राम विवाह तथा वनवास
जिस समय लंका की शक्ति चरम उत्कर्ष पर थी, अयोध्या राजकुमार राम के रूप में एक नन्हीं चुनौती आकार ले रही थी। लंका के विरुद्ध वशिष्ठ और विश्वामित्र कुल एक हो गये थे औऱ दशरथ को दोनों का समर्थन प्राप्त था। विश्वामित्र ने राम की प्रगति से संतुष्ट होकर उनको रणक्षेत्र में उतारने का निश़्चय किया। वे राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले गये तथा ताटका का वध कराया। ताटका यक्ष नारी थी, परन्तु अगस्त ऋषि से विरोध हो जाने के कारण लंका की राक्षस संस्कृति अपना ली थी और संरक्षण प्राप्त कर लिया था।
उसके बाद विश्वामित्र ने अपने आश्रम में यज्ञ प्रारम्भ किया। और राम-लक्षमण ने सुरक्षा का दायित्व सम्भाला। इसी बीच ताटका के पुत्र मारीच ने अपने साती सुबाहु के साथ आकर आक्रमण कर दिया। सुबाहु मारे गये और मारीच घायल होकर भाग निकले। बचे-खुचे उनके सैनिक भी भाग गये। इसी युद्ध में अयोध्या की ओर से लंका की राक्षस शक्ति की परीक्षा हो सकी, पहली चुनौती मिली। राम की सफलता से प्रसन्न विश्वामित्र ने राम को व्यापक संहार की क्षमता वाले अनेक शस्त्र दिये और युद्ध कला की श्रेष्ठ शिक्षा दी।
मिथिला से उन्ही दिनों विश्वामित्र को यज्ञ का निमन्त्रण मिला। वे राम और लक्षमण को साथ ले गये। रास्ते में एक सूना उजड़ा हुआ आश्रम मिला। विश्वामित्र ने बताया कि यह आश्रम पहले बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता था। महर्षि गौतम इसके कुलपति थे। एक बार छल से इन्द्र ने गौतम की पत़्नी अहल्या से बलात्कार किया। गौतम ने शाप दे देवराज इन्द्र को नपुंसक बना दिया और अण्डकोश नष्ट कर दिया। बाद में इन्द्र को बकरे के अण्डकोश को प्रत्यारोपण किया गया।
अहल्या पर भी व्यभिचारिणी होने का आरोप लगा और तत्कालीन सामाजिक मर्यादाओं के कारण गौतम को अपनी प्रिय पत़्नी का त्याग करना पड़ा। वे आश्रम छोड़कर चले गये और नया आश्रम स्थापित किया। अहल्या समाज से बहिस्कृत एकाकी जीवन व्यतीत करने लगीं। बाल्मीकि के अनुसार इन्द्र के साथ सहवास में अहल्या की स्वीकृति मानी गयी थी, इसलिए अहल्या को भी दण्ड मिला। लेकिन राम ने एक भूल के लिए इतनी बड़ी सजा को क्रूरता ही माना और वे अहल्या के आश्रम में गये। राम ने अहल्या को चरणस्पर्श करके सम्मान दिया और सामाजिक प्रतिष्ठा दिलायी। विश्वामित्र के साथ राम और लक्षमण अहल्या को लेकर गौतम के पास गये तो गौतम ने अपनी पत़्नी को स्वीकार कर लिया। जब चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र राम और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने सम्मान दे दिया तब अन्य लोगों को अपनाना ही पड़ा।
अहल्या प्रकरण समाज सुधार के क्षेत्र में राम का महत्वपूर्ण कार्य था। महर्षि गौतम और उनके पुत्र सदानन्द को अपार प्रसन्नता हुई तथा उन्होंने राम और विश्वामित्र की सराहना की। गौतम के दोनों आश्रम मिथिला राज्य में थे। उनके पुत्र सदानन्द मिथिला नरेश सीरध्वज जनक के राज पुरोहित हो गये थे। इन्द्र के दुराचार का भारत में घोर विरोध हुआ और उनका बहिष्कार कर दिया गया। इसी कारण से जब रावण ने इन्द्रलोक पर आक्रमण करके उन्हें बन्दी बनाया तब इन्द्र को भारत