दशग्रीव का लंका पर अधिकार
कैकसी के पुत्रों पर ननिहाल के दैत्यवंशी राक्षसों का प्रभाव अधिक था। सुमाली ने एक योजना के तहत ही अपनी पुत्री कैकसी को विश्रवा की पत़्नी बनाया था। अन्यथा कैकसी रूपवती युवती थी और उस समय तक विश्रवा की आयु उनसे बहुत अधिक थी। सुमाली ने दशग्रीव, कुम्भकर्ण और सूर्पणखा को अपनी छाया से कभी अलग नहीं होने दिया। विभीषण कैकसी के ही नही, विश्रवा के भी सबसे छोटे पुत्र थे। उन पर पिता का प्रभाव अधिक पड़ा। वे शान्त प्रकृति के दयालु, अध्ययनशील व्यक्ति थे जबकि दशग्रीव का पालन-पोषण ही प्रतिशोध की भावना के तहत दुर्धर्ष योद्धा बनाने के लिए हुआ था। युवा दशग्रीव के भीतर प्रतिशोध की भावना कूट-कूट कर भरी गयी थी। उनका जीवन लक्ष्य लंका के खोये साम्राज्य को प्राप्त करना और देवों से बदला लेना था। दशग्रीव की सफलताओं से कुछ आश़्वस्त होकर उनके नाना सुमाली अपने मन्त्रियों मारीच, प्रहस्त, विरूपाक्ष और महोदर के साथ आकर मिले। उन्होंने दशग्रीव से अब लंका पर अधिकार कर लेने के लिए कहा। लेकिन लङ्का में लोकपाल के रूप में उनके सौतेले भाई कुबेर प्रतिष्ठित थे। दशग्रीव ने अपने बड़े भाई कुबेर से युद्ध करना स्वीकार नहीं किया। कुछ समय के बाद सुमाली के बड़े पुत्र प्रहस्त ने अपने भागिनेय दशग्रीव को समझाया। उन्होंने कहा कि राजनीति में कोई भाई नहीं होता है। कुबेर लोकपाल है और तुम वनों में भटक रहे हो। देवों से पीड़ित सम्पूर्ण राक्षस शक्ति तुम्हारे साथ है। दैत्य-असुरों का भी समर्थन तुम्हारे साथ रहेगा। उन्होंने कहा कि देव और असुर महर्षि कश्यप के ही वंशज हैं। पहले दैत्य, दानव और असुर ही प्रबल थे। विष्णु की सहायता से देवों ने शक्ति बढ़ा ली है। विष्णु के कारण ही दैत्य-राक्षसों को लंका का राज्य खोना पड़ा है। अतः भाई का मोह छोड़कर अपने भविष्य की चिन्ता करो। हम सब तुम्हारी सहायता करेंगे। लंका के सम्राट तुम्हीं होगे। राक्षस लोगों की खोयी प्रतिष्ठा तुम्हीं वापस ला सकते हो और देवों से बदला भी ले सकते हो। बहुत समझाने पर दशग्रीव युद्ध के लिए तैयार हो गये।
दशग्रीव के नेतृत्व में राक्षस सेना ने लंका की ओर कूच कर दिया। त्रिकूट पर्वत पर उस सेना ने डेरा डाला और स्वयं प्रहस्त दशग्रीव के दूत के रूप में लंका गये। उन्होंने कुबेर से कहा कि तुम्हारे भाई दशग्रीव ने यह सन्देश दिया है कि लंका पहले राक्षस वीरों की थी। अतः उन्हें वापस कर दो, यही उचित होगा। कुबेर ने भी उत्तर दिया कि जिस समय यह लंका राक्षसों से रहित थी, तब हमारे पिता विश्रवा ने मुझे यहाँ रहने का आदेश दिया था। मेरा राज्य और धन जो कुछ भी है, वह दशग्रीव का भी है। उन्हें पूरा अधिकार है कि वे हमारे साथ इसका उपभोग करें। दूत प्रहस्त को इस प्रकार कूटनीतिक उत्तर देकर कुबेर ने टाला और स्वयं पिता विश्रवा से परामर्श लेने गये। विश्रवा ने कुबेर को बताया कि दशग्रीव मुझसे भी यह प्रस्ताव रख चुका है। उचित यही होगा कि तुम उससे विरोध मत लो और कैलाश पर्वत पर नया नगर बसा कर रहो। कुबेर ने लंका को खाली कर दिया और कैलाश पर्वत पर अलकापुरी नाम से नगर बसाया। अलका कुबेर की पत़्नी का नाम था।