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भार्गव राम (परशुराम)

             अग्रे चत्वारो वेदाः, पृष्ठे सशरम् धनुः।।

              भारतीय इतिहास के युगनायकों को अवतारी व्यक्तित्व माना गया है। दशावतार गणना में भार्गव राम अर्थात् लोकिविश्रुत भगवान् परशुराम को पञ्चम अवतार माना जाता है। भार्गव राम अर्थात् लोकिविश्रुत परशुराम और कौशिक विश्वामित्र का उदय सत्ययुग के अन्तिम चरण की सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं। वास्तव में इन्हीं दोनों महामानवों को युग परिवर्तन का श्रेय जाता है। दोनों ही तपस्वी ऋषि होते हुए भी समाज और राजनीति को प्रभावित करने की विलक्षण क्षमता भी रखते थे। दोनों के पास तपोबल के साथ ही शस्त्रबल भी था। भार्गव राम मूलतः तपस्वी थे और परिस्थितिवश सामरिक क्षेत्र में उतरे थे। विश्वामित्र राज्य छोड़कर तपस्वी बने थे। दोनों ही क्रान्तिकारी व्यक्तित्व थे। सत्ययुग की अन्तिम शताब्दियाँ राजनीतिक दृष्टि से बहुत उथल-पुथल भरी रहीं और अनेक युद्धों में जीत-हार के साथ ही देशव्यापी गृहयुद्ध भी हुआ। उसमें विध्वंस के साथ ही देश को स्थिरता और सुव्यवस्था भी मिली। राजतन्त्र और धर्मतन्त्र के बीच सन्तुलन स्थापित हुआ।

इस सङ्घर्षपूर्ण अभियान में भार्गव राम महानायक बनकर उभरे।   उनके जीवन का आदर्श था,

          अग्रे चत्वारो वेदाः, पृष्ठे सशरम् धनुः। द्वयोरपि समर्थो अहम्, शापादपि शरादपि।

        इसका सन्देश यह है कि हमारे आगे चारो वेद होने चाहिए जिससे धर्म का रक्षण-पालन हो सके। परन्तु आवश्यक होने पर वेद को न मानने वाले लोगों को उचित मार्ग पर लाने के लिए धनुष-बाण जैसा शस्त्र-         बल भी आपद्-धर्म के रूप में स्वीकार्य है।

सत्ययुग के प्रारम्भिक वर्षों में ही वरुण पुत्र वशिष्ठ ने देश में धर्मतन्त्र के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था और नैतिकता के संरक्षण का कार्य प्रारम्भ किया था। समय के साथ अनेक अन्य ऋषि आश्रम भी अस्तित्व में आये। इन्हीं में भृगु ऋषि भी एक थे। भृगु ऋषि को पैरों और सिर को धूप से बचाने के लिए जूते और छाते का आविष्कार करने का भी श्रेय दिया जाता है। इस आविष्कार की कथा भी बड़ी रोचक है। भृगु के आश्रम में शस्त्र शिक्षा भी दी जाती थी। एक बार भृगु किसी नये अस्त्र का परीक्षण कर रहे थे। भृगु ऋषि अस्त्र को लक्ष्य पर फेंकते थे और उनकी पत्नी फिर उसी अस्त्र को उठा लाती थीं और वे पुनः लक्ष्यवेध करते थे। धूप प्रखर थी, अतः उनकी पत्नी के पैर धूप में जलने लगे। भृगु तो अपने कार्य में तल्लीन थे, लेकिन उनकी पत्नी का उत्साह जाता रहा। पहले तो भृगु अपनी पत्नी से रुष्ट हुए, लेकिन जब उन्होंने पैरों में छाले देखे तो ऋषि के प्रयास दूसरी दिशा में मुड़ गये और ताप से बचने का उपाय खोजने लगे। इसी प्रयास में भृगु को पादुका और छत्र बनाने में सफलता मिली। पादुका पहनकर और छत्र लेकर आराम से टहला जा सकता था और धूप से बचा जा सकता था। बाद में पादुका कंकरीली, पथरीली जमीन और पानी-कीचड़ से भी पैरों की रक्षा करने लगी और छाता वर्षा से भी बचने के काम आने लगा। निश्चित रूप से अन्य ऐसे आविष्कार भी ऐसी ही रोचक परिस्थितियों में हुए होंगे।

