पुरुकुत्स द्वारा रसातल के
मौनेय गन्धर्वों का दमन
मान्धाता के पुत्र पुरुकुत्स भी पिता के समान पराक्रमी थे । उन्होंने रसातल में शक्तिशाली गन्धर्वों का दमन किया था। उस समय पश्चमी हिमालय के निकट मध्य एशिया में रहने वाले गन्धर्वों की मौनेय शाखा का अधिपत्य रसातल देश में हो गया था। रसातल देश भी पाताल लोक के अन्तर्गत माना जाता है। यहाँ मुख्य रूप से नाग कुल का वर्चस्व था।
मौनेय गन्धर्वों ने नागकुल पर विजय प्राप्त कर ली और उनके अधिकारों, सम्पत्तियों एवम् रत्नों पर कब्जा कर उन्हें खदेड़ दिया। नागकुल के प्रमुख वैकुण्ठ में अपने संरक्षक विष्णु से मिले और स्थिति से अवगत कराया। विष्णु ने उनसे कहा कि सम्राट मान्धाता ने विश्वविजय किया है। वे सप्तद्वीपा भूमण्डल के एकछत्र सम्राट हैं। अपने साम्राज्य में सुव्यवस्था स्थापित करना भी उनका ही दायित्व है। तुम लोग मान्धाता के पुत्र पुरुकुत्स से ही कहो। वे अवश्य न्याय व्यवस्था स्थापित करेंगे।
इसके बाद नागों ने पुरुकुत्स को स्थिति बतायी। वास्तव में विश्वविजय उतना कठिन कार्य नहीं है जितना कठिन है विश्व साम्राज्य की सुरक्षा और सुव्यवस्था स्थापित करना। पुरुकुत्स को विश्व साम्राज्य तो अपने पिता मान्धाता से उत्तराधिकार में मिला था, लेकिन उस पर शासन उन्होंने अपनी योग्यता के बलबूते पर ही किया। पुरुकुत्स को पृथ्वी से रसातल ले जाने और वहाँ की भौगोलिक एवम् राजनीतिक स्थितियों का मार्गदर्शन करने का कार्य नागराज की बहन नर्मदा ने किया था।
पुरुकुत्स ने रसातल में गन्धर्वों को परास्त किया और नगाकुल की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की। इस अभियान की सफलता के बाद पुरुकुत्स अपने देश लौट आये। उनके लिए इस प्रकार के विद्रोहों को दबाना, शान्ति एवम् सुव्यवस्था स्थापित करन तो सहज स्वाभाविक कार्य था, लेकिन नगाकुल के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इस अभियान के दौरान पुरुकुत्स और नर्मदा साथ में रहे, परस्पर घनिष्ठता हुई और बाद में दोनो का विवाह हो गया। नागों राजकुमारी नर्मदा का सम्मान बहुत बढ़ गया। वह उनके लिए मुक्तिदात्री बन गयी थी। जो नर्मदा का नाम भी ले ले, वह नागों के लिए सम्मानित व्यक्ति होता था। उनके प्रिय व्यक्ति के सभी अपराध क्षम्य थे। नागों को पुरुकुत्स की ओर से भी सुरक्षा प्राप्त थी।
अब यह भी आवश्यक है कि पाताल लोक, रसातल, नागकुल तथा गन्धर्वों के विषय में भी परिचय प्राप्त कर लिया जाये। प्राचीन काल के इतिहास में देव, असुर एवम् मानव लोगों के साथ पाताल लोक का भी बहुत महत्व है। प्राचीन काल के अनेक प्रसंगों में पाताल का उल्लेख मिलता है। पाताल सभ्यता एवम् संस्कृति की दृष्टि से स्वर्ग तथा पृथ्वी की अपेक्षा कम विकसित था। राजनीतिक दृष्टि से पाताल में नागकुल ही सर्वाधिक प्रभावशाली था। पाताल का नागकुल वास्तव में उसी नागकुल की शाखा थी जिसकी एक प्रमुख शाखा शेषनाग कुल के नाग में मध्य एशिया में प्रभावशाली स्थिति में थी।
