दशरथ
कुछ समय बाद रघु ने अज को सत्ता सौंपकर वानप्रस्थ ले लिया। अज के पुत्र दशरथ हुए। अज की पत़्नी इन्दुमती की मृत्यु दशरथ के बचपन में ही हो गयी थी। आठ वर्ष तक अज ने अपने पुत्र को पाला और युवा होने पर उन्हें राज्य सौंपकर प्राण त्याग दिये। पत़्नी के वियोग में वे काफी दुःखी रहते थे और धीरे-धीरे खाना-पीना तक छोड़ दिया था।
दशरथ ने कोशल, केकय और मगध की राजकुमारियों से विवाह किया था। उन्हें उत्तराधिकार में ही चक्रवर्ती साम्राज्य मिला था। फिर भी परम्परा का निर्वाह करते हुए उन्होंने औपचारिक दिग्विजय यात्रा की जो बिना किसी युद्ध के निर्विघ्न सम्पन्न हो गयी। फिर उन्होंने राजसूय यज्ञ किया।
राजा दशरथ के शासनकाल में असुरों ने इन्द्र के राज्य त्रिविष्टप या स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया था। इन्द्र ने रघु के साथ हुई सन्धि के अनुसार दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। दशरथ ने सेना सहित इन्द्र की सहायता की और भीषण युद्ध किया। उस युद्ध में देवों की विजय हुई और असुर पराजित हुए। उसी युद्ध में एक दिन दशरथ बुरी तरह घायल हो गये थे। उनकी वीर पत़्नी कैकेयी ने रणक्षेत्र में दशरथ के प्राणों की रक्षा की थी। उसी समय उन्होंने प्राणदान देने वाली पत़्नी को दो वरदान देने का वचन दिया था। वही दोनों वरदान बाद में राम के वनवास के कारण बने।
रायसूय यज्ञ के बाद एक दिन शिकार खेलते हुए दशरथ के शब्द-भेदी बाण से मुनिपुत्र श्रवणकुमार की हत्या हो गयी। श्रवण को बाल्मीकि ने शूद्र का पुत्र बताया है। उनके माता-पिता दोनों अन्धे थे और मुनि दम्पति के रूप में प्रतिष्ठित थे। श्रवण की अनजाने में हुई हत्या से दशरथ बहुत दुःखी हुए। अन्धे ऋषि दम्पति ने दशरथ को शाप दिया कि तुमको भी वृद्धावस्था में पुत्र के वियोग में तड़प-तड़प कर मरना पड़ेगा। प्रौढ़ दशरथ दुःखी तो थे लेकिन यह शाप उनको वरदान जैसा ही लगा। उनके तीन रानियां थीं, लेकिन पुत्र कोई नहीं था। उन्हें लगा कि इस शाप के प्रभाव से पुत्र तो होगा, वंश तो चलेगा। मुझे पुत्र वियोग में मरना भी पड़ा तो कोई दुःख की बात नहीं होगी।
इस शाप के रूप में मिले वरदान को भी काफी समय बीत गया, परन्तु दशरथ को पुत्र लाभ नहीं हुआ। इसके बाद राजा दशरथ ने अपने महामन्त्री सुमन्त्र की सलाह से पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया। पुत्रेष्टि यज्ञ के विशेषज्ञ ऋषि ऋष्यशृंग माने जाते थे। वे अंग देश के राजा रोमपाद के दामाद थे और राजा के साथ ही रहते थे। राजा दशरथ स्वयं रानियों सहित अंग देश में गये और ऋष्यशृंग को उनकी पत़्नी शान्ता सहित अयोध्या बुला लाये। उसी यज्ञ के बाद दशरथ की तीनों रानियों ने चार पुत्रों राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न को जन्म दिया। एक पुत्र के लिये तड़पते दशरथ को चार पुत्र मिले।