विश्वामित्र और भार्गव राम समकालीन थे। यह बात इन दोनों महापुरुषों की जन्म-कथा से स्पष्ट है। चन्द्रवंशी राजा पुरुरवा के वंशज एक राजा कुशाम्ब हुए। उनके पुत्र गाधि कौशिक थे। गाधि की पुत्री सत्यवती भृगुपुत्र ऋचीक की पत्नी थी। सत्यवती तथा उनकी माता एक ही समय में गर्भवती थीं। ऋषि ऋचीक ने गर्भवती स्त्रियों के सेवन के लिए औषधि तैयार की। वह औषधि गर्भकाल में बालक के गुणों को प्रभावित करने की क्षमता रखती थी। क्षत्रिय गुणों वाली औषधि सत्यवती की माता के लिए तथा ब्राह्मण धर्म वाली औषधि अपनी पत्नी सत्यवती के लिए बताकर उन्होंने दे दी। बाद में सत्यवती की माता ने औषधियाँ बदल लीं।

इस प्रकार सत्यवती के पुत्र जमदग्नि हुए। औषधि बदल जाने का ज्ञान होने पर पत्नी के अनुरोध पर ऋषि ऋचीक ने निवारण औषधि दे दी थी, अतः उनके पुत्र जमदग्नि ब्राह्मण स्वभाव वाले रहे। जमदग्नि का विवाह इक्ष्वाकु कुल की कन्या रेणुका से हुआ। इन्हीं रेणुका-जमदग्नि के पुत्र युग नायक भार्गव राम थे जो परशुराम के नाम से लोकिविख्यात हैं। सत्यवती की माता ने ऋचीक ऋषि की औषधि के प्रभाव से विश्वामित्र जैसा तपस्वी बालक उत्पन्न किया जो राज परिवार में पलने के बाद भी ब्रह्मर्षि हुए। इस प्रकार विश्वामित्र और जमदग्नि समवयस्क थे। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि कौशिक विश्वामित्र तथा भार्गव राम सत्ययुग के अन्तिम चरण में हुए और दशरथ-पुत्र राघव राम त्रेता युग के अन्त में।

उल्लेख मिलता है कि चन्द्रवंश की हैहय शाखा ने इक्ष्वाकुओं को पराजित किया था। सम्राटों के अनुक्रम में हैहयवंशी सम्राट् सहस्रबाहु अर्जुन के बाद लोकप्रिसद्ध सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पिता सम्राट् सत्यव्रत त्रिशङ्कु का नाम आता है। इससे स्पष्ट है कि सत्यव्रत ने दिग्विजय के समय हैहयों की शक्ति को समाप्त कर पुनः इक्ष्वाकुवंश की प्रतिष्ठा स्थापित की थी। भृगुवंशी जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने एक महायुद्ध का नेतृत्व करते हुए सहस्रबाहु अर्जुन का वध कर दिया था। वह भारत का प्रथम व्यापक गृहयुद्ध माना जाता था।

सहस्रबाहु अर्जुन के दिग्विजय अभियान का सशक्त प्रतिरोध भार्गवों के ऋषि आश्रमों ने भी किया था। अतः हैहयों ने आश्रम भी उजाड़े तथा ऋषियों को भी अपमानित किया। इन्हीं युद्धों में ऋषि जमदग्नि भी मारे गये। ऋषि आश्रमों पर आक्रमण ही हैहयों को भारी पड़ा। उस समय की संस्कृति में ऋषि पूज्य थे और उनके आश्रम अनुलङ्घ्य माने जाते थे। आश्रमों में बिना अनुमति चक्रवर्ती सम्राट भी प्रवेश नहीं कर सकते थे। अतः जमदग्नि पुत्र राम ने आश्रमों पर आक्रमण के विरोध में हैहयों पर आक्रमण कर दिया।

कहते हैं कि जब युवा भार्गव ऋषि राम ने उजड़ा हुआ आश्रम तथा मारे गये पिता का मृत शरीर देखा तो उन्होंने ऐसे अत्याचारी राजाओं का अन्त करने का प्रण कर लिया। उन्होंने 21 बार युद्ध-अभियान चलाकर अनेक युद्ध किये तथा अधर्मी और अत्याचारी राजाओं का संहार किया। युद्ध में हैहय सम्राट् सहस्रबाहु अर्जुन मारे गये।उस युद्ध का नेतृत्व भार्गव ऋषि राम ने किया था। अतः वे ही विजेता सम्राट कहे जा सकते थे। इतिहास में एक तपस्वी ऋषि की सामरिक विजय अद़्भुत घटना थी। ऋषि युद्धकला सिखाते तो थे, लेकिन स्वयम् कभी युद्ध नहीं करते थे। भार्गव ऋषि राम ने सफल युद्ध-अभियान का संचालन किया और शक्तिशाली क्षत्रियों के राज्यों का विनाश करके स्वयम् अधिपति हो गये। बाद में ऋषियों की मध्यस्थता में तय हुआ कि ऋषि राम सम्राट नहीं बनेंगे। देश का शासन यथास्थान शासक कुल ही चलाते रहेंगे। आश्रम सीधे राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा पहले की तरह सम्राटों का ही यह दायित्व होगा कि वे आश्रमों की प्रतिष्ठा की रक्षा करते रहें।

