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राम का अन्तिम समय

और

उत्तराधिकारी

 

 जीवन भर साहस के साथ संघर्षों से जूझने वाले राम का साहसी हृदय सीता और लक्ष्मण के बलिदान को सहन नहीं कर सका। वे भीतर से पूरी तरह टूट चुके थे। अब तक राम काफी वृद्ध भी हो चले थे। अतः उनकी समझ में यह सुरक्षित मार्ग दिखा कि उन्होंने भरत और शत्रुघ्न को वानप्रस्थ लेने की सूचना भेज दी। पता नहीं लक्ष्मण का वियोग नहीं सह सके या कठोर मर्यादावादियों का विरोध असहनीय लगा, राम को जैसे यह जीवन ही भार लगने लगा। शत्रुघ्न मधुपुरी से अयोध्या पहुंचे। राम, भरत और शत्रुघ्न वानप्रस्थ के लिए चले। सब ने सरयू नदी में स्नान कीया। यहाँ तक बड़ी संख्या में नागरिक भी साथ आये। लेकिन वह सरयू स्नान ही राम के संघर्षशील जीवन का अन्तिम संघर्ष था। कह नहीं सकते कि नदी के प्रवाह और लहरों से संघर्ष में हार गये या जानबूझकर स्वयं को उसके हवाले कर दिया। वानप्रस्थ की परम्परा निभाने के लिए कोई भी वहां से जीवित आगे नहीं बढ़ सका, सरयू में ही जलसमाधि बन गयी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम पत़्नी और भाईयों सहित मर्यादा की भेट चढ़ गये। कुश को कुशावती में और लव को श्रावस्ती में नियुक्त किया गया। वहीं राम ने महर्षि अगस्त्य से मिला दव्य कंकण कुश को सौंपा था। कुश राम के उत्तराधिकारी सम्राट बने। उन्होंने अयोध्या का त्याग कर दिया और इस प्रकार अयोध्या का वैभव उजड़ गया और नगर वीरान हो गया।

राम त्रेता युग के नायक थे। अतः राम के ऐतिहासिक महत्व तथा समय पर भी विचार करना आवश्यक है। राम त्रेतायुग के अन्त में हुए ते। अतः राम का समय लगभग 6200 वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए। राम के समय में यज्ञीय कर्मकाण्ड बहुत व्यापक और बाध्य धर्मकर्तव्य थे। उसकी मर्यादा से बाहर जाना प्रतिष्ठित परम्परावादी पुरोहित वर्ग को असहनीय था। सैनिक शक्ति बहुत महत्वपूर्ण थी। नये-नये शस्त्रास्त्रों का विकास और निर्माण हो रहा था। साथ ही उन्नत शस्त्रास्त्रों का निर्यात-आयात भी किया जाता था। इन्द्रलोक और विष्णुलोक युद्ध सामग्री के निर्यातक थे। शासक प्रमुख ऋषियों की अवहेलना नहीं कर सकते थे। ऋषियों का प्रभाव राज्य की सीमाओं में बंधा हुआ नहीं था। उनका महत्व भारत की सीमाओं के बाहर भी था। ऋषियों के आश्रम ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और शोध के केन्द्र थे। उनके शोध और शिक्षण में युद्ध कला और शस्त्रास्त्र निर्माण भी शामिल थे। राजतन्त्र पर धर्मतन्त्र का अंकुश भी रहता था। बाद में कुश ने अयोध्या को पुनः राजधानी बना लिया। कुश को उत्तराधिकार में व्यवस्थित और सुरक्षित साम्राज्य मिला था। गान्धार और सप्त सैन्धव प्रदेश भरत के दोनों पुत्रों तक्ष और पुष्कल के शासन में थे। ब्रज प्रदेश पर शत्रुघ्न के पुत्रों का अधिकार था। शत्रुघ्न ने अपने पुत्र सुबाहु को मधुपुरी में नियुक्त किया और पुत्र शत्रुघाती को विदिशा में। लक्ष्मण के पुत्र अंगद और चन्द्रकान्त को कारुपथ का राज्य मिला था। वह कारुपथ प्रदेश कहां था, यह स्पष्ट नहीं है। कुशावती नगरी विन्ध्य प्रदेश या मध्य भारत में स्थित थी। इस पीढ़ी के सभी आठ राजकुमारों के पास अपने-अपने राज्य थे। राम का भारतीय साम्राज्य आठ प्रदेशों में विभाजित हो गया था। कुश पूरे राष्ट्र के संघीय केन्द्रीय शासक या चक्रवर्ती सम्राट थे।

