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राम का शासनकाल

दशग्रीव रावण का शासन काल वास्तव में लंका का स्वर्णयुग था। अपराजेय सैनिक शक्ति, अतुल धन वैभव और व्यवस्थित शासन व्यवस्था लंका के लिए गर्व का विषय था। यदि भारत में रघुवंश की शक्तिशाली सत्ता न होती और केन्द्र थोड़ा भी कमजोर होता तो दशग्रीव हिमालय से महासागर तक एकछत्र राज्य स्थापित कर चुके होते। इतना भी कम नहीं है कि नर्मदा तक बढ़ते हुए शत्रुओं को रोकने का साहस दशरथ नहीं कर सके थे। यदि राम के नेतृत्व में लंका पर विजय न मिली होती तो मेघनाद के हांथों अयोध्या का पतन निश़्चित था। लेकिन राक्षस संस्कृति के भोगवाद और क्रूरता ने मित्रों से अधिक शत्रु बना लिये थे। उन सबने राम का साथ दिया और लंका के पतन के कारण बने। लंका का पतन उसकी सैनिक कमजोरी नहीं, विदेशनीति की असफलता थी।

राम ने छत्तीस वर्षों तक मर्यादा से बंधे रहकर राज किया। उनके शासन काल में सीता का निष्कासन, मथुरा और गान्धार) उत्तरी पंजाब से अफनगानिस्तान) के विद्रोहों का दमन और शम्बूक वध प्रमुख घटनायें हैं।

सीता निष्कासन – एक दिन दरबारियों ने राम को बाताया कि प्रजा में सीता को लेकर निन्दा फैल रही है। लोगों का कहना है कि एव वर्ष तक लंका में रहने पर सीता को स्वीकार कर लेना मर्यादा का उल्लंघन है और राम की यह कामुक आसक्ति है कि उन्होंने सीता को रख लिया। इससे इस रामराज की तथाकथित मर्यादा के स्वरूप की बानगी मिलती है। सीता के पूर्ण समर्पित पत़्नी और आदर्श प्रेयसी होने पर तो प्रश़्न उठाया ही नहीं जा सकता। राम ने भारी मन से लोकभय से सीता को छोड़ने का निर्णय लिया और यह कठोर कार्य लक्ष्मण को सौंपा गया। वे गर्भवती सीता को वाल्मीकि के आश्रम के निकट छोड़ आये।

विद्रोहों का दमन – हम जान चुके हैं कि मधुपुरी (मथुरा) में दानव मधु का राज्य था। उन्होंने रावण की रिश्ते की बहन कुम्भीनसी का अपहरण कर विवाह कर लिया था। मधु ने इन्द्र के विरुद्ध युद्ध में रावण का साथ दिया था। रावण के बाद राम ने स्वाभाविक ही उसे अयोध्या का राज्य माना। मधु तो शान्त रहे, लेकिन लवण ने विद्रोही तेवर दिखाने प्रारम्भ कर दिये। शत्रुघ्न सेना लेकर गये औऱ लवम को मारकर विद्रोह शान्त किया। राम ने शत्रुघ्न को मधुपुरी में प्रान्तीय शासक नियुक्त कियि।

अयोध्या से मधुपुरी जाते समय शत्रुघ्न एक रात वाल्मीकि के आश्रम में रुके। संयोगवश उसी दिन सीता ने जुड़वा बालकों को जन्म दिया। मधुपुरी में नियुक्ति होने के बारह वर्षों बाद शत्रुघ्न एक सप्ताह के लिए अयोध्या गये थे। रास्ते में वाल्मीकि आश्रम में उन्होंने राम के जीवन पर आधारित काव्य का गान सुना। सीता के पुत्र कुश और लव वाल्मीकि के संरक्षण में तैयार हो रहे थे।

केकय नरेश युधाजित् ने एक बार गन्धर्वों के विद्रोह की सूचना अयोध्या को दी। इस बार भरतको सेनापति बनाकर भेजा गया। केकय को इससे और भी प्रसन्नता हुई। भरत ने वीरतापूर्वक गन्धर्वों के विद्रोह का दमन किया और तक्षशिला तथा पुष्कलावर्त नामक नगरों की स्थापना कर वहाँ पर अपने पुत्रों तक्ष और पुष्कल को नियुक्त कर दिया और अयोध्या लौट गये। इसके बाद राम ने लक्ष्मण के दोनों पुत्रों अंगद और चन्द्रकेतु के बारे में विचार किया। भरत की राय से कारुपथ क्षेत्र में अंगदीप और चन्द्रकान्त नामक नगर बसाकर उन दोनों कुमारों को भी नियुक्त कर दिया गया।

