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राजा मित्रसह – शाप तथा नियोग

इक्ष्वाकुवंश में भगीरथ के पुत्र सुहोत्र, उनके पुत्र श्रुति, उनके पुत्र नाभाग, नाभाग के पुत्र अम्बरीष, उनके सिन्धुद्वीप, उनके पुत्र अयुतायु हुए। अयुतायु के पुत्र ऋतुपर्ण एक अन्य प्रसिद्ध राजा नल के सहायक बने। राजा नल के विषय में कहानियां प्रचलित हैं। नल चन्द्रवंशी राजा थे। राजा ऋतुपर्ण के पुत्र सर्वकाम और उनके पुत्र सुदास् हुए। सुदास् के पुत्र मित्रसह थे। हम जानते हैं कि त्रेतायुग यज्ञ प्रधान था। सफलता पाने के लिए भी यज्ञ किये जाते थे और सफल होने पर भी। मित्रसह ने भी यज्ञ किया। वशिष्ठ स्वभावतः पुरोहित थे। मूल कथा के अनुसार यज्ञ के बाद वशिष्ठ की अनुपस्थिति में मित्रसह के पुराने शत्रु एक राक्षस ने वशिष्ठ की ओर से नरमांस का भोजन कराने का आदेश राजा को दिया। उस आदेश के अनुसार वशिष्ठ के समक्ष नरमांस का भोजन प्रस्तुत किया गया। वशिष्ठ इससे बहुत नाराज हुए और राजा को नरभक्षी होने का शाप दे दिया। जब राजा ने बताया कि आपके आदेश पर ही नरमांस प्रस्तुत किया गया था तो वशिष्ठ ने कृपा करते हुए शाप को बारह वर्ष तक के लिए सीमित कर दिया। कुल पुरोहित के इस अन्याय पर राजा मित्रसह ने भी वशिष्ठ को शाप देने के लिए अञ्जलि में जल ग्रहण किया, लेकिन रानी मदयन्ती ने राजा को रोक दिया और कहा कि कुलगुरु को शाप देना उचित नहीं है। राजा को रानी की बात माननी पड़ी और वह जल राजा के पैरों पर गिरा। इससे मित्रसह का नाम कल्माषपाद भी पड़ गया। वशिष्ठ के शाप से राजा मित्रसह तीसरे दिन के अन्तिम भाग में नर भक्षी होकर वन में विचरण करने चले गये। प्राचीन काल में शाप देने के प्रसंग बहुत मिलते हैं। संस्कृत भाषा और साहित्य में शप् धातु और शाप बहु प्रचलित है। अतः शाप को समझना आवश्यक है। सामान्यतः शाप देने की शक्ति ऋषियों में रही है, लेकिन इसी मित्रसह प्रसंग से भी ज्ञात होता है कि राजा भी ऋषि को शाप दे सकते थे। आजकल शाप को चमत्कारिक शक्ति माना जाता है और तार्किक लोग इसे अविश्वसनीय और असम्भव भी मानते हैं। एक मत यह भी व्यक्त किया गया है, कि जिस प्रकार शासक और न्यायाधीश किसी अपराध पर दण्ड देते हैं, उसी प्रकार ऋषियों द्वारा दिये गये दण्ड को ही शाप कहते थे और समाज और शासन ही उसे लागू कराता था।

