राम रावण युद्ध का लौकिक विवरण { भाग-2 }
क्षितिज पर सूर्य धीरे-धीरे अस्त होकर सागर की गहराइयों में डूब रहा था। सागर की लहरे बार-बार किनारे पर आती और वापस लौट जाती थीं। सागर के तट पर सूर्यास्त का यह दृश्य राम को अत्यंत मनोरम लगता था। जब से वे इस स्थान पर आये थे उन्होंने सूर्यास्त के इस दृश्य को देखना एक दिन के लिए भी नही छोड़ा था। अचानक एक लहर आकर राम के पैरो से टकरायी । राम के पूरे शरीर में एक मीठी सिहरन दौड़ गयी। उन्होंने एक लम्बी साँस ली और सागर की ओर से आ रही शीतल वायु को अपने नथूनों में भर जाने दिया। राम को ऐसा लगा मानो उनका मन और मस्तिष्क अब हल्का महसूस कर रहा है। उन्होंने धीरे-धीरे अपनी आँखे खोली और एक गहरी साँस छोड़ी।
राम के लम्बे घने केश हवा में लहरा रहे थे। चौदह वर्ष के वनवास की इस अवधि में उन्होंने अपना वेश पूरी तरह से एक सन्यासी के जैसा बना लिया था। केशों के साथ-साथ उनकी दाढ़ी भी घनी और लम्बी हो चुकी थी। इस समय उनके लहराते केशो को देखकर ऐसा लग रहा था मानो भगवान शिव ने स्वर्ग से उतरती गंगा की तीव्र धारा को वश में करने के लिए अपनी जटाएँ खोल दी हो। राम पुराने ख्यालों में खो गए। उन्हें अब भी याद है कि किस प्रकार वनवास के दिनों में प्रतिदिन स्नान के बाद सीता राम के केशो का जूड़ा बना कर उन्हे बाँध दिया करती थी । दिन का वह समय राम के लिए सबसे आनन्ददायक समय होता था । सीता को राम का यह तपस्वी वेश बहुत अच्छा लगता था। लेकिन सीता के जाने के बाद राम ने अपनी जटाओं को बांधना छोड़ दिया था। अब किसी भी तरह के श्रृंगार में उनका मन नही रुचता था। जिसके लिए वह यह सब करते थे जब वो पत्नी ही अब उनके पास नही थी तो इस श्रृंगार का क्या प्रयोजन । अश्रु की एक बूँद राम के आँखो से छलक आयीं।
“भैया”, लक्ष्मण ने पीछे से आवाज दी । राम वर्तमान समय में लौट आये। उन्होने अपने आंसू पोछे और लक्ष्मण की ओर मुड़े। “क्या बात है लक्ष्मण ?”, राम ने पूछा । “चलकर भोजन कर लीजिये । महाराज सुग्रीव और बांकी सभी लोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”, लक्ष्मण बोले। राम ने सिर हिलाया और लक्ष्मण के साथ अपने शिविर की ओर चल पड़े । पीछे रह गया तो केवल अंधकार और समुद्र की लहरे जो रात्रि के साथ मानो मंद होकर स्वयं भी निद्रा के वशीभूत हो रही थी।
यहाँ आने के बाद राम ने यह नियम बनाया था कि सभी प्रमुख वानर सेनापति भोजन एक साथ ही करेंगे। इससे अलग-अलग क्षेत्रों से आये योद्धाओ के बीच संवाद मधुर होंगे और सभी को एक दूसरे को जानने और समझने का अच्छा अवसर प्राप्त होगा । आज उनके साथ कुछ नये मित्र भी साथ बैठे थे, विभीषण और उनके अमात्य । विभीषण को जंगली फल और चावल की खीर परोसे जाते समय राम ने उनसे कहा ,”क्षमा करे लंकेश परंतु इस समय लंका के राजा को देने के लिए हमारे पास केवल यही उपयुक्त भोजन उपलब्ध है ।” विभीषण बोले, “इसमें आपको क्षमा माँगने की कोई आवश्यकता नहीं है राम । मुझे इस सात्विक भोजन से कोई आपत्ति नहीं है।” विभीषण के इस उत्तर पर राम मुस्कुरा दिये। लक्ष्मण चुपचाप अपना भोजन करने में व्यस्त थे। भोजन के बाद सभी सेनापति अपने- अपने शिविरों में विश्राम करने के लिए चले गये। राम जब अपने शिविर में आये तो उन्होने लक्ष्मण को देखा जो राम की शैया बिछा रहे थे। सदैव युद्ध की नयी-नयी योजनाएँ बनाने वाले लक्ष्मण आज बहुत