सीता का आत्मोसर्ग – यदि अश्वमेघ का आयोजन न करे तो सम्राट कैसा, अतः राम ने भी अश्वमेघ यज्ञ किया। योजनानुसार वाल्मीकि ने कुश और लव को अयोध्या भेज दिया। वे गली गली में रामायण का गान कर रहे थे। उनकी चर्चा राज दरबार तक भी पहुंची और उन्हें बुलाया गया। उन्होंने सीता निष्कासन की करुण कथा मार्मिक स्वरों में सुनायी तो सार वातावरण  बोझिल हो गया। कुश और लव ने अपना परिचय वाल्मीकि के शिष्य के रूप में दिया था। रामायण गान से ही राम समझ गये थे कि ये दोनों बालक सीता के ही पुत्र हैं। उन्होंने दूतों को भेजकर सीता को बुलवाया। महर्षि वाल्मीकि की आज्ञा से उनके साथ सीता यज्ञ मण्डप में आयीं। अब तक सीता के प्रति माहौल बदल चुका था। जिस प्रकार राम ने सम्मान देकर अहल्या को समाज में प्रतिष्ठा दिलायी थी, उसी प्रकार वाल्मीकि ने सम्मान प्रदान कर सीता की पवित्रता को प्रमाणित किया तो राजा-प्रजा सब पानी-पानी हो गये। लेकिन अब सीता उस कथित मर्यादा का बोझ सहने के लिए तैयार नहीं थी। वे पहले ही बहुत सहन कर चुकीं थीं। मर्यादा के इस रूप को देखकर सीता ने वहीं प्राण त्याग दिये। 

शम्बूक वध तथा लक्ष्मण

का परित्याग

सीता निष्कासन के अलावा रामराज पर सबसे बड़ा कलंक है तपस्वी शम्बूक का वध। एक दिन राम की राजसभा में एक वृद्ध ब्राह़्मण ने आकर कहा कि मेरे बालक की अकाल मृत्यु हो गयी है। उसने विश्वासपूर्वक कहा कि मैने कभी कोई दुष्कर्म नहीं किया है, अतः इस बालक की अकाल मृत्यु तुम्हारे ही दुष्कर्मों के कारण हुई है। या तो तुम मेरे इस बालक को जीवित करो या मैं अपनी पत़्नी सहित राजमहल के द्वार पर प्राण त्याग दूंगा और तुम ब्रह़म हत्या के अपराधी माने जाओगे।

राम परेशान हो उठे। ब्रह़्महत्या के आरोप का फल होता मृत्यु दण्ड या उससे भी बुरी स्थिति में जीवन काटना। उन्होंने गुरु वशिष्ठ को बुलवाया। वे अपने समर्थक आठ अन्य ऋषियों के लेकर आये। उनमें न विश्वामित्र शामिल थे और न वाल्मीकि या भार्गव राम। मार्कण्डेय, मौद़्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, जाबालि, गौतम तथा नारद नाम के ऋषि उस दल में सम्मिलित बताये गये हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दूरदूर रहने वाले इन ऋषियों का उस दिन एक साथ अयोध्या आ जाना ही आश़्चर्यजनक है। राम ने वशिष्ठ के समक्ष अपनी समस्या रखी और कहा कि ब्राह़्मण राजभवन के द्वार पर धरना दिये हुए हैं। वशिष्ठ ने परम चतुरता का परिचय दिया। वे स्वयं कुछ नहीं बोले। सात प्रमुख ऋषि भी शान्त रहे।

नारद ने राम से कहा कि तुम्हारे राज्य में एक शूद्र कठोर तपस्या कर रहा है। इसी कारण बालक की अकाल मृत्यु हुई है। वशिष्ठ की इस बात में मौन सहमति थी। राम को मानना पड़ा। यदि शम्बूक का कोई दोष था भी तो राजा का उसे न रोक पाना किसी अन्य नागरिक के पुत्र की मृत्यु का कारणं कैसे बना? और उसी ब्राह़्मणं का बालक क्यों मरा? राज्य के किसी अन्य बालक की मृत्यु क्यों नहीं हुई। स्वयं शम्बूक ही क्यों नहीं मरे अथवा राजा के परिवार में कोई क्यों नहीं मरा? लेकिन मर्यादा की मूर्ति कुलगुरु वशिष्ठ की सहमति है तो मानना ही पड़ेगा। राम ने उस कथित अपराधी की खोज प्रारम्भ कर दी।अयोध्या के दक्षिण दिशा में शैवाल पर्वत के उत्तर में सरोवर के तट पर एक तपस्वी मिले। राम ने उनसे कहा कि हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले  तपस्वी! तुम धन्य हो। मैं दशरथ पुत्र राम तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूँ।