योग विद्या और चेतना विज्ञान को मानने वाले इतना स्वीकार करते हैं कि योगी के अन्दर इतनी प्रबल चेतना शक्ति हो सकती है कि वह अपने शाप को प्रबल चेतना शक्ति से लागू करा ले या जिसे शाप दिया गया है, उसे उस तरह आचरण के लिए बाध्य कर दे। दोनों में जो भी बात सत्य हो, यह स्पष्ट है कि मित्रसह के मामले में वशिष्ठ ने शाप देने की शक्ति का दुरुपयोग किया था। यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि संस्कृत साहित्य में शाप द्वारा ऐसा कोई कार्य नहीं किया गया है जो आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से असम्भव हो। अतः शाप कोई अलौकिक कल्पना नहीं है। भले ही शाप देने की कुछ घटनाओं को अतिरञ्जित रूप में प्रस्तुत किया गया हो। जो कुछ भी हो, राजा मित्रसह वनवासी नरभक्षी हो गये। एक दिन अत्यन्त भूखे मित्रसह ने एक मुनि दम्पति को सम्भोगरत अवस्था में देखा और पकड़ कर मुनि का मांस खाकर भूख मिटायी। मुनि पत्नी ने राजा को शाप दे दिया कि मेरे अतृप्त रहते हुए तुमने मेरे पति को मार डाला है, अतः तुम भी अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करते ही मर जाओगे। ऐसा शाप देकर मुनि पत्नी ने भी आग लगाकर आत्महत्या कर ली।

बारह वर्ष होने पर राजा शाप मुक्त हुए और घर वापस आ गये। मुनि पत्नी के शाप के कारण वे अपनी पत्नी के साथ सहवास नहीं कर सकते थे। अतः वशिष्ठ ने नियोग प्रथा का सहारा लेकर रानी मदयन्ती के साथ सम्भोग करके गर्भ स्थापित किया। उस पुत्र का नाम अश्मक रखा गया और वे राजा मित्रसह के उत्तराधिकारी हुए। अश्मक के पुत्र मूलक हुए। एक युद्ध में स्त्रियों ने घेरकर मूलक की जान बचायी थी, अतः उनको नारीकवच भी कहा गया है। इन राजाओं की कथाओं से स्पष्ट होता है कि वह इक्ष्वाकुवंश का पतनकाल था। राजा और पुरोहित दोनों ही गरिमा से गिर चुके थे। नियोग प्रथा का उपयोग ऐसे समय किये जाने का विधान है जब पति सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ हो तो पति की सहमति से किसी व्यक्ति के साथ पत्नी तब तक सहवास कर सकती है जब तक वह गर्भवती न हो जाये। इक्ष्वाकुवंश चलाना भी जरूरी था और मदयन्ती तब तक पुत्रहीन थी। अतः स्थिति का भरपूर लाभ उठाया गया। मूलक के पुत्र का नाम दशरथ था। लेकिन वे राम के पिता दशरथ से बहुत पहले हुए थे। दशरथ के पुत्र इलिबिल और उनके पुत्र विश्वसह हुए। विश्वसह के पुत्र खट्वांग वीर सेनानी थे। भारत में खट्वांग की सामरिक सफलताओं की कोई जानकारी हमारे पास नहीं है। लेकिन उन्होंने देवों के समर्थन में असुरों से युद्ध में काफी वीरता दिखायी थी और दैत्यों का संहार किया था। खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु थे। ऐसा अनुमान है कि मूलक की अपमानजनक पराजय के बाद इक्ष्वाकुवंश ने शक्ति बढ़ानी प्रारम्भ कर दी थी। मूलक के पुत्र दशरथ ने निश्चित ही कुछ सामरिक सफलतायें प्राप्त की थीं। इसीलिए कुछ पीढ़ियों के बाद अज ने अपने पुत्र का नाम उनके नाम पर दशरथ रखा जो राम के पिता थे। तीन पीढ़ियों के बाद खट्वांग का देवासुर संग्राम में भाग लेना भी इस बात का प्रमाण है कि तब तक इक्ष्वाकुवंश अपनी प्रतिष्ठा पुनः स्थापित कर चुका था, अन्यथा जब चन्द्रवंश भारत में प्रबल था तो रजि आदि चन्द्रवंशी राजाओं ने भी देवों का साथ दिया था।