की सहायता नहीं मिल सकी। इससे पूर्व देवासुर संग्रामों में इन्द्र को भारत से सहायता मिलती रही थी। ऋषि भारद्वाज ने इन्द्र की पराजय को स्पष्ट रूप से दुराचार का फल बताया। अहल्या अपने युग की अपूर्व सुन्दरी थी। इन्द्र उनको पाना चाहते थे लेकिन उनका विवाह गौतम से हो जाने पर उन्हें काफी मलाल था। इसी असफल प्रेम का परिणाम था अहल्या बलात्कार प्रकरण। वे पुरुवंश की तीसवीं पीढ़ी के राजा बृहदश़्व की पुत्री और दिवोदास की बहन थीं।
अहिल्या को उनके पति और पुत्र के पास पहुंचाने के लिए विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण मिथिला गये। राजा सीरध्वज जनक ने बताया कि मेरी पालित पुत्री सीता को पाने के लिए कई राजा आये, लेकिन मेरी शर्त यह थी कि जो वीर शिव धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा, उसी के साथ सीता का विवाह करेंगे। जब राजागण शिव धनुष चढ़ा नहीं सके तब उन्होंने सेना सहित आक्रमण कर दिया। एक वर्ष तक वे घेरा डाले रहे। हमारी युद्ध सामग्री और सेना समाप्त होने की स्थिति में आ गयी। तब मैने देवों की सहायता ली और आक्रमणकारियों को पराजित कर भगा दिया। शिव धनुष हमारे पूर्वज देवरात को शिव ने दिया था। देवरात निमि वंश के छठवें और सीरध्वज जनक बाइसवीं पीढ़ी के राजा थे। राम ने शिव धनुष को उठाया और प्रत्यञ्चा खींची तो वह टूट गया। सीरध्वज जनक ने दूत भेजकर दशरथ को बुलवाया और राम के साथ सीता और दूसरी पुत्री उर्मिला के साथ लक्ष्मण का विवाह किया। सीरध्वज जनक के भाई कुशध्वज की पुत्रियों माण्डवी और श्रुतिकीर्ति का विवाह क्रमशः भरत और शत्रुघ्न के साथ कर दिया गया। राज दशरथ चारों बहुओं के साथ अयोध्या के लिए चल पड़े।
रास्ते मे ऋषि भार्गव राम मिल गये। निश़्चित रूप से वे सत्ययुग के जमदग्निपुत्र राम नहीं, उनके आश्रम के तत्कालीन अधिष्ठाता ऋषि थे, वशिष्ठ तथा विश्वामित्र की तरह ही। वशिष्ठ और दशरथ ने उनका सत्कार किया। वे शिव धनुष टूटने से क्रोधित थे। दशरथ ने भार्गव राम से अपने पुत्र राम के प्राणों की भीख मांगी। लेकिन भार्गव राम ने जैसे सुना ही नहीं। उन्होंने राम को अपना वैष्णव धनुष चढ़ाने के लिए चुनौती दी। राम ने मुस्कराकर वह धनुष उनके हांथों से लिया और प्रत्यञ्चा खींची। भार्गव राम ने राजकुमार राम की शक्ति को स्वीकार किया और वापस चले गये। केकय प्रदेश के राजकुमार युधाजित् अयोध्या आये और भरत तथा शत्रुघ्न को साथ लेते गये। राजा जनक के महल में ऋषि राम और लक्ष्मण संवाद केवल कल्पना है। शापवश अहल्या के पत्थर हो जाने की बात भी कवि की कल्पना ही है। बाल्मीकि के अनुसार उपेक्षित अहल्या के चरणस्पर्श कर राम ने उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दिलायी।