दशरथ का शासनकाल कई दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। दशरथ के पुत्र राम विश़्व के सर्वाधिक लोकप्रिय सम्राटों में माने जाते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने राम को विष्णु के समान तेजस्वी बताया तो बाद में उनको विष्णु का अवतार या दूसरा जन्म बता दिया। राम के जीवन की तमाम घटनाओं के बीज दशरथ काल में पड़ गये थे। दशरथ के समय की घटनाओं का विश़्लेषण करके रामकाल को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
असुरों के साथ युद्ध में इन्द्र ने दशरथ की सहायता ली थी। इससे यह बात स्पष्ट है कि तब तक इन्द्र स्वतन्त्र शासक थे और रावण के पुत्र मेघनाद उन पर विजय नहीं प्राप्त कर सके थे। लंका साम्राज्य का उत्कर्ष उसके बाद का घटनाक्रम है। हो सकता है कि उस समय लंका साम्राज्य का विस्तार महासागर के द्वीपों में हो रहा हो। असुरों के साथ हुए उस युद्ध में देवों की शक्ति काफी नष्ट हो गयी होगी। अतः बाद में लंका को उस पर विजय मिल सकी।
दशरथ का शासनकाल निश़्चित रूप से रघुवंश का उत्कर्ष काल था। सुरक्षित सीमाओं के भीतर शान्ति और सम्पन्नता थी। सामाजिक व्यवस्था और कला कौशल भी उन्नत अवस्था में था। लेकिन उन्हीं दिनों दक्षिण समुद्र से खतरे के बादल उठने लगे थे। उत्तर के देवों और पश़्चिम के असुरों से भी अधिक शक्तिशाली लंका में राक्षस साम्राज्य का उदय हो रहा था। रावण ने दक्षिण भारत में अपना प्रभाव काफी जमा लिया था और इस प्रकार रघुवंशियों के चक्रवर्ती साम्राज्य को खुली चुनौती दे दी थी। इसके बावजूद अभी अयोध्या से सीधा टकराव नहीं हुआ था। इस पर भी प्रेक्षक किसी भी समय सीधे टकराव की आशंका अनुभव करने लगे थे। इसी कारण से वशिष्ठ और विश़्वामित्र कुल भी एक साथ अयोध्या का समर्थन कर रहे थे।
लंका और वैकुण्ठ
त्रेतायुग में दो नयी महाशक्तियों का उदय हुआ, लंका और वैकुण्ठ। ये दोनों शक्तियां अल्पजीवी होने के बावजूद दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ने में सफल रहीं। वैकुण्ठ कश्यप सागर या क्षीर सागर के तट पर बसा हुआ मध्य एशियाई नगर थआ। वहां पर महर्षि कश्यप की पत़्नी विनीता के वंशज वैनतेय गरुड़ और कश्यप की ही एक अन्य पत़्नी कद्रू के वंशज शेषनाग के कुल के लोगों का प्रभुत्व था। विष्णु ने इन दोनों कुलों के बीच समन्वय स्थापित करके शक्तिशाली राज्य स्थापित किया।
भारत की सीमाओं से अपेक्षाकृत दूर होने के कारण वैकुण्ठ के इतिहास की विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुछ लेखकों ने खुदाईमें वैकुण्ठ नगर मिलने का दावा भी किया है लेकिन हमारे पास कोई पुष्ट जानकारी नहीं है। महर्षि वाल्मीकि ने विष्णु को इन्द्र का भाई बताया है। इन्द्र को विष्णु की सहायता मिल रही है। महर्षि कश्यप की पत़्नी अदिति के दस पुत्रों में सबसे बड़े इन्द्र तथा सबसे छोटे विष्णु थे। उन्ही विष्णु का नगर वैकुण्ठ माना जाता है।
लंका के राक्षस कुल के विरुद्ध विष्णु की सहायता बहुत महत्वपूर्ण है। वाल्मीकि के अनुसार यक्ष और राक्षस कभी साथ ही रहते थे और एक ही मूल संस्कृति की दो धारायें हैं। यक्ष लोग वृक्षों, जलाशयों और प्राकृतिक पर्यावरण के पूजक-संरक्षक थे। राक्षस युद्ध प्रेमी और भोगवादी वीर सैनिक थे। यक्षों का प्रमुख क्षेत्र कूर्मांचल पर्वत मालाओं की तराई बना जबकि राक्षसों ने लंका द्वीप को अपना केन्द्र बनाया।