 इतिहास के दर्पण में

सत्ययुग का सत्य

     वैवस्वत मनु से हरिश्चन्द्र तक लगभग तैंतीस पीढ़ियों का शासनकाल है। इसी अवधि को कृतयुग अथवा सत्ययुग कहा जाता है। यह अवधि कुल कितनी थी और वर्तमान समय से कितने वर्ष पूर्व थी, इसमें मतभेद के लिए पर्याप्त अवसर हैं। उस समय का कोई भी पुरातात्विक प्रमाण हमारे पास निर्विवाद रूप से उपलब्ध नहीं है। आधुनिक अर्थों में युक्त इतिहास भी कहीं उपलब्ध नहीं हुआ है। प्राचीन भारतीय इतिहास ग्रन्थों में सुरक्षित एकमात्र सुनिश्चित जानकारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं के नाम तथा महत्त्वपूर्ण राजाओं के समय की कुछ राजनीतिक और सामाजिक घटनायें हैं। इसी आधार पर हमने उस युग का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

प्राचीन भारतीय इतिहासकारों ने वैवस्वत मनु से गौतम बुद्ध तक के लम्बे इतिहास को चार युगों सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग में विभाजित किया है। चारो युगों को मिलाकर महायुग या चतुर्युगी कहा जाता है। द्वापर युग का अन्त और कलियुग आरम्भ होने की तिथि निश्चित है जो 20 फरवरी 3102 ई.पू. को अपराह्न 2.27-30 बजे हुआ था। उस समय से गौतम बुद्ध के समय तक मगध में 32 क्रमागत राजा हुए, यद्पि कलियुग में महाभारत में मारे गये वृहदबल के बाद गौतम बुद्ध इक्ष्वाकु वंश की 25वीं पीढ़ी में हुए थे। वैवस्वत मनु से गौतम बुद्ध तक सूर्य वंश की सवा सौ से अधिक पीढ़ियाँ हुईं। युगाब्ध को कलि सम्वत् भी कहते हैं। इस प्रकार कलियुग की बारह शताब्दियों में इक्ष्वाकुवंश में 25 तथा मगध में 32 पीढ़ियाँ हुईं। चूँकि बाद में इतिहास में मगध प्रभावी रहा, अतः मगध की वंशावली अधिक महत्वपूर्ण और प्रामाणिक रूप से उपलब्ध है, ऐसा माना जाता है।

इस प्रामाणिक विवरण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि प्रत्येक युग में राजाओं की क्रमागत संख्या तीस से पैंतीस तक की अवधि लगभग बारह सौ वर्ष थी। हमें ज्ञात है कि गौतम बुद्ध का जीवनकाल युगाब्द 1215 से युगाब्ध 1295 तक अर्थात् 1887 ई. पूर्व से 1807 ई. पूर्व था। सत्ययुग गौतम बुद्ध से 4800 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ और 3600 वर्ष पूर्व समाप्त हुआ। अर्थात् सत्ययुग की अवधि 3600 वर्ष पूर्व से 2400 युगाब्द पूर्व अथवा 6702 ईस्वी पूर्व से 5502 ई. पू. तक थी।

वर्तमान समय से लगभग 8700 से 7500 वर्ष पूर्व तक रहा सत्ययुग सभ्यता के प्रारम्भ का समय था। कृषि कला, पशुपालन, सामूहिक जीवन, शासन-प्रशासन और शिक्षा व्यवस्था आरम्भ होना सामाजिक जीवन की मुख्य उपलब्धियाँ हैं। कहा जा सकता है कि मानव सभ्यता और संस्कृति के मूल आधार उस युग में स्थापित किये गये, सभ्यता के प्रमुख तत्वों का बीजारोपण हुआ। राजा मान्धाता ने अपने समय के ज्ञात सभी शासकों पर विजय प्राप्त कर अन्तर्राष्ट्रीय सैनिक अभियान और विश्वविजय की भी अवधारणा को ज्नम दिया। कई राजाओं ने देश की पश्चिमी सीमा पर सफल युद्ध करके तथा उत्तरी सीमा पर त्रिविष्टप राज्य से सन्धि-सहयोग कर विदेश नीति को भी पुष्ट किया। हमारे देश की सीमाओं और संस्कृति का विस्तार धीरे-धीरे हिमालय से दक्षिण समुद्र (हिन्द महासागर) तक हो गया।