शांत थे। भोजन के वक्त सदैव लक्ष्मण भोजन करने से अधिक सेनापतियों को अपनी रणनितियाँ समझाने और युद्ध की नयी योजनाएँ बताने में व्यस्त रहते थे लेकिन आज पहली बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। एक शब्द भी नहीं। राम जानते थे कि लक्ष्मण विभीषण के साथ राम के व्यवहार के कारण रुष्ठ है और चाहे कुछ भी हो जाए वे अपने बड़े भाई के सामने यह रोष प्रकट नहीं करेंगे। राम को भी अच्छी तरह से मालूम था कि लक्षमण को कैसे मनाया जाए। राम ने कहा, “लक्ष्मण ! क्या मुझसे नाराज़ हो?” लक्ष्मण कुछ न बोले । बस अपने कार्य में लगे रहे। राम मुस्कुरा दिये। राम जानते थे कि उनका यह छोटा भाई जितना अधिक पराक्रमी योद्धा है उतना ही कोमल हृदय वाला बालक भी है। राम बोले, “सीता को तो मै पहले ही खो चुका हूँ और अब यदि तुम भी मुझसे रुष्ठ हो जाओगे तो मैं तो इस संसार में बिल्कुल अकेला हो जाऊंगा। यदि मेरे किसी कार्य से तुम्हारे हृदय को ठेस पहुंची है तो मै तुमसे क्षमा माँगता हूँ किन्तु इस प्रकार मुझसे रुष्ट न हो । मुझे क्षमा कर दो भैया।” लक्ष्मण ने देखा कि राम उनके सामने हाथ जोड़े खड़े है। लक्ष्मण झट से राम के पास गये और उन्हें अपने आलिंगन में भर लिया और फिर फूट-फूट कर रोते हुए बोले, “आपने यह कैसे सोच लिया भैया कि मैं आपसे रुष्ट हो जाऊंगा । आपसे रुष्ट होने से पहले मैं मृत्यु का आलिंगन कर लूँगा परंतु आपसे मैं कभी रोष प्रकट नही करूंगा।” लक्ष्मण ऐसे रो रहे थे मानो कोई नन्हा बालक अपनी माता से लिपट कर रो रहा हो। अपने छोटे भाई के हृदय में अपने लिए यह प्रेम देखकर राम की आँखे भी छलक आयीं। साथ ही साथ लक्ष्मण को इस प्रकार खुद से लिपट कर रोता देख राम को आश्चर्य भी हो रहा था कि उनका यह भाई जो युद्ध में अकेले ही सम्पूर्ण सेना का विनाश करने में सक्षम है वह राम के सामने एक छोटे बच्चे की तरह बन जाते है। थोड़े समय बाद जब लक्ष्मण का रोना बंद हुआ तो राम ने उन्हें अपने पास बिठाया और बोले, “तुम
यही जानना चाहते हो न कि मैंने विभीषण के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? क्यों उसे लंका का राजा बनाने का वचन दे दिया? तुम क्या सोचते हो कि वानरो कि इस विशाल सेना के दम पर हम रावण को हरा पायेंगे ! जरा सोचो लक्ष्मण, किष्किंधा की यह सेना चाहे कितनी पराक्रमी क्यो न हो, कितनी भी आत्म विश्वास से भरी हुई क्यों न हो लेकिन ये इतने परिपक्व नहीं है कि रावण की उस सेना का सामना कर सके जो कि आज विश्व की सर्वोत्तम सेना है। युद्ध नीती में पराक्रम और आत्मविश्वास से कहीं अधिक आवश्यकता कूटनीती की होती है। विभीषण भले ही एक पराक्रमी योद्धा न हो लेकिन वह रावण की युद्धनीती को करीब से जानता है ।