सम्राट रघु

सम्राट रघु खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु थे। दीर्घबाहु के उत्तराधिकारी इच्छवाकुवंश के सुयोग राजा दिलीप हुए। उन्होंने अपनी योग्यता से वह आधारभूमि तैयार की जिससे इक्ष्कवाकुवंश का प्रताप पुनः मध्याह़्न के सूर्य की भांति दमकने लगा। कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में लिखा है कि दिलीप बहुत बलवान् और तेजस्वी राजा थे। वे बुद्धिमान्, विद्वान् और कर्मशील भी थे। उनकी पत़्नी सुदक्षिणा मगध देश की राजकुमारी थीं। सन्तान न होने पर दिलीप और सुदक्षिणा ने गुरु वशिष्ठ के आश्रम में बहुत दिनों तक सेवा की। इसके बाद वशिष्ठ प्रसन्न हुए और दिलीप और सुदक्षिणा को अयोध्या वापस जाने की अनुमति मिली और सन्तान के लिए औषधि भी। रानी गर्भवती हुईं और पूरे गर्भकाल में सुयोग्य चिकित्सकों ने उनकी देखभाल की। सुदक्षिणा ने जिस पुत्र को जन्म दिया, वे इक्ष्वाकुकुल को नया गौरव प्रदान करने वाले प्रतापी रघु थे। रघु के नाम पर ही बाद में इस कुल को रघुवंश कहा गया। दिलीप ने सम्राट बनने के लिए अश़्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया। कहा जाता है कि दिलीप ने सौ अश़्वमेध करने का संकल्प लिया था। उन्होंने 99 अश़्वमेध पूरे कर लिये। सौवें अश़्वमेध यज्ञ का अश़्व हिमालय की सीमा पर ही देवराज इन्द्र ने पकड़ लिया और अश़्वमेध रोकने के लिए कहा। इन्द्र का कहना था कि सौ अश़्वमेध करने वाला तो इन्द्र पद का अधिकारी बन जाता है, अतः सौवां अश़्वमेध पूरा होने देना मेरी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है। फिर स्वर्ग की सीमा पर कैसे दिग्विजयी अश़्व को जाने दिया जाये। रघु ने चुनौती स्वीकार की और भीषण युद्ध हुआ।

रघु के पराक्रम से विचलित होती देवसेना को बचाने के लिए इन्द्र ने महासंहारक वज्र का प्रहार किया। इससे पासा पलटा अवश्य, लेकिन रघु भी अन्त तक युद्ध के लिए डटे रहे। बाद में समझौता हुआ। इन्द्र ने अपना दूत अयोध्या में महाराज दिलीप के पास भेजा और उनसे सन्धि का अनुमोदन कराया। दिलीप भारत के चक्रवर्ती सम्राट बन गये और त्रिविष्टप या स्वर्ग के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गये। कालिदास ने रघु के विषय में लिखा है कि अन्य शासकों के मन में दिलीप के गौरव को देखकर जो आग सुलग रही थी, रघु के सिंहासनारूढ़ होने पर भड़क उठी। परन्तु रघु ने भी पिता के सिंहासन और शत्रुओं के मस्तक पर एक साथ पैर रखा। इसका अर्थ है कि रघु के सत्ता सम्भालते ही जगहजगह सामन्त शासकों ने विद्रोह कर दिया था, लेकिन रघु ने सफलतापूर्वक सबका दमन किया। उन्होंने अपने पराक्रम और बुद्धिबल से राज्य में शान्ति की स्थापना की। उसके बाद सम्राट ने अश़्वमेध यज्ञ के आयोजन की घोषणा कर दी। उन्होंने राजधानी की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया, मार्ग की सुरक्षा के लिए सेनायें नियुक्त कीं और दिग्विजय के लिए सेना का नेतृत्व सम्भाला।