पाताल लोक जम्बू द्वीप अथवा एशिया की विभिन्न सभ्यताओं से प्रभावित रहा ही, राजनीतिक दृष्टि से उस क्षेत्र पर देव, मानव तथा असुर शक्तियों का प्रभाव बना रहा। समय-समय पर इन्हीं लोगों ने वहाँ शासन भी किया। यह भी सत्य है कि उस युग में उतनी दूर के क्षेत्र पर लम्बे समय तक केन्द्र से शासन कर पाना बहुत ही कठिन था। अतः स्थानीय राजा लगभग स्वतन्त्र ही होते थे।
अब महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पाताल लोक वहाँ कहाँ स्थित था। इस विषय में अधिकतर विद्वानों का मत है कि भूमण्डल के पश्चमी गोलार्द्ध को ही पाताल कहा जाता था। यह भारत के ठीक नीचे पड़ता था और पूर्वी तथा पश्चिमी दो समुद्रों से यात्रा करके वहाँ पहुंचने में लगभग समान दूरी तय करनी पड़ती थी। निश्चित रूप से वह महीनों की लम्बी उबाऊ यात्रा होती थी। पाताल लोक के सात प्रदेश माने जाते हैं, उसमे मुख्य पाताल के अलावा रसातल भी बहुत महत्वपूर्ण देश रहा है। अतल, वितल, सुतल, नितल, महातल, गभस्तिमान् तथा रसातल महत्वपूर्ण क्षेत्र थे। ये राजनीतिक इकाई राष्ट भी हो सकते हैं और प्रमुख द्वीप भी। वर्तमान भू-मण्डल पर इनकी पहचान स्पष्ट रूप से कर पाना कठिन है। पाताल लोक में आस्ट्रेलिया ग्रीन लैण्ड तथा उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका सम्मिलित माने जा सकते है।
सत्ययुग के अन्तिम चरण में राजनीतिक उथल-पुथल
पुरुकुत्स की पत्नी नर्मदा से उत्पन्न पुत्र त्रसद्दस्यु उनके योग्य उत्तराधिकारी हुए। त्रसद्दस्यु के पुत्र अनरण्य थे। उनके राज्यकाल में आध्यात्मिक विद्या की उल्लेखनीय प्रगति हुई। सम्राट अनरण्य की पुत्री का विवाह पिप्पलाद ऋषि के साथ हुआ था। प्रश्नोपनिषद् के नायक उनके दामाद ही हैं। सम्राट अनरण्य का शासन अब से 7800 वर्ष पूर्व था।
एक उल्लेख के अनुसार एक युद्ध में सम्राट अनरण्य को वीरगति प्राप्त हुई थी। विष्णु पुराण के अनुसर अनरण्य के दौरान अनरण्य का वध किया था। यहाँ यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि अनेक रावण होने का तथ्य स्पष्टतः माना गया है। राम के समकालीन लंका नरेश रावण रामकथा के साथ ही अधिक प्रसिद्ध हो गये हैं। सम्राट अनरण्य ओर राम के बीच चालीस से अधिक पीढियां हो गयी हैं। अनरण्य सत्ययुग के तृतीय चरण में हुए थे जबकि राम त्रेता युग के अन्त में हुए थे। अतः निश्चित रूप से अनरण्य का वध करने वाले रावण और राम के हाथों मारे गये रावण अलग-अलग व्यक्ति थे। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि रावण लंका के राजाओं की पदवी थी। मेवाड़ के राजाओं को राव कहा जाता रहा है, स्वर्ग के सम्राट को इन्द्र कहते थे और मिस्र के सम्राट फराओं कहलाते थे। रावण शब्द भी ऐसा ही पदनाम हो सकता है। आज हम निश्चित रूप से यह नहीं बता सकते कि सम्राट अनरण्य के मारे जाने के बाद उनके पुत्र पृषदश्व राजधानी से भाग गये अथवा उन्हें युद्ध की कमान संभाली और विजयी हुए या रावण के संरक्षण में राजा बने रहे। पृषदश्व के पुत्र हर्यश्व हुए । उनके पुत्र हस्त थे। हस्त के पुत्र सुमना हुए, सुमना के पुत्र त्रिधन्वा तथा उनके पुत्र त्रय्यारुणि हुए। इन छह पीढ़ियों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि रावण से पराजय के बाद इन छह पीढ़ियों के समय डेढ़ से दो शताब्दी तक इस वंश को विशेष सैनिक सफलतायें न मिल सकी हों लेकिन निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।
