त्रेतायुग का प्रथम चरण — गंगावतरण
हरिश्चन्द्र के साथ प्राचीन इतिहास का प्रथम कालखण्ड सतयुग समाप्त हो जाता है और इसके बाद दूसरा कालखण्ड त्रेतायुग आरम्भ होता है। त्रेतायुग में भी हरिशचन्द्र के पुत्र रोहिताश्व से दशरथ पुत्र राम तक तैंतीस पीढ़ियां इक्ष्वाकुवंश में हुई हैं। इस युग में राजतन्त्र मजबूत हुआ। ऋषि आश्रमों का प्रभाव बना रहा तथा राजतन्त्र ऋषियों को चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पाया।
हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व बनी- बनायी व्यवस्था के अनुसार पैतृक शासन बनाये रहे। कहीं से बड़ी चुनौती मिलने की सम्भावना ही नहीं रह गयी थी। उनके बाद पुत्र हरित राजा हुए। उनके पुत्र चञ्चु और चञ्चु के पुत्र विजय और वासुदेव हुए। विजय के पुत्र हरुक और उनके पुत्र वृक हुए। इन छह पीढ़ियों ने लगभग दो शताब्दियों तक शान्ति पूर्वक शासन किया। उसके बाद वृक के पुत्र बाहु के शासन काल में हैहय और तालजंघ शासकों ने मिलकर अयोध्या पर सफल आक्रमण किया। राजा बाहु पराजित होकर भाग गये और वनों में शरण ली। और्व ऋषि के आश्रम के निकट निवास करते हुए राजा बाहु की मृत्यु हो गयी। उस समय बाहु की रानी गर्भवती थी। इस विपत्ति में धैर्य ने रानी का साथ छोड़ दिया और उन्होंने भी प्राण देने का निश्चय कर लिया।
महर्षि और्व ने समझा-बुझाकर रानी को बचाया और सन्तान को जन्म देकर उसके माध्यम से राज्य वापस लेने की आशा बंधायी। इसके बाद गर्भवती रानी और्व के आश्रम में रहने लगीं। रानी ने बालक को जन्म दिया तो उसका नाम सगर रखा गया। सगर शब्द का अर्थ है विषयुक्त। इन विपत्तियों के बीच जन्में सबसे प्रतिष्ठित राजकुल के बालक को ऐसा होना ही था। सगर का पालन-पोषण प्रारम्भ से ही एक उद्देश्य को लेकर किया गया और उन्हें वैसी ही शिक्षा-दीक्षा दी गयी तथा अजेय योद्धा की तरह तैयार किया गया। सगर को भार्गव आग्नेयास्त्रों की भी शिक्षा दी गयी थी, ऐसा उल्लेख मिलता है। इसका अर्थ इतना तो है ही कि सगर के समय में भार्गव ऋषियों ने किसी तरह के आग्नेयास्त्रों का विकास किया था। वह आग्नेयास्त्र सगर के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। युवा होने पर सगर ने भार्गव आश्रमों के सहयोग से सेना एकत्र की और अयोध्या पर अधिकार कर लिया। हैहय और तालजंघ राजा उस युद्ध में मारे गये। सगर को वशिष्ठ और विश्वामित्र आश्रमों का भी समर्थन प्राप्त था। इस सफलता के बाद भी वे शान्त नहीं बैठे और त्रेतायुग का पहला सामरिक इतिहास लिखने निकल पड़े। हैहय और तालजंघ को पराजित करते ही पूरा देश उनके अधिकार में आ ही गया था। अतः सगर ने उत्तर-पश्चिमी सीमा की ओर युद्ध अभियान किया। सगर से पराजित होने वालों में शक, यवन, काम्बोज, पारद और पह्लव गणों का उल्लेख है। यह भी बताया गया है कि वशिष्ठ ने सन्धि कराकर उन्हें जीवन दान दिलाया और देश निकाला दे दिया गया।