रघु ने दिग्विजय अभियान पूर्व की दिशा से प्रारम्भ किया। अयोध्या से चले रघु पूर्वी समुद्र (बंगाल की खाड़ी) तक जा पहुंचे। बंग प्रदेश में उन्हें प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने गंगा की धाराओं के बीच द्वीपों पर विजय ध्वज फहरा दिये। नदी को पार करने के लिए उन्होंने हाथियों का पुल बनाया। युद्ध क्षेत्र में तुरन्त अस्थायी पुल बनाने की यह भी अद़्भुत रणनीति थी। कलिंग में रघु को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे विजयी रहे। कलिंग से आगे वे दक्षिण की ओर बढ़े। उनकी सेना ने मलयाद्रि की तराई में पड़ाव डाला। आगे पाण्ड्य क्षेत्र में उनका स्वागत हुआ। उसके बाद उन्होंने सह्य पर्वत और केरल प्रदेश में विजय पताका फहरायी। उन्होंने पश़्चिम समुद्र (सिन्धु सागर या अरब सागर) में कुछ द्वीपों पर भी अधिकार किया। आगे उन्होंने गुर्जर प्रदेश से पश़्चिम की ओर पारसीक देश पर आक्रमण किया। अश़्वारोही पारसी सेना ने घनघोर युद्ध किया। अन्त में रघु विजयी हुए। वे पारसीक के उत्तर में बढ़ते हुए कम्बोज, गान्धार और उसके उत्तर में आर्यवीर्यान आदि मध्य एशियायी राज्यों को जीतकर वापस लौटे और कश्मीर में विश्राम किया। कश्मीर से आगे बढ़कर वे हिमालय के किन्नर आदि पर्वतीय मार्ग से ही पूर्व की ओर बढ़े। दक्षिणी त्रिविष्टप और नेपाल को पार करते हुए लौहित्य नदी पारकर वे प्राग्ज्योतिषपुर पहुंचे। फिर उन्होंने कामरूप को भी जीता। इस तरह भारत की पूरी सीमा पर विजय प्राप्त करके देश को सुरक्षित किया और राजधानी लौट आये। अश़्वमेध पूरा हो गया। इसके बाद रघु ने विश्वजित यज्ञ में समस्त सम्पत्ति दान कर दी और ‘मृत्तिकापात्र शेष उपाधि धारण की। अर्थात् सम्राट के पास केवल मिट्टी के बर्तन शेष थे। वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स विद्या अध्ययन समाप्त कर दक्षिणा की धनराशि लेने रघु के पास आये। रघु की दशा देखकर उन्हें संकोच था। उन्हें चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता थी। रघु ने उन्हें अतिथि गृह में ठहराया और कहा कि मैने धन दान किया है, धनुष नहीं। रघु ने सेना को कुबेर पर आक्रमण की तैयारी करने का आदेश दिया और स्वयं उस रात युद्धक रथ में ही सोये। कालिदास ने कुबेर को कैलाश का राजा लिखा है। कुबेर ने यह सूचना पाकर अपार धनराशि रघु के पास भेजकर सन्धि कर ली। राजा रघु ने सारा धन कौत्स को दे दिया। कौत्स ने कहा कि मुझे गुरुदक्षिणा के लिए चौदह करोड़ मुद्रायें चाहिये, अधिक नहीं ले सकता। रघु का कहना था कि यह सारा धन तुम्हारे लिए ही आया है, हम नहीं रख सकते।

रघु के पुत्र अज थे। अज का विवाह विदर्भ देश के राजा भोज की पुत्री इन्दुमती के साथ स्वयम्वर में हुआ था। स्वयम्वर के लिए विदर्भ जाते समय अज की मित्रता गन्धर्व राजकुमार प्रियम्वद से नर्मदा तट पर हो गयी थी। स्वयम्वर में अनेक राजाओं के साथ कार्तवीर्य अर्जुन के वंशज प्रतीप भी थे। शूरसेन के राजा सुषेण, कलिंग के राजा हेमांगद आदि की भी स्वयम्वर में उपस्थिति कालिदास ने दर्शायी है। स्वयम्वर में विवाह के बाद अज दुल्हन के साथ अयोध्या की ओर चले। लेकिन एक दुरभिसन्धि हो गयी। रघु से पराजित राजा, सेना सहित वहां उपस्थित थे। सबकी सम्मिलित सेना ने बदला लेने के लिए अज पर आक्रमण कर दिया। भीषण युद्ध हुआ और अन्त में बड़ी कठिनाई से अज ने प्रियम्वद से प्राप्त सम्मोहन अस्त्र से शत्रु सैनिकों को निष्क्रिय करके विजय पायी।

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                                                                                     दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………  🙂

By Anil

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