राक्षस संस्कृति के आदि नायक हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तप करने चले गये और हेति ने साम्राज्य का दायित्व सम्भाला। हेति का विवाह काल की बहन भया से हुआ था। उनके पुत्र विद्युत्केश हुए। संध्या की पुत्री सालकटंकटा का विवाह विद्युत्केश के साथ हुआ था। उनके पुत्र का नाम सुकेश था। उनका विवाह गन्धर्व ग्रामणी की कन्या देववती से हुआ था। उनके तीन पुत्र हुए – माल्यवान्, सुमाली और माली। उन तीनों भाईयों ने सुमेरु पर्वत पर तपस्या की और ब्रह्मा से युद्ध में अजेय रहने और आपस में प्रेम बना रहने का वरदान प्राप्त किया।
इन तीनों भाईयों ने सुमेरु पर्वत के निकटवर्ती देवों और असुरों के विरुद्ध कुछ सफल युद्ध किये और बाद में लंका में राजधानी स्थापित की। नर्मदा नामक एक गन्धर्व नारी ने अपनी तीन पुत्रियों के विवाह राक्षस नायकों माल्वान्, सुमाली और माली के साथ कर दिये। माल्यवान् की पत़्नी का नाम सुन्दरी था। उनके सात पुत्र वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त हुए। उनकी एक पुत्री अनला भी थी। सुमाली की पत़्नी केतुमती के पुत्रों के नाम प्रहस्त, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श़्व, संह्रादि, प्रघस और भासकर्ण थे। उनकी चार पुत्रियां राका, पुष्पोत्कटा, कैकसी, और कुम्भनसी थीं। माली की पत़्नी का नाम वसुदा था। उनके चार पुत्र अनल, अनिल, ह्रर और सम्पाति थे। माल्यवान्, सुमाली और माली के नेतृत्व में लंका ने बहुत उन्नति की। उनकी समुद्री शक्ति उस युग में सर्वश्रेष्ठ थी। देवों और असुरों के साथ भी उन्होंने सफल युद्ध किये। कैलाशपति शिव के साथ सुकेश के मैत्री सम्बन्ध थे। अतः शिव ने उनके विरुद्ध देवों का साथ देना अस्वीकार कर दिया। शिव से निराश होकर देवों ने विष्णु से मदद मांगी। इन्द्र का भाई होने के कारण विष्णु ने राक्षस शक्ति को समाप्त करने का संकल्प ले लिया।
देवों और विष्णु के बीच सैनिक सन्धि के समाचार से लंका की चिन्ता बढ़ गया। पहले भी देवों और असुरों के बीच युद्ध में भारतीय सम्राटों और वैकुण्ठ की सहायता मिलने से देव विजयी होते रहे थे। राक्षसों ने विचार किया कि वैकुण्ठ या विष्णु से हमारा कोई विरोध नहीं है। केवल देवों की ओर से ही वे हमसे युद्ध के लिए तत्पर हैं। अतः देवों का विनाश किया जाये और विष्णु को अपनी ओर से न छेड़ा जाये। माल्यवान् ने देवों पर आक्रमण कर दिया। सन्धि के कारण विष्णु ने सहायता की और युद्ध में आ डटे। तब राक्षस सेना ने विष्णु को ही लक्ष्य बनाया और भयानक बाण वर्षा कर उनका सांस लेना तक एक बार बन्द कर दिया। इसके बाद आहत विष्णु ने भीषण प्रत्याक्रमण किया और राक्षस सेना का संहार होने लगा। मैदान में राक्षस सेना भागने लगी। इस पर सुमाली ने भयानक रूप धारण किया और विष्णु को बाणों से ढ़क दिया। विष्णु ने सुमाली के सारथी को मार डाला। इससे उनके रथ के घोड़े अनियन्त्रित हो गये।