कुछ समय के बाद दशरथ ने राम को युवराज पद देने की घोषणा कर दी। भरत अपने नाना केकय नरेश अश़्वपति के पास ही थे। कैकेई और मन्थरा ने एक कूट योजना तैयार की। रानी कैकेई कोपभवन में जा बैठीं। उन्होंने याद दिलाया कि एक बार देवासुर युद्ध में दशरथ बुरी तरह घायल हो गये थे। उस युद्ध में कैकेई ने दशरथ के प्राण बचाये थे, इसलिए दशरथ ने दो वरदान देने का वचन दिया था। कैकेई ने दो वरदानों में भरत को युवराज बनाना और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया। राम, लक्ष्मण और सीता वन चले गये। अयोध्या का राजमहल पारिवारिक कलह का शिकार हो गया। षड्यन्त्र ने अयोध्या को जर्जर कर दिया। राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिया। पूरे साम्राज्य में विक्षोभ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। लक्ष्मण ने को बलपूर्वक राज्य पर अधिकार कर लेने की घोषणा दी लेकिन राम के धैर्य ने गृहयुद्ध रोका। भरत को ननिहाल से बुलाया गया। उन्होंने भी राज्य का त्याग करके स्थिति को सम्भाला। यदि भरत सत्ता सम्भाल लेते तो गृहयुद्ध होना तय था।
भरत ने स्थिति को समझा और राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट गये। राम को न लौटना था और न वे लौटे। अयोध्या लौटने पर राम की अपेक्षा त्याग भावना में पलड़ा भरत का ही भारी पड़ता। अतः राम और भरत दोनों ने त्याग का परिचय दिया। भरत ने शासन चलाया, लेकिन सिंहासन पर राम की पादुका रखकर। रक़्तपात रोकने का यही मध्यम मार्ग अचूक उपाय था। राम वनों में स्थित ऋषियों के आश्रमों में जाकर आत्मीयता बढ़ायी और समर्थन जुटाया। इसी बीच विराध नामक राक्षस ने सीता को पकड़ लिया। वह तुम्बरु नामक गन्धर्व था। कुबेर ने उसे निष्कासित कर दिया था। अतः विराध नाम से राक्षस बन गया था। राम ने बड़ी कठिनाई से उसे हराया और सीता को मुक्त कराया। लक्ष्मण ने उसे कब्र खोदकर दफना दिया था। इस घटना पर राम ने कहा कि कैकेई ने जिस उद़्देश्य से हमें वन भेजा था, वे संकट प्रारम्भ हो गये हैं। उन्हें केवल भरत को राज्य दिलाने से ही सन्तोष नहीं हुआ।
इन परिस्थतियों के बीच राम ने जिस तरह एक के बाद एक सफलतायें पायीं, उससे ऋषियों के साथ पराजित देवों को भी राम के अन्दर भविष्य की सम्भावनायें दिखायी पड़ने लगीं थीं। परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि राम के लिए वनवास भी वरदान बन गया और भरद्वाज, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि प्रमुख ऋषियों का समर्थन और सहायता प्राप्त हुई। अहल्या प्रकरण में महर्षि गौतम के हृदय में तो राम अपूर्व प्रतिष्ठा पा ही चुके थे।
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लंका शासित दक्षिण भारत में राम की विजय
चित्रकूट के आगे दक्षिण दिशा में बढ़कर राम ने गोदावरी नदी के निकटवर्ती पञ्चटी क्षेत्र में निवास करना प्रारम्भ किया। मार्ग में राम की भेट दशरथ के मित्र जटायु से हुई। वाल्मीकि ने उनका पूरा वंश परिचय दिया है। वे महर्षि कश्यप की एक पत़्नी विनता के दूसरे पुत्र अरुण के वंशज थे। विनता के एक पुत्र गरुड़ थे जिनके वंशज कश्यप सागर या क्षीर सागर के तट पर मध्य एशिया के वैकुण्ठ राज्य में विष्णु के साथ प्रमुख भागीदार थे। जटायु के बड़े भाई सम्पाति थे। इस प्रकार ऋषियों तथा जनजातियों के साथ सम्पर्क बढ़ाते हुए राम ने वनवास काल के तेरह वर्ष सकुशल बिता दिये।