प्रहस्त ने आकर दशग्रीव को यह सूचना दी। उसके बाद दशग्रीव के नेतृत्व में राक्षस सेना ने लंका में प्रवेश किया। वहाँ दशग्रीव का विधिवत् राज्याभिषेक किया गया। राज्य स्थापित हो जाने पर पूरे संसार में बिखरे और छुपे हुए राक्षस लोग आकर लंका में बस गये। दशग्रीव उन सबके लिए उद्धारकर्ता थे। वे राक्षस जाति के लिए तारणहार और पूज्य थे। राज्य स्थापना के बाद रावण ने राक्षस संस्कृति को व्यवस्थित रूप दिया। उन्होंने सभी नागरिकों को राक्षस संस्कृति में दीक्षित किया। सामाजिक दूरियाँ और मतभेद मिटाये और जातीय तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान से युक्त समाज बनाया। दशग्रीव रावण ने सबसे पहले अपनी इकलौती बहन सूर्पणखा का विवाह विद्युतजिह़्व के साथ किया। उसके बाद उनकी भेंट दानव मय से हुई। दानव मय का विवाह देव जाति की अप्सरा हेमा के साथ हुआ था। उनके दो पुत्र मायावी और दुन्दुभि थे। मय ने अपनी पुत्री मन्दोदरी का विवाह दशग्रीव के साथ कर दिया। उन्होंने एक अमोघ शक्ति भी दशग्रीव को दी। दशग्रीव ने कुम्भकर्ण का विवाह विरोचन कुमार बलि की दौहित्री वज्रज्वाला से किया। विभीषण का विवाह गन्धर्वराज शैलूष की कन्या सरमा से हुआ था। कुछ समय बाद मन्दोदरी ने वीर बालक मेघनाद को जन्म दिया। आन्तरिक व्यवस्थाओं से निश़्चिन्त होकर दशग्रीव ने सैनिक शक्ति को सुद़ृढ़ किया। लंका द्वीप राज्य है, अतः उन्होंने जल सेना पर विशेष ध्यान दिया और आसपास द्वीपों पर विजय पताका फहरायी। आस्ट्रेलिया और अफ्रीका के बीच पूरे महासागर पर लंका की जलसेना का वर्चस्व स्थापित हो गया। उसके बाद उन्होंने अपने प्रमुख शत्रु देवों पर ध्यान केन्द्रित किया। लंका ने देवों के राज्य त्रिविष्टप पर छुटपुट छापामार हमले किये। इससे देव विक्षुब्ध हो गये। एक दिन कुबेर ने दूत भेजकर दशग्रीव को उपद्रव रोकने के लिए मनाने का प्रयास किया। उन्होंने यह भी बताया कि देवगण लंका के विरुद्ध अभियान की तैयारी कर रहे हैं। दशग्रीव ने इस सन्देश को स्पष्ट धमकी समझा और दूत का वध करके कुबेर पर आक्रमण के लिए निकल पिड़े। उनके साथ प्रहस्थ, महोदर, मारीच, शुक्र, सारण और धूम्राक्ष आदि प्रमुख महारथी थे। घनघोर युद्ध में हजारों लोग हताहत हुए। दशग्रीव ने कुबेर को घायल कर अलकापुरी पर अधिकार कर लिया और पुष्पक विमान लेकर लौटे। मार्ग में उनका विमान शिव के गणों ने रोक दिया। इस पर विजयी योद्धा दशग्रीव को क्रोध आना स्वाभाविक था। उनकी विजयी बाहों की उत्साही शक्ति से मानो पर्वत हिलने लगा, लेकिन शिव उन्हें परास्त करने में सफल रहे। शिव ने उनकी वीरता से प्रसन्न होकर उनको चन्द्रहास नामक शस्त्र दिया और उनके संरक्षक मित्र हो गये। वाल्मीकि ने लिखा है कि शिव के गण छोटे कद के, छोटी बाहों वाले और पीले रंग के थे। ये लक्षण उस