यह स्पष्ट किया गया है कि सगर से युद्ध के समय तक ये सभी जातियां वैदिक धर्म के ही अन्तर्गत थीं। वे देश से निष्कासन के पश्चात् वैदिक समाज की सीमा से सुदूर पश्चिम की ओर बढ़ गयीं तथा ऋषियों के आश्रमों से उनका सम्पर्क भी टूट गया। ऐसा लगता है कि उन जातियों ने सगर का प्रबल प्रतिरोध किया था और विजयी होने पर सगर उनको मिटा देने पर दृढ़ थे। इसीलिए वशिष्ठ को मध्यस्थता करके उन्हें जीवनदान दिलाना पड़ा। वशिष्ठ ने सगर को आश्वासन दिया था कि ऋषि आश्रम और क्षत्रिय कुल उन जातियों से कोई सम्पर्क नहीं रखेंगे। अतः सम्पर्क टूट जाने का स्पष्ट राजनीतिक कारण भी था। मूल सांस्कृतिक केन्द्रों से सम्पर्क टूट जाने के कारण वे सब पश्चिम की स्थानीय जातियों में घुल मिल गये और उनकी वेशभूषा और आचार विचार भी बहुत कुछ बदल गये। शायद यही कारण है कि आधुनिक इतिहासकारों ने ऐसी जातियों को अर्द्ध आर्य जातियां बताया है जिनमें आर्य लक्षणों के साथ ही अनार्य तत्व भी पाये जाते थे। सकारण ही सही, सगर प्राचीन इतिहास के क्रूर शासक थे। उनकी क्रूरता अपनी प्रजा के प्रति नहीं, लेकिन शत्रुओं के प्रति अवश्य स्पष्ट थी। विजय के बाद उन्होंने यवनों के शीश मुड़वाये, शकों के आधे सर को मुड़वाया, पारदो के लम्बे बाल स्त्रियों की तरह रखवा दिये, पह्लवों को दाढ़ी मूछ नहीं बनाने दी। सबकी विचित्र अपमानजनक और हास्यप्रद वेशभूषा बनाकर अपने राज्य की सीमाओं से बाहर देश निकाला दे दिया। इस प्रकार अपना साम्राज्य सुरक्षित किया तथा शत्रुओं से कठोर प्रतिकार भी लिया। राजा सगर की दो रानियां थीं। एक काश्यप पुत्री सुमति और दूसरी विदर्भराज की पुत्री केशिनी। उनके राज्य में तीन ऋषियों का महत्व था। सगर का पालन पोषण महर्षि और्व के आश्रम में हुआ था, अतः उनका महत्व सर्वोपरि था। कुल गुरु वशिष्ठ और तेजस्वी विश्वामित्र का आश्रम भी महत्वपूर्ण था। सगर की वैदर्भी रानी केशनी के पुत्र असमञ्जस थे। विपरीत परिस्थितियों में सगर के पलने और उसके कारण उत्पन्न असहनशीलता का शिकार असमञ्जस हुए। वे बचपन से ही उद्दण्ड, क्रूर और अनाचारी बन गये। राजा सगर को पुत्र के चरित्र निर्माण से अधिक साम्राज्य विस्तार में रुचि थी। उसमें असमञ्जस जैसे पुत्र ही सहायक थे।
दिग्विजय के बाद राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। सगर के शत्रुओं के लिए यही अवसर उपयुक्त था। अश्व पकड़ने और युद्ध करने का साहस किसी में नहीं था। अतः कपट चाल चली गयी। असमञ्जस से रुष्ट कुछ लोगों की मदद से अश्व को किसी तरह छिपा लिया गया और चुपके से महर्षि कपिल के आश्रम में छोड़ दिया गया। यज्ञाश्व गायब हो जाने से प्रचण्ड रोष स्वाभाविक था। खोजने पर अश्व मिला भी तो कपिल ऋषि के आश्रम में। सगर के पुत्रों में उस समय विवेक शेष ही कहां रह गया था। अपनी उद्दण्डता के कारण सभी साठ हजार योद्धा कपिल ऋषि के आश्रम में मारे गये। दिग्विजयी चक्रवर्ती सम्राट और उनकी अजेय सेना ऋषि आश्रमों में कितनी लाचार स्थिति में होती थी, यह भी उसका एक उदाहरण है।