उसी युग में ऋषि शुक्राचार्य को असुरों का समर्थन लेना पड़ा था। शुक्राचार्य ने चमत्कारी औषधि अमृत रसायन का आविष्कार असुरों के सहयोग से ही किया था। स्वभावतः इससे असुर अधिक शक्तिशाली बने। आयुर्वेद में शुक्राचार्य का महत्व कम नहीं है, लेकिन विद्रोही होने के कारण उन्हें उतना सम्मान नहीं मिल सका। उन्होंने देवों और असुरों की विरोधी संस्कृतियों के बीच समन्वय का बहुत प्रयास किया था।

राजनीतिक दृष्टिकोण से पूरे सत्ययुग में इक्ष्वाकुवंश प्रभावी रहा, यद्यपि चन्द्रवंश के प्रमुख सम्राटों पुरूरवा, ययाति, नहुष आदि ने कई बार उल्लेखनीय सफलतायें प्राप्त कीं। चन्द्रवंश की हैहय शाखा ने इक्ष्वाकुओं को पराजित किया। चन्द्रवंशी रजि ने देवों की ओर से युद्ध करके दैत्यों को पराजित किया था। उस युद्ध से पूर्व देवों एवं दैत्यों दोनों ही पक्षों ने महारथी रजि से सहायता मांगी थी। रजि की शर्त थी कि मैं उसी पक्ष की सहायता करूँगा जो युद्ध में विजय के बाद मुझे राजा स्वीकार करें। दैत्यों ने कहा कि हमारे राजा प्रह्लाद हैं और वही रहेंगे। देवों ने रजि की शर्त स्वीकार कर ली और रजि ने देवों की ओर से युद्ध किया। देवों ने राजा शतक्रतु इन्द्र ने बाद में रजि को इन्द्र पद नहीं सौपा। इस पर रजि के पुत्रों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र पद पर अधिकार कर लिया।

महारथी रजि पुरूरवा के पौत्र और नहुष के भाई थे। नहुष ने भी स्वर्ग पर अधिकार करके इन्द्र पद प्राप्त किया था। बाद में वे इन्द्र की पत्नी पर भी अधिकार करने के प्रयास में सप्त ऋषियों के कोप का भाजन बने और स्वर्ग से निष्कासित कर नाग लोक भेज दिये गये। हो सकता है कि भाई का बदला लेने के लिए ही रजि ने इन्द्र पद पाने की शर्त युद्ध में सहायता के लिए रख दी हो। इससे यह बात स्पष्ट हुई कि नहुष और रजि, त्रिविष्टप या स्वर्ग में शतक्रतु और असुर सम्राट प्रह्लाद समकालीन राजा थे। अभी यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि रजि से युद्ध में पराजित हुए दैत्य राजा प्रह्लाद ही लोकप्रसिद्ध हिरण्य कशिपु के पुत्र प्रह्लाद थे अथवा इसी नाम के कोई अन्य दैत्य राजा थे।

उस युग के अस्त्र-शस्त्रों में पत्थर और काष्ठ का प्रयोग बहुत मिलता है। धातुओं से हथियार बनाना भी प्रारम्भ हो गया था। सत्ययुग में धनुष-बाण विकसित हो गया था। उस युग में पशुपालन और कृषि ही मुख्य उद्योग थे। इसके अलावा कृषि के सहायक उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, रथ आदि वाहन, दैनिक घरेलू वस्तुएं, बर्तन, आभूषण आदि के साथ वस्त्रों का निर्माण भी शिल्पियों द्वारा कुटीर उद्योग के रूप में विकसित हो रहा था। इनका विकास होने तथा बहुराष्ट्रीय सम्पर्क बढ़ने से व्यापार की भी उन्नति हुई और व्यापारी वर्ग भी महत्त्वपूर्ण होने लगा था। धर्म के रूप में वेद मन्त्रों की गूंज ही प्रमुख थी। प्रमुख मन्त्रदृष्टा ऋषि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गृत्समद आदि उसी युग में हुए मान्धाता ने अपने समय के ज्ञात सभी शासकों पर विजय प्राप्त कर अन्तर्राष्ट्रीय सैनिक अभियान और विश्वविजय की भी अवधारणा को ज्नम दिया। कई राजाओं ने देश की पश्चिमी सीमा पर सफल युद्ध करके तथा उत्तरी सीमा पर त्रिविष्टप राज्य से सन्धि-सहयोग कर विदेश नीति को भी पुष्ट किया। हमारे देश की सीमाओं और संस्कृति का विस्तार धीरे-धीरे हिमालय से दक्षिण समुद्र (हिन्द महासागर) तक हो गया। उसी युग में ऋषि शुक्राचार्य को असुरों का समर्थन लेना पड़ा था। शुक्राचार्य ने चमत्कारी औषधि अमृत रसायन का आविष्कार असुरों के सहयोग से ही किया था। स्वभावतः इससे असुर अधिक शक्तिशाली बने। आयुर्वेद में शुक्राचार्य का महत्व कम नहीं है, लेकिन विद्रोही होने के कारण उन्हें उतना सम्मान नहीं मिल सका। उन्होंने देवों और असुरों की विरोधी संस्कृतियों के बीच समन्वय का बहुत प्रयास किया था।