क्षेत्र से आगे रहने वाले चीनी लोगों से मिलते हैं। इसके बाद हिमालय के वन क्षेत्र में दशग्रीव ने देववती नाम की एक कन्या के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया तो उसने आग लगाकर आत्महत्या कर ली। वेदवती कुशध्वज ऋषि की पुत्री थीं और विष्णु से प्यार करती थीं। उनके पिता का वध शम्भू नामक दैत्य राजा ने किया था। ऐसा सम्भव है कि देवासुर संग्रामों के बीच उत्तर पश़्चिमी हिमालय के कुछ क्षेत्रों पर दैत्यों का अधिकार हो गया हो। शम्भू ऐसे ही एक राजा होंगे। वे भी वेदवती को चाहते थे। लेकिन इस प्रेम में असफल रहने के क्रोध में उन्होंने कन्या के पिता कुशध्वज की हत्या कर दी। कुशध्वज को बृहस्पति का पुत्र और देवगुरू बृहस्पति के समान बुद्धिमान् कहा गया है। इसके बाद दशग्रीव की सेना मध्य एशिया के उशीरबीज देश में पहुंची। उस देश की समानता वर्तमान अजरबेजान भी मानी जाती है। वहाँ के राजा मरुत्त थे। दशग्रीव के आक्रमण के समय वे यज्ञ कर रहे थे। पुरोहितों ने यज्ञ मण्डप से उठकर युद्ध करने से मरुत्त को रोक दिया। लेकिन रावण ने उन ऋषियों के रक्त से चन्द्रहास की प्यास बुझायी और वहाँ आये प्रमुख देवगणों को जान बचाकर भागना पड़ा। इन्द्र, कुबेर, वरुण, धर्मराज आदि प्रमुख देवों की उपस्थिति से प्रतीत होता है कि उशीरबीज प्रदेश भी देवलोक का ही भाग था।
दक्षिण भारत के पश़्चिमी समुद्र सिन्धु सागर (वर्तमान नाम अरब सागर) के तट पर दलजा व फरात नदियों की घाटी के पूर्व में यम लोक था। यम को भी सूर्यवंशी राजा कहा गया है। रावण ने देवों के सभी लोकपालों को जीतने का प्रण किया था। इसलिए उनका विजय अभियान अपने भाई कुबेर से प्रारम्भ हुआ था। यम भी लोकपाल थे। अतः दशग्रीव ने उन पर भी आक्रमण कर दिया। यम अत्यन्त कठोर क्रूर प्रशासक थे। अतः लोग उन्हें साक्षात् मृत्यु समझते थे। दशग्रीव ने स्वयं देखा कि वहाँ जगह-जगह मानव यातना केन्द्र थे और लोगों को अमानवीय यातनायें दी जा रही थीं। यह सब कुछ वैध कानून के शासन के नाम पर होता था। दशग्रीव ने उन लाखों लोगों को मुक़्त करा दिया। लोग बहुत सुखी हुए। रावण उनके लिए भी त्राता बन गये। यम की सेना ने भयंकर युद्ध किया। दशग्रीव का पुष्पक विमान तोड़ डाला गया। राक्षस सेना ने भी राजधानी में भयानक तोड़-फोड़ की। युद्ध में दशग्रीव का कवच कट गया और वे बुरी तरह से घायल हुए लेकिन अन्त में यम भी युद्ध क्षेत्र से भाग गये तथा दशग्रीव रावण विजयी रहे।
लंका का स्वर्णयुग – इन्द्र पर विजय
यम पर विजय के बाद दशग्रीव का साहस काफी बढ़ा हुआ था। वे युद्ध में में बुरी तरह से घायल और शरीर से जर्जर हो चुके थे, लेकिन विजय अभियान का उत्साह कम नहीं हुआ। स्वास्थ्य लाभ के बाद दशग्रीव ने समुद्री अभियान प्रारम्भ किया। उस समुद्री क्षेत्र में दैत्य और नागजाति का बाहुल्य था तथा केन्द्रीय सम्राट वरुण थे। दशग्रीव का युद्ध पहले नाग बहुल भोमवती पुरी में हुआ था। उस पर अधिकार करने के बाद दशग्रीव ने