यह दुःखद सूचना पाकर राजा सगर ने असमञ्जस के पुत्र अंशुमान् को भेजा। उन्होंने परिस्थिति को समझा और महर्षि कपिल के पास जाते ही दण्डवत् प्रणाम कर त्राहि माम् बोला। अपनी विनम्रता से उन्होंने कपिल को प्रसन्न किया और उनकी अनुमति से अश्व को ले जाकर यज्ञशाला में अपने पितामह को सौपा। महर्षि कपिल ने अंशुमान से कहा कि अपने पिता और उनके सैनिकों की क्रूरता का प्रायश्चित करने के लिए गंगा को पृथ्वी पर प्रवाहित करने का प्रयास करो। वह जलधारा देश की जीवनधारा होगी और आश्रम में मारे गये साठ हजार वीर भी तर जायेंगे क्योंकि उस धारा का कारण परोक्ष रूप में वही होंगे।
यज्ञाश्व को पाकर राजा सगर ने यज्ञ पूर्ण किया। सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान ही सम्राट हुए। गंगा की पवित्र धारा को स्वर्ग के पर्वतीय प्रदेश से मैदानी क्षेत्र में लाने का प्रयास प्रारम्भ हुआ। गंगा का प्रवाह जनहितकारी होने के साथ ही महर्षि कपिल की आज्ञा भी थी, अतः इसे पूरा करना अनिवार्य ही था। अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए तथा उनके पुत्र प्रसिद्ध भगीरथ थे जिनको अन्ततः गंगा का प्रवाह पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त हुई। महर्षि वाल्मीकि ने इसका वर्णन काफी विस्तार से रामायण में किया है। यह घटना लगभग 72 शताब्दियों पूर्व की है। इसकी तिथि लगभग 2100 युगाब्द पूर्व अथवा 5200 ईस्वी पूर्व मानी जानी चाहिए।
सम्राट सगर की तीन पीढ़ियों के प्रयासों से मैदानी क्षेत्र में गंगा का प्रवाह अस्तित्व में आया। अंशुमान, दिलीप और भगीरथ की तपस्या आज तक प्रसिद्ध है। गंगा को भागीरथी के साथ ही जाह्न्वी भी कहा जाता है। जिस समय गंगा का प्रवाह हिमालय से उतरा तो उसका वेग स्वभावतः बहुत अधिक था। मार्ग में राजा जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा प्रवाह उनकी यज्ञशाला को बहा ले गया। वह युग यज्ञों की चरम महत्ता का था। यज्ञ में विघ्न सबसे बड़ा अपराध माना जाता था। राजा जह्नु भगीरथ के अधीन रहे हों या स्वतन्त्र शासक, यह तो ज्ञात नहीं है, लेकिन उन्होंने इस परियोजना का विरोध कर दिया और अपने राज्य से गंगा का प्रवाह ले जाने की अनुमति नहीं दी। लेकिन इस समय तक गंगा- प्रवाह का महत्व काफी प्रचारित हो चुका था। यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच की प्रमुख संयुक्त परियोजना बन चुकी थी। अतः देवों और मानवों ने संयुक्त रुप से राजा जह़्नु से वार्ता की। उन्हें इस परियोजना की उपयोगिता और उनके राज्य को होने वाला लाभ समझाया। राजा जह्नु को आश्वासन दिया गया कि गंगा प्रवाह का नामकरण उनके नाम पर जाह्नवी क्या जायेगा। इसके बाद जह्नु ने अनुमति दी तथा धारा का प्रवाह आगे बढ़ सका। महर्षि वाल्मीकि ने राजा जह़्नु के विषय में और विस्तृत जानकारी नहीं दी है।
भगीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाये जाने की कथा में भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस जलधारा का नाम गंगा भगीरथ से पहले भी था। बाद में वह भगीरथ के नाम पर भारीरथी और जह्नु के नाम पर जाह्नवी कहलायी। सम्भावना है कि गंगा नदी का अस्तित्व पहले रहा हो और हिमालय की शिवालिक पर्वत मालाओं में भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण यह नदी पर्याप्त जलग्रहण न कर पाने से सूख गयी हो। अतः हिमालय क्षेत्र में गंगा नदी की जलस्रोत धाराओं को मोड़कर जलग्रहण बढ़ाया गया होगा।