एक दिन राम के आश्रम में सूर्पणखा आ पहुंचीं। उन्होंने राम से सीधा प्रश़्न किया कि मुनियों के तपस्वी वेश में, लेकिन धनुष बाण लिए हुए आप यहाँ क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि यह क्षेत्र लंका के राक्षसों के अधीन और उनके द्वारा सुरक्षित है। राम ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि किस प्रकार सौतेली माता कैकेयी के कारण वनवास काटना पड़ रहा है। सूर्पणखा के पति उनके भाई रावण के हाथों से ही मारे जा चुके थे। वे विधवा तो थी ही, उन्हें पारिवारिक कारणों से राम का वनवास अपने दुःख को ताजा करने वाला लगा। उन्होंने राम के साथ मित्रता की चरम परिणति के रूप में विवाह का ही प्रस्ताव रख दिया। राम को हंसी आ गयी। सूर्पणखा की आयु राम की तुलना में बहुत अधिक थी। वाल्मीकि ने उन्हें युवा राम की तुलना में उस समय वृद्धा बताया है। राम ने उन्हें परिहास में लक्ष्मण की कुटी में भेज दिया। लक्ष्मण ने स्वयं को राम का दास बताते हुए राम के पास वापस भेजा।
सूर्पणखा का प्रस्ताव था कि अपने राज्य से निकाल दिये जाने से आप दयनीय स्थिति में हैं और मेरे साथ विवाह करके इस दक्षिणापथ क्षेत्र के राजा हो जायेंगे। जब सूर्पणखा को यह अहसास हुआ कि उनके सहानुभूतिपूर्वक रखे गये प्रस्ताव का उपहास किया जा रहा है तो उन्होंने क्रोध में आक्रामक रूप ले लिया। अब तक राम की कुटी में लक्ष्मण भी आ चुके थे। लक्ष्मण ने तलवार खींच ली और सूर्पणखा के कान और नाक काटकर विश्वविजेता रावण को सीधी चुनौती दे डाली। सूर्पणखा बदहवास हो भागी अपने शिविर में गयीं। उनके भाई ऐर सेनापति खर ने उनकी हालत देखी तो क्रोध में कांप उठे। सूर्पणखा के नाक और कानों से बुरी तरह से खून बह रहा था। वे खर के सामने जमीन पर धड़ाम से गिर पडीं। धीरे-धीरे होश में आकर सूर्पणखा ने बताया कि दो युवक इस क्षेत्र में आ गये हैं। राजकुमार तो लगते हैं, पर मैं कह नही सकती कि व देव हैं या मानव। वे स्वयं को अयोध्या नरेश दशरथ का पुत्र बता रहे हैं। खर ने चौदह सैनिकों का एक दस्ता राम, लक्ष्मण और सीता के वध के लिए भेज दिया। लेकिन उन सबकी मृत्यु की सूचना देने के लिए केवल सूर्पणखा ही जीवित लौट सकी।
इस पर खर व दूषण ने पूरी सेना तैयार करने को कहा और स्वयं भी चौदह हजार सैनिकों के साथ युद्धक रथ पर बैठ आक्रमण के लिए चल दिये। लेकिन उनकी समस्या यह थी कि राम इन स्थितियों के लिए तैयार बैठे थे और उन्हे अचानक युद्ध का सामना करना पड़ा। राम ने महासंहारक अस्त्रों का प्रयोग किया और खर की सेना भाग खड़ी हुई। दूषण ने जोरदार हमला किया, पर वे भी मारे गये। इसके बाद खर ने स्वयं मोर्चा सम्भाला, लेकिन वे भी मारे गये।
इस विजय से दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भारत से राक्षसों के पैर उखड़ गये और राम का प्रभुत्व स्थापित हो गया। लंका के इस सैनिक शिविर के बावजूद अयोध्या उस क्षेत्र पर अपना अधिकार मानता था। राम ने व्यावहारिक रूप से उसे राक्षसों से मुक्त करा लिया। यह एक प्रकार से निर्णायक युद्ध था जिससे राम के रणकौशल की धाक जम गयी। वे भारत के लिए नायक और लंका के लिए खलनायक सिरदर्द बन गये।
इस विनाश का समाचार लेकर जनस्थान से अकम्पना लंका पहुंचे। उन्होंने बताया कि अधिकांश राक्षस सैनिक मारे गये हैं और मुझे जान बचाकर भागना पड़ा है। उन्होंने दशग्रीव से कहा कि राम और लक्ष्मण के साथ कोई सेना नहीं है लेकिन उनका अस्त्र-शस्त्र भण्डार उच्चकोटि का है। राम के साथ उनकी पत़्नी सीता भी है। सीता अति सुन्दर है। उनका अपहरण कर लें तो राम वैसे ही शक़्तिहीन हो जायेंगे।