राजनीतिक दृष्टिकोण से पूरे सत्ययुग में इक्ष्वाकुवंश प्रभावी रहा, यद्यपि चन्द्रवंश के प्रमुख सम्राटों पुरूरवा, ययाति, नहुष आदि ने कई बार उल्लेखनीय सफलतायें प्राप्त कीं। चन्द्रवंश की हैहय शाखा ने इक्ष्वाकुओं को पराजित किया। चन्द्रवंशी रजि ने देवों की ओर से युद्ध करके दैत्यों को पराजित किया था। उस युद्ध से पूर्व देवों एवं दैत्यों दोनों ही पक्षों ने महारथी रजि से सहायता मांगी थी। रजि की शर्त थी कि मैं उसी पक्ष की सहायता करूँगा जो युद्ध में विजय के बाद मुझे राजा स्वीकार करें। दैत्यों ने कहा कि हमारे राजा प्रह्लाद हैं और वही रहेंगे। देवों ने रजि की शर्त स्वीकार कर ली और रजि ने देवों की ओर से युद्ध किया। देवों ने राजा शतक्रतु इन्द्र ने बाद में रजि को इन्द्र पद नहीं सौपा। इस पर रजि के पुत्रों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र पद पर अधिकार कर लिया। महारथी रजि पुरूरवा के पौत्र और नहुष के भाई थे। नहुष ने भी स्वर्ग पर अधिकार करके इन्द्र पद प्राप्त किया था। बाद में वे इन्द्र की पत्नी पर भी अधिकार करने के प्रयास में सप्त ऋषियों के कोप का भाजन बने और स्वर्ग से निष्कासित कर नाग लोक भेज दिये गये। हो सकता है कि भाई का बदला लेने के लिए ही रजि ने इन्द्र पद पाने की शर्त युद्ध में सहायता के लिए रख दी हो। इससे यह बात स्पष्ट हुई कि नहुष और रजि, त्रिविष्टप या स्वर्ग में शतक्रतु और असुर सम्राट प्रह्लाद समकालीन राजा थे। अभी यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि रजि से युद्ध में पराजित हुए दैत्य राजा प्रह्लाद ही लोकप्रसिद्ध हिरण्य कशिपु के पुत्र प्रह्लाद थे अथवा इसी नाम के कोई अन्य दैत्य राजा थे।

उस युग के अस्त्र-शस्त्रों में पत्थर और काष्ठ का प्रयोग बहुत मिलता है। धातुओं से हथियार बनाना भी प्रारम्भ हो गया था। सत्ययुग में धनुष-बाण विकसित हो गया था। उस युग में पशुपालन और कृषि ही मुख्य उद्योग थे। इसके अलावा कृषि के सहायक उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, रथ आदि वाहन, दैनिक घरेलू वस्तुएं, बर्तन, आभूषण आदि के साथ वस्त्रों का निर्माण भी शिल्पियों द्वारा कुटीर उद्योग के रूप में विकसित हो रहा था। इनका विकास होने तथा बहुराष्ट्रीय सम्पर्क बढ़ने से व्यापार की भी उन्नति हुई और व्यापारी वर्ग भी महत्त्वपूर्ण होने लगा था।

धर्म के रूप में वेद मन्त्रों की गूंज ही प्रमुख थी। प्रमुख मन्त्रदृष्टा ऋषि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गृत्समद आदि उसी युग में हुए थे। आध्यात्मिक दृष्टि से माना जाता था परमात्मा की शक्ति ही प्रकृति में व्याप्त है। सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि व वनस्पतियों में उसी की चमत्कारी शक्ति है। इन्हीं शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर उनसे लाभ उठाया जा सकता है। इस प्रकार अध्यात्म और विज्ञान को साथ लेकर चलने वाले दर्शन की नींव पड़ गयी थी।

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                                                                                    दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ………  🙂 

By Anil

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