गंगा को लाने के लिए सारा श्रम-तपस्या हिमालय क्षेत्र में ही किये जाने का उल्लेख मिलता है। शिवालिक का शाब्दिक अर्थ है शिव की जटायें। अतः शिवालिक पर्वत मालाओं में जलधारा के उलझ जाने और मैदानी क्षेत्र में आने के लिए मार्ग न मिल पाने की बात समझ में आती है। गंगा नदी के विषय में इस दृष्टि से वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता है। स्वयम् हिमालय पर्वत के जन्म और विकास के बारे में अनेक प्राचीन मान्यतायें वैज्ञानिक शोध से प्रमाणित हुई हैं।
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प्रतापी सम्राट भरत
सम्राट भगीरथ का राजनीतिक महत्व भी कम नहीं है। वंशक्रम के अनुसार वैवस्वत मनु के वंश में भगीरथ 43वें राजा थे। भारत के सम्राटों की एक सूची के अनुसार देश के 44वें सम्राट दुष्यन्त और 45वें सम्राट उनके पुत्र भरत थे जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। कहीं स्पष्ट उल्लेख न होने के बावजूद यह अनुमान किया जा सकता है कि सम्राट सगर के बाद अंशुमान्, दिलीप और भगीरथ नें गंगा के अवतरण की परियोजना पर अधिक ध्यान दिया जिससे साम्राज्य की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गयी। गंगा अवतरण से भगीरथ का नाम अमर हो गया लेकिन राजनीतिक दृष्टि से पुरुवंशीय दुष्यन्त को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला और वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट बन गये। दुष्यन्त के दिग्विजय अभियान का विवरण उपलब्ध न होने के कारण यह बता पाना सम्भव नहीं है कि उन्होंने भगीरथ के किस वंशज को पराजित किया था। लेकिन इतना तो निश्चित है कि उस समय इक्ष्वाकुवंश के राजाओं को पराजित किये बिना चक्रवर्ती सम्राट का पद प्राप्त कर लेने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
सम्राट भगीरथ का समय त्रेतायुग का द्वितीय चरण माना जाता है। इन युगों पर आधारित काल गणना में प्रत्येक युग को चार चरणों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार तीन शताब्दियों की अवधि एक चरण है और इस अवधि में आठ-नौ राजाओं का शासन काल रहा है। त्रेतायुग के द्वितीय और तृतीय चरण के लगभग पांच-छः शताब्दियों के इतिहास की कोई महत्वपूर्ण घटना उपलब्ध नहीं है। भगीरथ के बाद राजनीति में इक्ष्वाकुवंश का प्रभाव घटने लगा तथा पुरुवंश प्रभावी हो गया। लेकिन दुष्यन्त और भरत के अलावा इस अवधि में भरत वंश के भी किसी महत्वपूर्ण सम्राट का उल्लेख नहीं मिलता है। इसके बावजूद आश्चर्यजनक रूप से इक्ष्वाकुवंश, पुरुवंश, यदुवंश, निमि वंश आदि की वंशावली सुरक्षित है। इन वंशों के कुछ राजाओं की समकालीनता के आधार पर काल निर्धारण भी किया जा सकता है।