मणिमयी पुरी में घेरा डाला। वहां पर निवातकवच नामक दैत्यवंश की शाखा का राज्य था। वे बड़े पराक्रमी और शक्तिशाली थे। एक वर्ष तक दोनों पक्षों में भीषण युद्ध चला, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। उसके बाद दोनों में मैत्री सन्धि हो गयी। दशग्रीव ने सेना सहित मणिमयीपुरी में बहुत दिनों तक निवास किया तथा यद्धों में क्षत विक्षत हुई सेना को नये सिरे से संगठित किया। लंका की राक्षस सेना ने निवातकवच लोगों की युद्ध कला भी सीखी। इस प्रकार शक्ति बढ़ाकर दशग्रीव ने वरुण की राजधानी की ओर प्रयाण कर दिया।
इस अभियान में अश्म नगर में उनका युद्ध कालकेय दानवों से हुआ। कालकेयों ने वीरतापूर्वक सामना किया, लेकिन दशग्रीव की दिग्विजयी सेना के सामने ठहर न सके। कालकेयों का नेतृत्व रावण दशग्रीव की बहन सूर्पणखा के पति विद्युतजिह़्व कर रहे थे। वे भी युद्ध में मारे गये। उसके बाद दशग्रीव ने वरुण का महल घेर लिया। वर्णन मिलता है कि वह बादलों के समान उज्जवल और कैलाशपति के समान प्रकाशमान था। वरुण का मुख्य भवन श़्वेत पत्थरों से निर्मित और काफी ऊँचा रहा होगा। वरुणद्वीप दक्षिणपूर्वी एशिया में है। लेकिन ऐसा लगता है कि दशग्रीव का वरुण नगर में युद्ध पश़्चिम में हुआ था क्योंकि यह भी उल्लेख है कि यहां पर कोई तीव्रधारा झरना या नदी थी जिसका प्रवाह श़्वेत लगता है औऱ कल्पना की गयी है कि क्षीर सागर उसी के प्रवाह से भरा है। क्षीर सागर पश़्चिम एशिया के उत्तर मध्य में मध्य एशिया की विशालतम् झील है।
वहां पर वरुम के पुत्रों और पौत्रों ने दशग्रीव की सेना का सामना किया, लेकिन पराजित हुए। वरुण स्वयं युद्ध के लिए नहीं आये। वे सम्भवतः विदेश यात्रा पर गये हुए थे। उनके मन्त्री ने दशग्रीव को सन्धि के समय यही सूचना दी थी। यहाँ पर दशग्रीव का दिग्विजय अभियान पूर्ण होता है। उत्साही विजेता रावण दशग्रीव जब लंका की और वापस लौटो को उनके साथ पराजित शत्रुओं की अनेक सुन्दर स्त्रियां भी थीं। स्पष्ट किया जा चुका है कि राक्षस संस्कृति पूरी तरह भौतिकवादी थी और खाना-पीना मनोरंजन और भोग-विलास उनके जीवन के प्रमुख अंग थे। अतः पराजित शत्रुओं के धन और स्त्रियों का उपभोग करना वे उचित समझते थे।
लंका में पहुंचते ही दशग्रीव को पारिवारिक संकट का सामना करना पड़ा। कालकेय युद्ध में सूर्पणखा के पति विद्युतजिह़्व मारे गये थे। सूर्पणखा उन्हें बहुत चाहती थी। उन्होंने रावण के प्रति रोष जताया। बड़ी कठिनाई से सम्राट दशग्रीव ने अपनी प्यारी इकलौती बहन को मनाया। दक्षिण भारत में नर्मदा तट तक लंका के छापामार हमले होने लगे थे। दशग्रीव ने दण्डकारण्य में स्थायी सैनिक छावनी बनाकर सूर्पणखा को अपने भारतीय प्रदेश का शासक बना दिया। मौसेसे भाइयों खर और दूषण को उनका सेनापति नियुक्त किया और चौदह सहस्र सैनिक उनके अधीन कर दिये।