रावण के हर अभियान में वह उसके साथ रहा है । उसे अच्छे से ज्ञात है कि रावण क्या और कैसे सोचता है और यही अब रावण के विरुद्ध युद्ध में हमारा सबसे मजबूत पक्ष बनेगा।” “परंतु उसे लंका का सम्राट बनाने का वचन देने की क्या आवश्यकता थी ?”, लक्ष्मण ने पूछा। राम सदैव की तरह मुस्कुराये और बोले, “इससे दो लाभ होंगे । पहला यह कि अब विभीषण हमारे साथ पूरी तरह वफादार रहेगा। अपने बड़े भाई पर वह क्रोधित था क्योंकि उसने भरी राजसभा में उसका अपमान करके उसे निष्कासित कर दिया और इसी क्रोध के कारण वह हमसे आकर मिला। लेकिन यह क्रोध आज नहीं तो कल समाप्त हो सकता था । विभीषण का रावण के प्रति भ्रातृ प्रेम फिर से जाग सकता था और वह हमें छोड़कर रावण के पास किर से वापस चला जाता। अब जबकि मैने उसे यह वचन दे दिया है कि रावण को परास्त कर, उसे मारकर मै विभीषण को लंका का राजा बना दूँगा और विभीषण ने भी इसे स्वीकार कर लिया है तो अब उसके पास रावण के पास पुनः लौटने का अवसर समाप्त हो चुका है । क्योंकी भले ही विभीषण के मन में रावण के लिए कुछ प्रेम बचा हो लेकिन संधि की शर्तो को जान लेने के बाद रावण के मन में विभीषण के लिए अब किसी भी प्रकार की प्रेम-भावना शेष नहीं रह जायेगी और विभीषण यह बात अच्छे से जानता है कि यदि अब वह रावण के पास वापस गया तो रावण उसे जीवित नहीं छोड़ेगा । इस तरह से विभीषण के पास अब हमारी सहायता करने के अलावा और कोई रास्ता शेष नहीं बचता ।
लक्ष्मण का रोम-रोम राम की इन बातो को सुनकर रोमांचित हो चुका था। वे तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि जिस राम ने चुपचाप पिता के अन्याय को सहते हुए 14 वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया था और बिना कुछ कहे अपना सब कुछ भरत को सौप दिया था वे इतने अधिक कूटनीतिज्ञ हो सकते है। लक्ष्मण ने मन ही मन खुद से यह संकल्प किया कि भविष्य में अब कभी भी राम के किसी कार्य का विरोध मन में भी नहीं करेंगे। परिणाम चाहे जो भी हो। “और दूसरा?”, लक्ष्मण ने उत्सुकता से पूछा। राम बोले, “दूसरा यह कि जब विभीषण लंका का राजा बनेगा और हम वापस अयोध्या जायेंगे तो इस बार हम दक्षिण दिशा से आर्यावर्त पर होने वाले आक्रमण की चिन्ता से मुक्त होंगे क्योंकि रावण की मृत्यु के बाद विभीषण पूरी तरह से हमारे वकादार होंगे और हमारे विरुद्ध किसी प्रकार का षड्यंत्र वे नहीं करेंगे।” आज लक्ष्मण को अपने भाई पर अत्यंत गर्व महसूस हो रहा था। उन्हे हमेशा लगाता था कि राम अत्यंत भोले और सरल व्यक्ति है और अपने शत्रुओ पर भी दया दिखाते है। लेकिन अब वे जानते थे कि चाहे रावण राम के पैरो में आकर गिड़गिड़ाकर दया की भीख ही क्यों न माँगे परंतु राम उसे अब क्षमा नहीं करेंगे।
दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………