रावण को याद आया कि राम ताटका का भी वध कर चुके हैं। अतः वे ताटका के पुत्र मारीच के पास गये ऐर सीता के अपरहण में सहयोग मांगा। मारीच स्वयं भुक़्तभोगी थे और उन्हें राम की सामरिक शक़्ति के विकास की भी जानकारी थी। उन्होंने दशग्रीव रावण को समझाकर वापस भेज दिया। इस प्रकार सीता अपहरण योजना ही निरस्त हो गयी। लेकिन लंका में सूर्पणखा खुद जा पहुंची। उन्होंने रावण को बुरी तरह से फटकारा और कहा कि आप विलास में लीन हैं और राज्य की व्यवस्था ध्वस्त हो गयी है। दक्षिण भारत हाथ से निकल गया है। जनस्थान सैनिक शिविर ध्वस्त कर दिया गया और गुप्तचरों ने आपको सूचना तक नहीं दी। जो राजा अपने खोये हुए प्रान्त को वापस पाने का प्रयत़्न नहीं करता, उस प्रजा बहुत दिन तक सहन नहीं करती है। सूर्पणखा ने भी रावण को सीता के अपहरण के लिए उकसाया। दशग्रीव एक बार फिर मारीच के पास गये और आदेश के स्वर में सहयोग के लिए कहा। मजबूरी में उन्हें साथ देना पड़ा। सीता अपने आश्रम में फूल चुन रही थी, जब उन्होंने स्वर्णमृग देखा। पूरे अधिकार से उन्होंने राम से उस मृग को जीवित या मृत अवस्था में लाने के लिए कहा। राम ने तलवार और धनुष उठाया और चले गये। जब मारीच ने राम की आवाज की नकल करते हुए ‘हा लक्ष्मण! हा सीते! की आवाज लगायी तो सीता ने लक्ष्मण को जबरन भेजा। उन्होंने कहा कि लगता है कि तुम चाहते हो कि राम किसी संकट में फंस जायें और तुम मुझे अपनी पत़्नी बना लो।
जो लक्ष्मण अपने भाई राम के लिए बलपूर्वक अयोध्या पर अधिकार करने को तैयार थे और जिन्होंने राज्य छोड़कर केवल राम और सीता की सेवा सहायता के लिए वनवास स्वीकार किया था, उन लक्ष्मण के प्रति ऐसे विचार का जो परिणाम होना था, वही हुआ। लक्ष्मण तो राम की खोज में चले गये और रावण राम के आश्रम में आ गये। मुनिवेशधारी रावण का सीता ने स्वागत किया। जब वे सन्तुष्ट हो गये कि सीता अकेली हैं तो उन्होंने अपना परिचय दिया और पटरानी बनाने का प्रस्ताव रखा। सीता ने उन्हें बुरी तरह फटकार दिया तो वे सीता का अपहरण करके ले गये। मार्ग में जटायु ने सीता को बचाने का प्रयास किया लेकिन रावण ने उन्हें बुरी तरह से घायल कर दिया। सीता ने ऋष्यमूक पर्वत पर कुछ लोगों को बैठे देखकर अपने वस्त्र और आभूषण रथ से फेंक दिये।
दशग्रीव रावण सीता को लेकर लंका पहुंचे। उन्होंने सबसे पहले जनस्थान में गुप्तचर नियुक़्त किये। विश्व विजय के उन्माद में सोये हुए दशग्रीव जगे और शासन व्यवस्था चुस्त करने लगे। इतना वे समझ ही रहे थे कि सीता अपहरण के बाद लंका को एक युद्ध लड़ना ही पड़ेगा। उन्होंने आठ प्रमुख सैनिक गुप़्तचरों को जनस्थान भेजा और राम की एक-एक गतिविधि पर नजर रखने के लिए आदेश दिया। उन्होंने गुप्तचरों को बताया कि जनस्थान सैनिक शिविर ध्वस्त कर दिया गया है, अतः वहाँ से कोई सहायता नहीं मिल सकेगी और आपको अपने ही भरोसे वहाँ पर रहकर कार्य करना पड़ेगा। वापस लौटने पर राम ने सीता को आश्रम में नहीं पाया तो उनकी खोज शुरू कर दी।
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