त्रय्यारुणि के पुत्र इतिहास प्रसिद्ध सत्यव्रत हुए। वे अनेक कारणों से प्राचीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। सत्यव्रत ने अनरण्य की वीरगति के बाद इस वंश को भारत में फिर से प्रतिष्ठा दिलायी और सफल दिग्विजय अभियान चलाया। उनके समय में वशिष्ठ परिवार का महत्व कम हुआ और विश्वामित्र की प्रतिष्ठा बढ़ी। विश्वामित्र क्रान्तिकारी और प्रगतिशील ऋषि के रूप में प्राचीन इतिहास में प्रसिद्ध हैं।
इतना निश्चित है कि सत्यव्रत से पूर्व भारत से रावण का राज्य समाप्त हो चुका था। चन्द्रवंश की ही एक शाखा हैहय वंश भी थी। उस वंश में एक राजा हुए हैं कृतवीर्य। उनके पुत्र थे सहस्रबाहु अर्जुन। उन्होंने रावण को बुरी तरह पराजित किया था और बन्दी बनाकर कारगार में डाल दिया था। सहस्रबाहु अर्जुन प्रलय के बाद भारत के 29 वें सम्राट थे। उनका शासनकाल सत्ययुग का अन्तिम चरण था। उस समय की तमाम घटनायें युग परिवर्तन की घोषणा स्वतः ही करने लगती हैं। सहस्रबाहु अर्जुन ने हिमालय से समुद्र तक सम्पुर्ण भारत में दिग्विजय की थी और चक्रवर्ती सम्राट बने थे। अनुमान किया जा सकता है कि रावण के हाथों अनरण्य के वध के बाद इक्ष्वाकुवंश की स्थिति कमजोर हो गयी है और बदली हुई राजनीतिक स्थिति में हैहय वंश प्रभावशाली हो गया। हैहयवंशियों का राज्य नर्मदा नदी के आसपास के क्षेत्र में था। अतः दक्षिण भारत में प्रभाव जमा रहे लंका से सीधा टकराव हैहयवंशियों का हुआ।
अपनी शक्ति बढ़ा लेने पर हैहयवंशियों ने लंका की उपेक्षा की । अतः हैहयों का दमन करने के लिए रावण ने आक्रमण कर दिया। वह आक्रमण बुरी तरह विफल रहा और रावण पराजित होकर बन्दी बना लिये गये। इस विजय से हैहयवंशियों की प्रतिष्ठा बढ़ी और उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्ष पनपने लगी। सहस्रबाहु अर्जुन ने दिग्विजय कर भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनने का सपना पाला। इतिहास प्रसिद्ध इक्ष्वाकु वंश के कमजोर होने के कारण उन्हें चुनौती देने वाली कोइ शक्ति वैसे भी भारत में शेष नहीं रह गयी थी, लेकिन इतिहास की गति कभी इतनी सरल रेखा में नहीं होती। हैहयों के पास चक्रवर्ती सत्ता बहुत दिन न रह सकी।
भारतीय राजाओं की गणना वैवस्वत मनु से प्रारम्भ की जाती है। इस क्रम में 29 वें राजा हैहयवंशीय अर्जुन कार्तवीर्य, 32 वें सूर्यवंशी सत्यव्रत तथा 33 वें हरिश्चन्द्र थे। सत्यव्रत भी दिग्विजय करने वाले चक्रवर्ती सम्राट थे, लेकिन विजय प्राप्त कर लौटने पर कुछ रूढ़िवादी पुराहितों ने सत्यव्रत पर परम्पराओं के उल्लंघन के तीन आरोप लगाये और उन्हें त्रिशंकु घोषित कर शासन के अयोग्य ठहरा दिया। बाद में उस समय के तेजस्वी एवम् क्रान्तिकारी ऋषि विश्वामित्र ने चाण्डालों के सहयोग से यज्ञ का आयोजन किया और सम्राट सत्यव्रत को त्रिशंकु दोष से मुक्त घोषित कर दिया।