                तुम किस उद़्देश्य या फर के लिए अन्य लोगों के लिए दुष्कर तप कर रहे हो? राम ने यह भी कहा कि मुझे यह भी बताओ कि तुम ब्राह़्मण को या वीर क्षत्रिय अथवा वैश्य या शूद्र? उस तपस्वी ने कहा कि देवत्व पाने और स्वर्ग पर अधिकार करने के लिए तपस्या कर रहा हूँ और शूद्र हूँ। बस, राम ने उनकी बात पूरी होने से पहले ही तलवार से उनका सिर काट लिया। शम्बूक का सिर कटने पर देवों को प्रसन्नता हुई। उन्हें भय था कि कहीं वे दूसरे विश्वामित्र न बन जायें।स्पष्ट है कि विश्वामित्र और वाल्मीकि जैसे क्रान्तिकारी और चिन्तनशील ऋषि इस कृत्य का समर्थन नहीं कर सकते थे। सत्यकाम जाबालि भी शूद्र पुत्र थे। अतः या तो वशिष्ठ के साथ आये जाबालि कोई अन्य ऋषि थे या उन्हें धोखे में रखकर लाया गया था। शम्बूक के वध के समय देवराज इन्द्र अपने साथियों के साथ वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने राम को चाटुकारिता का परिचय देते हुए कहा कि आपने शम्बूक का वध करके देवों का महान् हित किया हा। अब हम लोग महर्षि अगस्त्य के आश्रम में जा रहें हैं, आप वहाँ चलिये।

                राम अगस्त्य के आश्रम में गये। एक दिन वहाँ रुके और अगले दिन अयोध्या वापस आ गये। ब्राह़्मण दम्पत्ति अपने बालक के साथ प्रसन्न थे।इस घटना को समझने के लिए सामाजिक इतिहास पर ध्यान देना होगा। सत्ययुग का समाज सरल था। बुद्धिजीवी समाज पर प्रभाव बनाये हुए थे। त्रेतायुग में जटिलता बढ़ी। युद्धों के कारण राजशक्ति का महत्व बढ़ा। राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाने लगा। अतः पुरोहित वर्ग को अपनी सत्ता और महत्ता बचाने की चिन्ता हुई। सरल प्राकृतिक धर्म के स्थान पर साधारण नागरिकों के मन में प्रभाव जमाने के लिए कर्मकाण्ड बढ़ने लगा। उन जटिल कर्मकाण्डों की विधि पुरोहित ही जानते थे। अतः बिना पुरोहितों के धार्मिक कार्य नहीं हो सकते थे। उसका ज्ञान प्राप्त किये बिना स्वयं धर्म साधना करना उस वर्ग की सत्त के लिए खतरा था। हाँ, यदि सत्यकाम जाबालि, कवच एलूष, महिदास एतरेय, तुर कावर्षय और अगस्त्य जैसे लोग शूद्र होने के बावजूद परम्परागत ज्ञान प्राप्त कर उनके विधि विधान का पोषण कर सकें तो उन्हें ऋषि के रूप में मान्यता मिल जाती है। लेकिन शम्बूक उस कर्मकाण्ड को अस्वीकार कर देते हैं तो षड्यन्त्र रचकर उनका वध करा दिया जाता है।भरत द्वारा गान्धार विद्रोह दमन के पूर्व शम्बूक वध और अश्वमेघ के दौरान सीता का प्राणत्याग जैसी घटनायें हो चुकी थीं।

                    मधुपुरी में विद्रोह दमन के बारह वर्षों बाद शत्रुघ्न अयोध्या आये थे और उसके बाद शम्बूक वध हुआ था। मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम के सभी कष्टों का कारण मर्यादायें रही रहीं। राजतिलक होते-होते चौदह वर्ष का वनवास हो या सीता जैसी समर्पित पत़्नी को गर्भवती अवस्था में घर से निकालने की मजबूरी या निर्दोष तपस्वी शम्बूक वध का जघन्य कार्य, सब कुछ मर्यादा की रक्षा के नाम पर करना पड़ा था।इसी मर्यादा का शिकार एक बार लक्ष्मण भी हुए। राम एक ऋषि से बात कर रहे थे और उस ऋषि ने लक्ष्मण से कह दिया था कि यदि कोई बीच में आया को उसकी हत्या कर देना। इसी बीच दूसरे ऋषि आ गये और उन्होंने कहा कि राम को इसी समय मेरे आने की सूचना दो। दोनों ही ऋषियों के आदेष का पालन होना था। लक्ष्मण ने राम को सूचना दी। राम के साथ वार्ता कर रहे ऋषि ने लक्ष्मण की हत्या करने का आदेश राम को सुना दिया। अब राम क्या करतेउन्होंने जीवन में पहली बार मर्यादा के बन्धन को कुछ ढीली करने का साहस किया। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि मेरे लिए तुम्हारा त्याग करना ही हत्या से कम कठिन नहीं है। मैं तुम्हारा त्याग कर रहा हूँ। तुम यहाँ से दूर चले जाओ। लक्ष्मण को अयोध्या छोड़कर जान पड़ा।एक प्रश़्न और उठता है कि क्या लंका में रावण की ऐतिहासिकता मानी जाती है?  उल्लेखनीय तथ्य है कि श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति रणसिंह प्रेमदास ने तीर्थनगर कटारा ग्राम में नौ फुट ऊंची रावण की प्रतिमा का अनावरण किया था। उसी स्थान पर रावण की जन्मभूमि मानी जाती है।

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             दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………

By Anil

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