कुश का विवाह नाग शासक कुमुद की कन्य कुमुदवती के साथ हुआ था। नागवंशीय कुमुद का क्षेत्र सरयू के निकट गोनर्ड (गोण्डा) क्षेत्र था। इस उत्तर कौशल प्रदेश के क्षेत्रीय महाराज लव थे। कुश के शासन काल में भी असुर सम्राट दुर्जय ने इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इन्द्र ने कुश को सहायता के लिए बुलाया। कुश ने वीरतापूर्वक युद्ध किया और दुर्जय को मार गिराया, पर स्वयं भी उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। यह सूचना मिलने पर कुश के पुत्र अतिथि का राज्याभिषेक कर दिया गया। इस अवसर पर बन्दियों को छोड़ दिया गया और अनेक लोगों के मृत्युदण्ड क्षमा कर दिये गये। अतिथि ने अश्वमेघ यज्ञ किया और उस दौरान दिग्विजय के लिए सफल युद्ध भी किये। अतिथि के शासनकाल में शक़्ति तथा प्रशासन व्यवस्था अच्छी स्थिति में बनी रही। उन्होंने गुप्तचर व्यवस्था मजबूत की। शत्रुओं और मित्रों के बीच गुप्तचर कार्यरत थे। वे गुप्तचर आपस में भी परिचित नहीं होते थे। सबकी अलग-अलग सूचनाओं से तथ्य और स्पष्ट हो जाते हैं। मित्र राज्यों और प्रान्तीय शासकों को उन्होंने इतना शक्तिशाली कभी नहीं होने दिया जिससे वे केन्द्रीय सत्ता के लिए खतरा बन सकें। उन्हें इस स्थिति में ही रखा गया कि वे केन्द्र की सहायत कर सकें।

अतिथि का विवाह निषध देश की राजकुमारी के साथ हुआ था। उनके पुत्र का नाम भी निषध रखा गया। वे भी योग्य पिता के योग्य पुत्र थे। लेकिन इतना स्पष्ट है कि अतिथि के शासन काल में चक्रवर्ती सत्ता उतनी सुरक्षित नहीं रह गयी थी। अति सावधानीपूर्वक बनायी गयी गुप्तचर व्यवस्था अतिथि की प्राशासनिक योग्यता को तो स्पष्ट करती है, लेकिन इससे यह भी संकेत मिलता है कि विद्रोहों और षड्यन्त्रों की आशंका रहती थी। दशरथ के समय में लंका के विरुद्ध वशिष्ठ और विश्वामित्र कुलों में जो एकता उत्पन्न हो गयी थी, वह राम के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में टूटने लगी थी। कुश को वाल्मीकि का संरक्षण प्राप्त था, अतः उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। लेकिन उसके बाद स्थितियाँ बदलने लगी। अतिथि के बाद साम्राज्य में कमजोर बिन्दु पनपने लगे।

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सुदास् और दशराज युद्ध

वशिष्ठ और विश्वामित्र आश्रमों के बीच प्रतिद्वन्द्विता के कारण भारत को विनाशकारी गृहयुद्ध झेलना पड़ा। वह महायुद्ध प्राचीन साहित्य में ‘दशराज युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। दशराज युद्ध के नायक भरतवंशी पाञ्चाल नरेश सुदास् थे। उनका संक्षिप्त वंश परिचय जान लेना भी उपयोगी होगा। त्रेतायुग के पहले चरण में चन्द्रवंश की एक शाखा में महान् राजु पुरु हुए। पुरु की सोलहवीं पीढ़ी में दुष्यन्त पुत्र चक्रवर्ती भरत हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। भरत की पांच पीढ़ियों के बाद प्रसिद्ध सम्राट हस्तिन् हुए जिन्होंने हस्तिनापुर नगर बसाया जो शताब्दियों तक देश की राजधानी बना रहा। हस्तिन् की दस पीढ़ियों के बाद उस वंश में राजा दिवोदास हुए। दिवोदास की बहन अहल्या थीं जिनका विवाह महर्षि गौतम के साथ हुआ था। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजा दिवोदास राम के समकालीन थे। दशराज युद्ध के नायक इसी दिवोदास के प्रपौत्र सुदास् थे।