विश्वामित्र ने देवलोक के सम्राट इन्द्र का उस यज्ञ में आने के लिए आह्वान किया, लेकिन मानव लोक के सत्यव्रत त्रिशंकु के विरोधी पुरोहितों के प्रबल विरोध को देखते हुए इन्द्र ने स्वीकार कर दिया। इन्द्र को बताया गया कि सत्यव्रत दोषी है, त्रिशंकु है। विश्वामित्र परम्पराओं के प्रति गम्भीर नही हैं। अतः समुचित विचार किये बिना उन्होंने त्रिशंकु का यज्ञ सम्पन्न कराना स्वीकार कर लिया है। उस यज्ञ में देवों के जाने से मर्यादा नष्ट हो जायेगी।
सम्मानपूर्वक आह्वान इन्द्र द्वारा अस्वीकार कर दिये जाने पर तेजस्वी विश्वामित्र ने खुली चुनौती दी कि यदि इस यज्ञ में इन्द्र नहीं आये तो मानव लोक में उन्हे कभी नहीं आने दिया जायेगा। प्रगतिशील लोगों का नया देवलोक हम स्थापित कर देंगे। अन्त में परिस्थिति को समझकर इन्द्र ने देवगणों सहित यज्ञ में भाग लिया और विश्वामित्र के कारण सत्यव्रत को अपने साथ देवलोक ले जाने पर भी सहमत हो गये। लेकिन बाद में इन्द्र ने उन्हें स्वर्ग की राजधानी से निकाल दिया और त्रिशंकु नीचे उतर कर यक्ष लोक के उत्तर में दक्षिण हिमालय में रहने लगे।
अयोध्या में सत्यव्रत के पुत्र हरिश्चन्द्र को राजा बना दिया गया जिसे सत्यव्रत के विरोधियों ने भी स्वीकार कर लिया। यह ऋषि विश्वामित्र का ही प्रभाव था कि सत्यव्रत त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र संसार में सत्यवादी होके के प्रतीक बन गये। विश्वामित्र ने कड़ी परीक्षायें लेकर देवों को यह स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया कि चाण्डालों के बीच पला विश्वामित्र का क्षत्रिय शिष्य इन्द्र से कम सत्यप्रिय, नैतिक या आध्यात्मिक नहीं है। यही से कृत युग अर्थात् प्रथम कालखण्ड समाप्त होता है। उस समय सामाजिक एवम् राजनीतिक जटिलतायें कम थी। अतः लोग स्वभावतः अपेक्षाकृत अधिक नैतिक जीवन यापन करते थे।
विश्वामित्र को क्रान्तिकारी विचारक माना जाता है। विश्वामित्र पहले राजा थे और उनका नाम विश्वरथ था। इनकी राजधानी वर्तमान कन्नौज में थी। उस समय कन्नौज का नाम महोदय था। उस समय ऋषि राजाओं से अधिक प्रभावशाली थे। विश्वरथ राजा को ऋषि वशिष्ठ से अपमानित होना पड़ा था। अतः वे राजा से ऋषि बने। विश्वामित्र का उदय भारत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। विश्वामित्र ने ऋषि बनते ही प्रगतिशील तार्किक विचारधारा को बौद्धिक जगत् में स्थापित किया। सौभाग्य से ही कहना चाहिये, दिग्विजयी सत्यव्रत को लकीर के फकीर लोगों ने त्रिशंकु घोषित कर दया तो विश्वामित्र ने उनका खुलकर समर्थन किया और देवराज इन्द्र तक से विरोध लिया।
विश्वामित्र वीर योद्धा एवम् कुशल प्रशासक तो थे ही, ऋषि के रूप में जनवादी क्रान्तिकारी विचारक तथा सक्रिय समाज सुधारक भी थे। इनके अलावा वे वनस्पति विज्ञानी भी थे। नारियल को विश्वामित्र की सृष्टि कहा जाता है। निश्चित रूप से कई पौधों के संश्लेषण से यह बहुउपयोगी पौधा उन्होंने विकसित किया होगा। गेहूँ तथा भैंस की उत्पत्ति का श्रेय भी विश्वामित्र को दिया गया है। वे हमारी संस्कृति के गुरुमन्त्र गायत्री मन्त्र के दृष्टा एवम् शोधपरक यज्ञों के पुरस्कर्ता भी थे।
दोस्तो आगे की कहानी के लिये बने रहे हमारे साथ……… 🙂