उस समय माली ने मोर्चा सम्भाला और विष्णु के शरीर को बाणों से बांध दिया। विष्णु ने उनका ध्वज और धनुष काट डाला और घोड़ों को मार दिया। माली गदा हांथ में लेकर रथ से कूद पड़े। उनके गदा प्रहार से एक बार विष्णु भी युद्ध छोड़कर भागे। इसके बाद देव सेना का प्रत्याक्रमण प्रबल था। विष्णु ने सुदर्शन चक्र छोड़ा और माली का सिर काट दिया। रणभूमि लाशों से पट गयी और राक्षस सेना भागने लगी। विष्णु ने भागती हुई राक्षसे सेना का संहार जारी रखा। इस पर माल्यवान् पटले और विष्णु से कहा कि भागती हुई सेना पर आक्रमण युद्ध नियमों का उल्लंघन है। विष्णु ने कहा कि मैने राक्षस शक्ति के विनाश का संकल्प लिया है, इसमें कोई नियम बाधा नहीं बन सकेगा। माल्यवान् और विष्णु के बीच युद्ध फिर शुरू हो गया। परन्तु अन्त में माल्यवान् को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। विष्णु भी काफी घायल हो चुके थे।
महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है कि विष्णु और लंका की राक्षस शक्ति के बीच कई युद्ध हुए और अन्त में बाध्य होकर राक्षसों ने लंका छोड़ दी तथा पाताल में जाकर रहने लगे। माल्यवान्, सुमाली और माली रावण से अधिक वीर थे। लंका खाली हो जाने पर वहां महर्षि पुलस्त्य के पौत्र और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण कुबेर ने अधिकार कर लिया। वे देवों के समर्थन से दक्षिण दिशा के लोकपाल बन गये।
सुमाली ने एक कूट योजना तैयार की। उन्होंने अपनी पुत्री कैकसी को मुनि विश्रवा की सेवा में भेज दिया। कैकसी ने पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की सेवा समर्पणभाव से की और गन्धर्व विवाह करने में सफल हुई। महर्षि विश्रवा से कैकसी के तीन पुत्र दशग्रीव, कुम्भकर्ण और विभीषण तथा एक कन्या सूर्पणखा हुई। सूर्पणखा विभीषण से बड़ी तथा दो भाईयों से छोटी थी। बाद में दशग्रीव नामक कैकसी के बड़े पुत्र ही रावण के नाम से लंका के सम्राट बने। दशग्रीव पिता के कुल से मानव ऋषि के वंशज थे। उन्होंने पिता के आश्रम में ऋषि संस्कृति-वैदिक संस्कृति का अध्ययन किया था। ऋषि पुत्र होने के कारण उन्हें भारत में भी सम्पर्क सम्बन्ध का लाभ मिला। उन्होंने भारतीयों और देवों की युद्ध कला सीखी और संस्कृतियों का मन्थन किया। उन्होंने अपनी योग्यता और साहस से खोये हुए लंका के साम्राज्य को प्राप्त किया और विश़्व में एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित किया।
उन्होंने वैदिक संस्कृति के आधार पर ही महान् राक्षस संस्कृति की स्थापना की जो देवों, असुरों और मानवों की संस्कृति का समन्वय होने के साथ ही अधिक व्यावहारिक और उपयोगी भी थी। उस संस्कृति में भोगवाद की प्रधानता थी। वे वैदिक संस्कृति के अनुसार प्रकृति की शक्तियों का महत्व समझते थे। विभिन्न कुलों और संस्कृतियों के बीच रहने के कारण वे कोई भेदभाव नहीं मानते थे और समानता-समरसता के समर्थक थे।
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दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………