उपलब्ध तथ्यों के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि भगीरथ के प्रयासों से गंगा-अवतरण के बाद की शताब्दी में इस देश में दुष्यन्त और भरत का शासन रहा। इन दोनों सम्राटों की सामरिक सफलताओं, लोकहितकारी शासन तथा कला-कौशल की उन्नति के कारण आज तक जन मानस में उनका नाम अमर है। ये पुरुवंशी सम्राट थे। अब पुरुवंशी का परिचय प्राप्त कर लेना भी आवश्यक है। परम्परागत रूप से पुरुवंश को भी मनु वंश की ही एक शाखा माना जाता है। यह वंश मनु की पुत्री इला से चला है। अत्रि के पुत्र चन्द्रमा थे। उनके पुत्र बुध का विवाह मनु पुत्री इला से हुआ था।
बुध के जन्म का प्रसंग भी महत्वपूर्ण है। बृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण राजा चन्द्रमा ने कर लिया था। तारा अपहरण काण्ड को लेकर प्रसिद्ध तारकामय संग्राम हुआ था। बृहस्पति देवों के गुरु थे। उनकी पत्नी का अपहरण सम्पूर्ण देवों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था। महर्षि शुक्राचार्य चन्द्रमा के पक्ष में हो गये। शुक्राचार्य देवों से त्रस्त होकर विद्रोही हो गये थे और असुरों के सहयोग से उन्होंने अमृत रसायन का आविष्कार किया था। शुक्राचार्य के प्रभाव से दैत्य और दानव कुल के असुरों ने चन्द्रमा का साथ दिया। लम्बे युद्ध के बाद समझौता हुआ और बृहस्पति को उनकी पत्नी तारा वापस दे दी गयी। लेकिन तारा इस बीच गर्भवती हो चुकी थी। जब तारा ने पुत्र को जन्म दिया तो प्रश्न उठा कि यह पुत्र बृहस्पति का है या चन्द्रमा का? पूछने पर तारा ने स्पष्ट बता दिया कि यह चन्द्रमा का ही पुत्र है। इस पर उसे बृहस्पति ने झाड़ियों में फेंक दिया। चन्द्रमा ने उसे उठा लिया और अपना पुत्र मान कर पालन किया। उसका नाम बुध रखा गया। बुध बहुत बुद्धिमान् और प्रतापी राजा हुए। उसी बुध से ही चन्द्रवंश आगे चला है।
बुध के वंशजों में पुरूरवा, आयु, नहुष, ययाति जैसे प्रसिद्ध राजा हुए। ययाति की दो पत्निया थीं देवयानी और शर्मिष्ठा। शर्मिष्ठा के पुत्र अनु और पुरु थे। देवयानी के पुत्र यदु, तुर्वसु और द्रुह्य हुए। इन सभी से चन्द्रवंश की शाखायें चलीं। भरत पुरुवंश में हुए थे और द्वापर के अवतारी पुरुष कृष्ण यदुवंश में। इसी वंश की एक शाखा में एक राजा जह्नु भी हुए है। यह शाखा महोदय या कान्यकुब्ज क्षेत्र में शासन करती थी। विश्वामित्र भी इन्ही के वंशज थे। राजा जह्नु के नाम पर गंगा को जाह्नवी कहा गया है।
सूर्यवंश या मनुवंश तथा चन्द्रवंश या बुधवंश की अनेक शाखायें रहीं हैं। लेकिन इतिहास में इक्ष्वाकुवंश और पुरुवंश ही सर्वाधिक प्रभावशाली रहे हैं। पुरुवंश में पन्द्रहवीं और सोलहवीं पीढ़ी में दुष्यन्त और भरत हुए थे। भरत का काल निर्णय करने के लिए हमारे पास पर्याप्त सूत्र उपलब्ध हैं। हमारे देश के चक्रवर्ती सम्राटों की सूची में भरत का नाम पैंतालिसवां है। वे भगीरथ के कुछ बाद में हुए थे। भरत पुरुवंश की सोलहवीं पीढ़ी में हुए थे और पुरुवंश की इकत्तीसवीं पीढ़ी में राजा दिवोदास हुए हैं जिनकी बहन अहल्या गौतम ऋषि की पत्नी थी जिससे राम की भेंट हुई थी। इस प्रकार राजा दिवोदास राम के पिता दशरथ के समकालीन होने चाहिए।