दिवोदास के पुत्र मित्रायु हुए। उनके पुत्र च्यवन थे तथा इसी च्यवन के पुत्र सुदास् हुए। सुदास् को पिजवन का पुत्र भी कहा गया है। हो सकता है कि च्यवन के पुत्र पिजवन हों और उनके पुत्र सुदास्। सूची में पिजवन का नाम छूट गया होगा। वैसे भी पुराणकार केवल मुख्य-मुख्य राजाओं की सूची प्रस्तुत करने का दावा करते हैं। इससे समझा जा सकता है कि सूची तैयार करते समय सूत और मागध लोगों को इस बात का अहसास था की राजाओं की सूची पूर्ण नहीं है और कुछ नाम बीच-बीच में छूट गये हैं। लेकिन इससे इतना स्पष्ट है कि सुदास् का समय राम की कुछ पीढ़ियों के बाद था। अधिकांश विद्वान राम के डेढ़ सौ वर्षों के बाद सुदास् का समय मानते हैं। आदि विश्वामित्र अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशियों के कुल पुरोहित थे। इस वंश के शासक सत्यव्रत त्रिशंकु का यज्ञ कराना जब वशिष्ठ ने अस्वीकार किया तब विश्वामित्र ने वह यज्ञ कराया। उसी के फलस्वरूप त्रिशंकु को स्वर्ग में स्थान मिला और उनके पुत्र हरिश़्चन्द्र राजा बने। सत्यव्रत त्रिशंकु से पूर्व वशिष्ठ ही इक्ष्वाकुवंश के कुलगुरु थे। बाद में जब वशिष्ठ पुनः अयोध्या राजवंश के कुलगुरु हो गये, तब विश्वामित्र ने चन्द्रवंशी राजाओं का आश्रय लिया। राम के पुत्र कुश ने विचारशील महर्षि वाल्मीकि को महत्व दिया और वशिष्ठ की उपेक्षा की। इससे मजबूर होकर वशिष्ठ ने चन्द्रवंश का प्रभाव जमाने का प्रयास किया। उन्हें कुछ सफलता भी मिली।

उल्लेख मिलता है कि वशिष्ठ ने सुदास् का राज्याभिषेक कराया था लेकिन सुदास् ने कुलगुरु विश्वामित्र को ही माना। विश्वामित्र व्यावहारिक और ओजस्वी थे। वे जड़ मर्यादावादी नहीं थे। इसलिए उनका महत्व बढ़ता गया। अब वशिष्ठ आश्रम के पास कोई राज्याश्रय नहीं रहा। वे लोग अवसर की तलाश में रहने लगे। उन्हें यह अवसर भी शीघ्र मिल गया। सुदास् पाञ्चाल के राजा थे। पुरुवंश की एक अन्य शाखा हस्तिनापुर में शासन कर रही थी। एक युद्ध में सुदास् ने हस्तिनापुर को पराजित कर दिया और उसके राजा संवरण को बुरी तरह घायल कर दिया। संवरण की इसी पराजय ने वशिष्ठ को अवसर दे दिया। वशिष्ठ ने उन्हें आश्रय दिया और संवरण की ओर से देश के अनेक राजाओं को संगठित कर सुदास् के विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार किया। इनमें दस राजा प्रमुख थे। उतः उस युद्ध को ‘दशराज युद्ध’ कहा जाता है। उनमें लगभग तीस राजाओं के नाम मिल जाते हैं। राहुल सांकृत्यायन ने भी माना है कि सुदास् निरंकुश शासक नहीं थे लोकतन्त्र तथा जनहित के प्रति निष्ठावान् थे। उन्होंने राजतन्त्र के साथ जनता पर भी पुरोहित वर्ग का बन्धन यथासम्भव ढ़ीला किया, इसलिए वे सफल रहे। वशिष्ठ द्वारा संवरण की सहायता के नाम पर सुदास् के विरुद्ध जुटायी गयी सेना ने सप्तसैन्धव प्रदेश में कई स्थानों मोर्चाबन्दी कर ली। उस सेना में यदु, तुर्वसु, अनु, मत्स्य, शिवि, वक्य, भलनसु, अलिन्, और विषाणी लोग सम्मिलित थे। उस युद्ध को तृत्सु-भरत युद्ध भी कहा गया है। भरतवंशी राजा सुदास् थे। संवरण भी भरतवंश की ही एक अन्य शाखा में हुए। दूसरे पक्ष में तृत्सु लोग प्रमुख थे। कुछ तृत्सु सुदास् के पक्ष में भी थे।

