीस पीढ़ियों के राजाओं के नाम मिलते हैं। यदि यह सूची लगभग पूर्ण मानी जाये तो माना जाना चाहिये कि ये सभी राजा द्वापर युग में हुए थे। इस वंश के अन्तिम राजा का नाम कृति मिलता है। यदि यह उल्लेख मिल जाये कि कृति ने महाभारत युद्ध में भाग लिया था तो काफी कुछ निश़्चयपूर्वक कहा जा सकेगा। निमिवंश का महत्व राजनीतिक रूप से तो नहीं, पर विद्वानों के आश्रय के लिए सर्वोच्च रहा। मगध का राजवंश भी कुरुवंश की ही एक शाखा थी जिसमें महाभारतकालीन सम्राट जरासन्ध थे। हस्तिनापुर शाखा के कुरुवंश में जह़्म, सुरथ, विदुरथ, सार्वभौम, जयत्सेन, आराधित, आमुतोष, अक्रोधन, देवातिथि, ऋक्ष(द्वितीय), भीमसेन, दिलीप आदि प्रमुख सम्राट द्वापर युग के मध्यकाल में हुए। द्वापर युग का अन्तिम चरण घटना प्रधान रहा और वह हमारे पास विस्तृत रूप से उपलब्ध भी है।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………