त्रेतायुग के अन्तिम सम्राट दशरथ पुत्र राम और पुरुवंशी दुष्यन्त पुत्र भरत के बीच सोलह से बाईस पीढ़ियों का अन्तर स्पष्ट है। यह बात इस तथ्य से भी पुष्ट होती है कि भगीरथ मनुवंश की तैतालीसवीं पीढ़ी में हुए थे और राम पैंसठवीं पीढ़ी में थे। इस प्रकार भगीरथ और राम के बीच बाइस पीढ़ियों का अन्तर है। दो अलग-अगल राजवंशों में इतना अन्तर स्वीकार्य है। एक तथ्य यह भी है कि जितने विस्तृत रूप से इक्ष्वाकुवंश की वंशावली और वंशानुचरित हमारे पास सुरक्षित है, उतना किसी अन्य वंश का नहीं। इस लम्बी वंशावली में अनेक नाम छूट भी गये हैं। यह कमी इक्ष्वाकुवंश के बारे में सबसे कम और अन्य वंशों में अधिक है। इस प्रकार सम्राट भरत वैवस्वत मनु के लगभग सोलह शताब्दियों के बाद हुए थे। वह समय दो हजार वर्ष युगाब्द पूर्व या लगभग 5100 ई.पू. हैं। जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा, वे सम्राट भरत हमारे समय से 7100 वर्ष पहले हुए थे।
साहित्य में दुष्यन्त और भरत की दिग्विजयों से अधिक दुष्यन्त की प्रणय कथा सम्मानित है। महर्षि कण्व के आश्रम में एक अनाथ कन्या शकुन्तला पल रही थी। एक दिन अचानक आश्रम में दुष्यन्त ने उसे देखा, परिचय हुआ और दोनों के बीच गहरा प्रेम हो गया। दोनों ने आश्रम में ही गन्धर्व विवाह किया और दुष्यन्त राजधानी लौट गये। शकुन्तला ने उसी आश्रम में इस प्रेम के परिणाम के रूप में भरत को जन्म दिया। आश्रम में पल रहा भरत बचपन से ही सिंह जैसे हिंसक पशुओं के साथ खिलौनों की तरह से खेलता रहा। महर्षि कण्व ने अपने शिष्यों के साथ शकुन्तला को पतिगृह अर्थात् दुष्यन्त के राजमहल में भेजा। पहले तो दुष्यन्त लोक भय से उसे स्वीकार नहीं कर पाये लेकिन जब ऋषियों ने उन्हें अपनी पत्नी शकुन्तला और पुत्र भरत को अपनाने का आदेश दिया तो दुष्यन्त ने स्वीकार कर लिया। वही बालक आगे चलकर प्रतापी सम्राट भरत हुआ।
महाकवि कालिदास ने इस कथा के काव्यात्मक सौन्दर्य के लिए कवि-कल्पना का सहारा लेकर काफी परिवर्तन करके विश्व प्रसिद्ध नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ लिखा है। लेकिन उस नाटक में कल्पना अधिक है और इतिहास कम। यह कथा ऐतिहासिक शुद्धता के साथ इतिहास ग्रन्थ महाभारत में वर्णित है।
भरत के बाद पांचवी पीढ़ी में सम्राट हस्ती या हस्तिन् हुए जिन्होंने हस्तिनापुर नगर बसाया जो आने वाली शताब्दियों में भारतीय राजनीति का केन्द्र बना रहा। हस्तिन् पुरुवंश की इक्कीसवीं पीढ़ी में हुए थे। पुरुवंश की पच्चीसवीं पीढ़ी में सम्राट कुरु हुए। उनके नाम पर कुरुक्षेत्र स्थापित हुआ। इन्हीं के नाम पर आगे कुरुवंश कहलाया जिनके बीच कुरुक्षेत्र का प्रसिद्ध महाभारत युद्ध लड़ा गया था। ऐसा लगता है कि सम्राट दुष्यन्त और भरत से कुरु के समय तक भारत में यह पुरुवंश या भरत वंश ही प्रबल रहा। इक्ष्वाकुवंश में इस बीच किसी प्रतापी सम्राट का नाम नहीं मिलता है। अतः भरत वंश की दस पीढ़ियों ने भारत पर एकछत्र राज्य किया था, ऐसा माना जाना चाहिए।
दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………