इस समय से लगभग छह हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रमुख नदी सरस्वती और परुष्णी (रावी) के क्षेत्र में प्रसिद्ध दशराज युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध के बारे में कुछ उपयोगी संकेत शतपथ’ और ‘ऐतरेय’ ब्रह़्मणों से मिलते है। इतिहास के विद्वान् एच0 एन0 वर्मा और अमृत वर्मा ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है डिसीसिव बैटिल्स ऑफ इण्डिया थ्रू दि एजेज। उसमें राम रावण युद्ध, सुदास् का दशराज युद्ध और महाभारत युद्ध सहित प्राचीन और आधुनिक काल के सभी महत्वपूर्ण युद्धों का वर्णन है। उन्होंने लिखा है कि उस विनाशकारी युद्ध में 47 हजार लोग मारे गये, सैकड़ों गांव उजड़ गये, अनेक किले भी ध्वस्त हो गये और बड़ी संख्या में मवेशियों की क्षति हुई। व्यापक विनाश के बाद सुदास् विजयी रहे और विरोधी संघीय सेना नष्ट हो गयी। संवरण घायल अवस्था में भाग गये और सिन्धु नदी के किनारे एक पुराने किले में छिपकर जान बचायी। वर्माद्वय ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि इसी युद्ध के बाद हमारे देश का नाम भारत पड़ा क्योंकि विजेता भरत के वंशज या भरतकुल के राजा थे।

भारत के इतिहास में इस युद्ध का महत्व बहुत अधिक है। इस युद्ध ने देश में राजनीति की दिशा और केन्द्र बदल दिया। इक्ष्वाकुवंश और अयोध्या का महत्व सदैव के लिए समाप्त हो गया। इस युद्ध के बाद अयोध्या या इक्ष्वाकुवंश में किसी महत्वपूर्ण शासक का नाम नहीं मिलता है। भारतीय सत्ता का केन्द्र अयोध्या के स्थान पर कुरु-पञ्चाल क्षेत्र हो गया। हमने उल्लेख किया है कि दशराज युद्ध में शामिल हुए लगभग तीस राजाओं के नाम मिलते हैं – ऐसा विभिन्न विद्वानों का विचार है। भारतीय संस्कृत के अध्येता सूर्यकान्त बाली ने भी ऐसा ही लिखा है, लेकिन उन राजाओं के नाम नहीं मिले जबकि उनके नामों का बहुत महत्व है।

यदि तीस राजाओं के नाम भी मिल जायें तो उपलब्ध विभिन्न वंशों की सूची में देखा जा सकता है कि वे राजा किन वंशों के थे। इससे कई राजाओं की समकालीनता भी तय हो जायेगी। साथ ही यह भी ज्ञात हो जायेगा कि अयोध्या के इक्ष्वाकुवंश की भूमिका इस युद्ध में क्या थी। उस वंस ने इसमें भाग लिया या नहीं और युद्ध में शामिल हुए तो किसकी ओर से? सुदास् के राज्य की सीमा कौशल राज्य से भी मिलती थी, यह निश़्चित उल्लेख है। महायुद्ध के बाद सुदास् ने पूर्व के कुछ राजाओं को पराजित किया था। अतः सम्भव है कि अयोध्या सुदास् के राज्य में शामिल हो गयी हो और वहां के राजा पाञ्चाल के अधीन हों। इस सम्भावना को इस तथ्य से बल मिलता है कि सुदास् के बाद महाभारत युद्ध तक अयोध्या में किसी प्रतापी राजा का उल्लेख नहीं है और तत्कालीन कोशल नरेश इक्ष्वाकुवंश के राजा वृहद़्बल ने महाभारत युद्ध में महत्वहीन सामन्त की तरह भाग लिया था। यदि सुदास् के दशराज युद्ध में अयोध्या का पतन न भी हुआ हो तो भी इतना निश़्चित है कि चक्रवर्ती सत्ता पाञ्चालों के पास आ गयी थी और कोशल एक साधारण महत्वहीन जनपद बनकर रह गया था।

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 दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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