यह भारत में उनकी पहली और महत्वपूर्ण सफलता थी। दण्डकारण्य में सूर्पणखा की नियुक़्ति भारत को स्पष्ट चुनौती थी और अयोध्या के लिए चिन्ता का कारण। ऐसा लगने लगा था कि रघुवंश का गौरव दशरथ के साथ ही समाप्त हो जायेगा। अयोध्या को रावण की सामरिक सफलताओं के समाचार मिल रहे थे। यह आशंका भी अब स्पष्ट रूप से अनुभव होने लगी कि कभी भी अयोध्या सीधा आक्रमण हो सकता है। दशरथ वृद्ध हो चले थे और राजकुमार अभी बालक ही थे। उस युग में या यह कहें कि राजतन्त्र में यही सबसे बड़ी कमी थी कि यदि राजा स्वयं युद्ध नहीं कर सकता तो सेना व्यर्थ होती थी।
इस दिग्विजय अभियान के बाद लंका में शान्ति और समृद्धि का काल रहा। इस बीच राजकुमार मेघनाद बड़े हुए और योग्य उत्तराधिकारी बनने की तैयारी में लगे। उन्होंने विभिन्न प्रकार की युद्ध कलायें सीखीं, नये-नये अस्त्र-शस्त्र और युद्ध वाहन प्राप्त किये। इसके अनन्तर उन्होंने दीर्घकाल तक अध्ययन और तपस्या की। इस बीच दशग्रीव की मौसेरी बहन कुम्भनसी का अपहरण मधु नामक दैत्य ने कर लिया। यह समाचार पाकर दशग्रीव ने पुनः सेना सजायी और एक बार फिर विजय अभियान की घोषणा कर दी। उनका पहल लक्ष्य था मधु पर विजय और उसके बाद देवलोक त्रिविष्टप पर भी पूरी तरह अधिकार कर लेना। इस अभियान में देवों के परम्परागत शत्रु दानवों और दैत्यों ने भी दशग्रीव का साथ दिया। मधुपुरी में कुम्भनसी ने दशग्रीव का स्वागत किया और अपने पति के लिए प्राणदान मांगा। उन्होंने मधु को बहनोई स्वीकार कर लिया और देवलोक के विरुद्ध युद्ध में उन्हें भी साथ ले लिया। रातभर विश्राम कर प्रातः ही मधु सहित दशग्रीव ने उत्तर की ओर प्रयाण किया और सीधे कैलाश पर सैनिक शिविर स्थापित किया। मधुपुरी परम्परागत रूप से मथुरा को ही माना जाता है।
महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि कैलाश पर्वत को पार करके महातेजस्वी दशग्रीव रावण इन्द्रलोक में जा पहुंचे। रुद्र, आदित्य, मरुत, वसु, अश़्विनी कुमार आदि देवगण कवच और शस्त्र धारण कर रावण का सामना करने आ डटे। दशग्रीव के नाना सुमाली ने राक्षस सेना का नेतृत्व किया। देवसेना बुरी तरह पराजित होकर भाग खड़ी हुई। उस समय सवित्र नामक वसु ने राक्षस सेना पर प्रबल आक्रमण कर दिया और सुमाली का वध कर दिया। इसके बाद वीर मेघनाद ने राक्षस सेना का नेतृत्व किया और प्रलय मचा दी। भागती हुई देवसेना को सम्भालने के लिए इन्द्र ने अपने पुत्र जयन्त को भेजा। उन्होंने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन बुरी तरह घायल हो गये। उनके घायल होकर भाग जाने के कारण देवों का हाल और बुरा हो गया। अब स्वयम् इन्द्र युद्ध क्षेत्र में उतरे। इधर दशग्रीव ने मोर्चा सम्भाला। कुम्भकर्ण बुरी तरह घायल हुए। अधिकांश राक्षस सेना नष्ट हो गयी लेकिन मेघनाद इन्द्र को बन्दी बनाने में सफल रहे। रावण भी बुरी तरह घायल थे। विजय की बात सुनकर उनको राहत मिली। मेघनाद को अग्निरथ मिला। तेजहीन पराजित इन्द्र लंका के अधीन सामन्त की तरह देवलोक का शासन चलाने लगे।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………