पृथुद्वारा कृषि का आरम्भ तथा
असुरों का आक्रमण
राजा पृथु सूर्य वंश की सातवी पीढ़ी में हुए थे। इस वंश के संस्थापक या मूल पुरुष विवस्वान् (सूर्य) थे। उनके पुत्र जलप्रलय के नायक तथा भारत के प्रथम राजा वैवस्वत मनु हुए। मनुपुत्र इक्ष्वाकु के उत्तराधिकारी उनके पुत्र विकुक्षि शशाद थे। विकुक्षि के पुत्र पुरञ्जय हुए। पुरञ्जय के पुत्र अनेना और उनके पुत्र राजा पृथु हुए। इस प्रकार राजा पृथु के समय में प्रलय को हुए लगभग दो शताब्दियां बीत चुकीं थीं। इतने समय में जनसड़्ख्या पर्याप्त हो गयी थी और प्राकृतिक वनस्पति और वन सम्पदा तथा आखेट से प्राप्त पशुओं के मांस से निर्वाह कठिन होने लगा था। इस समस्या से उबरने के लिए पृथु ने कृषि का विकास किया। सभ्यता के विकास में यह सबसे बड़ी तकनीकी क्रान्ति थी। भूमि में बीज बो कर इच्छानुसार वनस्पति उगा लेने की तकनीकी विकसित हो जाने से भरण-पोषण की समस्या सदा के लिए हल हो गयी थी। प्रमुख नदियों सरस्वती, सिन्धु तथा उनकी सहायक नदियों से सिंचित उपजाऊ भूमि के कारण पृथु का राज्य काफी समृद्ध व विकसित हो गया।
कृषि की तकनीक के विकास से कृषि पर निर्भरता बढ़ी और प्रकृति पर निर्भरता कम हुई। अन्न उत्पादन में मानव प्रयास की प्रधानता होने से उस पर अधिकार की भावना उत्पन्न हुई और भण्डारण की आवश्यकता अनुभव हुई। जो लोग भूमि को जोतने, बोने और फसल तैयार करने में श्रम करते थे, उत्पन्न अन्न पर स्वाभाविक रुप से उनका अधिकार होता था। अतः समाज के नये वर्ग कृषक समुदाय का जन्म हुआ। अन्न भण्डार गृह बनाये गये और आवश्यकता के समय अतिरिक्त अन्न का अन्य वस्तुओं व सेवाओं के बदले आदान-प्रदान भी प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार कृषक वर्ग वैश्य वर्ग में माना गया।
उस समय उत्पादन और वितरण के साधनों पर मुख्य रुप से कृषक वर्ग का अधिकार था। उसके बाद कृषि उपकरणों का निर्माण करने वाला शिल्पी वर्ग भी अस्तित्व में आया। कृषि की सहायता के लिए इन उपकरणों का निर्माण कृषकों के लिए होता था। ये शिल्पकार शूद्र वर्ण में माने गये। शूद्र शब्द का अर्थ ही है साफ करना, पवित्र बनाना, उपयोगिता आकार देने वाले शिल्पकार शूद्र हूए। इस प्रकार कृषि का प्रारम्भ होने पर परस्पर सामाजिक निर्भरता का युग आरम्भ हुआ। हमारी कालगणना के अनुसार पृथु का समय अथवा कृषि का आरम्भ 35वीं शताब्दी युगाब्द पूर्व अथवा इस समय से लगभग साढ़े आठ हजार वर्ष पूर्व हुआ था। अभी सत्ययुग का प्रथम चरण था। राष्ट्र शासन का मुख्य कार्य सुरक्षा भी शिक्षा, उत्पादन व वितरण की तरह समाज का एक अङ्ग था।, उसका नियन्ता व भाग्य विधाता नहीं। पृथु का महत्व संस्कृति प्रसार में भी हैं पृथु की साम्राज्य स्थापना में सैनिक शक्ति का योगदान कम और कृषि तकनीक का अधिक था। ऐसा कहा गया है कि जहाँ तक भूमि जोती गयी, कृषि हुई, वह सारी भूमि पृथु के राज्य में मानी गयी। अर्थात् पृथु ने ज्ञान-विज्ञान का प्रसार कर राज्य बढ़ाया।
राजा पृथु के उत्तराधिकरी उनके पुत्र विष्टराश़्व हुए। विष्टराश्व के पुत्र चन्द्र और उनके पुत्र युवनाश्व प्रथम हुए। इन तीनों पीढ़ियों ने लगभग एक शताब्दी तक शासन किया। इस शताब्दी की कोई घटना इतिहास में उल्लिखित नहीं है। कृषि कार्य का क्रमशः विकास का राजनीतिक प्रभाव इतना अवश्य हुआ कि स्वर्ग के देवगण खाद्यान्न के लिए भारत पर निर्भर होते गये। इससे भारत का महत्व स्वर्ग के बढ़ गया।
मानव जाति के लिए स्वर्ग को सांस्कृतिक केन्द्र और पुण्य लोक माना जाता रहा हैं। लेकिन अब स्वर्ग के लिए भारत का महत्व आर्थिक, राजनीतिक व सैनिक द़ृष्टि से बढ़ाने लगा। हमारे देश के विद्वान्, कृषक और शक्तिशाली राजा स्वर्ग में सम्मान पाने लगे। स्वर्ग के पर्वतीय प्रदेश में कृषि कर्म कठिन था। अतः पुज्य देवों के लिए अन्न देने की परम्परा स्थापित की गयी। बिना श्रम के खाद्यान मिलने से देवों की आध्यात्मिक व सांस्कृतिक उन्नति तो हुई, लेकिन इस स्थिति ने देवों को अकर्मण्य, अहंकारी और विलासी भी बना दिया। इसके दुष्परिणाम कुछ समय बाद देवासुर सङ्ग्राम में पराजय व सामाजिक पतन के रुप में सामने आये। युवनाश्व प्रथम के पुत्र प्रसिद्ध राजा श्रावस्त हुए। उनका महत्वपूर्ण योगदान श्रवस्ती नगर की स्थापना है। यह श्रावस्ती नगर राम के पुत्रों लव कुश के समय से गौतम बुद्ध के बाद मनुवंश के अन्तिम राजा सुमित्र के समय तक उत्तर कोशल राज्य की प्रतिष्ठित राजधानी और भारत का प्रमुख नगर बना रहा। श्रावस्त के पुत्र वृहदश्न हुए। उनके पुत्र कुवलयाश़्व थे। कुवलयाश़्व के समय में घुन्धु नामक दैत्य राजा ने पश़्चिमी सीमा पर ऋषि आश्रमों को ध्वस्त करना आरभ्म कर दिया था। कुवलयाश़्व ने घुन्धु दैत्य का सफलतापूर्वक मुकबला किया और युद्ध में उसे मार गिराया।
घुन्धु को मारने के कारण राजा कुवलयाश़्व को धुन्धुमार की उपाधि मिली। हमारे देश पर हुआ यह पहला आक्रमण था। जो बुरी तरह विफल कर दिया गया। इससे पुरञ्जय ककुत्स्थ ने भी युद्ध किया था, लेकिन वह स्वर्ग प्रदेश की सहायता के लिए था। वह हमारे देश का अपना युद्ध नहीं था।
शाक्तिशाली असुर लोक के दैत्य और दानव अनेक बार स्वर्ग से हुए युद्धों में भी विजय प्राप्त करते थे। हमारे देश पर पहले आक्रमण में ही उनकी पराजय से उस समय तक मानव संस्कृति व सभ्यता का पर्याप्त विकास सिद्ध होता है। यह ऐतिहासिक युद्ध मनु के लगभग
चार शताब्दी पश़्चात अर्थात् 32 शताब्दी युगाब्द पूर्व हुआ। अब तक उस युद्ध को लगभग 83 शताब्दियां बीत चकी हैं। वह विजय
आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत है।
उस युद्ध में जनहानि व धनहानि भी दोनों पक्षों को काफी हई थी। असुरों ने लगभग इक्कीस हजार मानव सेना का संहार किया। राजा कुवलयाश्य के अनेक पुत्र भी उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। केवल तीन पुत्र द़ृढ़ाश़्व, चन्द्राश़्व व कपिलाश़्व ही विजयी होकर युद्ध क्षेत्र से लौट सके थे। आश्रमों व ग्रामों के विध्वंस व हजारों वीरों के बलिदान से
मिली विजय ने मानव शक्ति की श्रेष्ठता स्थापि
त कर दी।
सम्राट मान्धाता
दैत्य विजेता सम्राट कुवलयाश़्व धुन्धुमार के बाद पीढ़ियों तक सीमाओं पर शान्ति रही और सांस्कृतिक और भौतिक विकास की प्रक्रिया चलती रही। कुवलयाश़्व के बा
द उनके पुत्र द़ृढ़ाश़्व ने शासन संभाला। उनके पुत्र हर्षश़्वस् हुए। उनके पुत्र निकुम्भ और उनके पुत्र अमिताश़्व हुए। उनके पुत्र कुशाश़्व तथा कुशाश़्व के पुत्र प्रसेनजित् के पुत्र युवनाश़्व द्वितीय थे। बहुत दिनों तक उनके कोई सन्तान नहीं हुई। महर्षियों ने राजा युवनाश़्व द्वितीय को बहुत दिनों तक अपने आश्रमों में रखा। काफी समय के बाद पुत्रेष्टि यज्ञ सफल हुआ और बालक मान्धाता का जन्म हुआ। मान्धाता को जन्म से ही स्वर्ग के सम्राट इन्द्र ने पाला। इन्द्र ने ही उनका नाम मान्धाता रखा था।
आगे चलकर मान्धाता प्रतापी विश़्वविजयी सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट बने। यहाँ पर हमारी परम्परा के अनुसार राजाओं की श्रेणियों को समझ लेना भी आ
वश़्यक है। हमारे इतिहास में क्षेत्रों या जनपद के शासकों को राजा कहा जाता है। कई जनपदों पर विजय प्राप्त करने
के बाद सम्राट की पदवी प्राप्त होती है। हिमालय से समुद्र तक सम्पूर्ण राष्ट्र का शासन करने वाला सम्राट चक्रवर्ती कहलाता है। सम्पूर्ण विश़्व पर विजय प्राप्त करने वाले सम्राट मान्धाता को सार्वभौम सम्राट कहा जाता है। मान्धाता के विषय में कहा गया है कि भूमण्डल के सातों महाद्वीपों पर उनका शासन था और सूर्य के उदयस्थान से अस्त होने के स्थान तक सम्पूर्ण विश़्व मान्धाता के राज्य में सम्मिलित था। सम्राट मान्धाता की विश़्वविजय मानव सांस्कृति की सम्वाहक बनी। मध्य एशिया एवम् पश़्चिम का वैदिक संस्कृति से प
रिचय हुआ। विश़्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में इस बात का उल्लेख मिलता है कि वहां लोगों ने भारत की दिशा से जाकर सभ्यता का प्रसार किया और ज्ञान विज्ञान शिक्षा दी। दूसरी ओर भारत के प्राचीन साहित्य में यूनानियों, शकों तथा हूणों से पूर्ण किसी बाहरी जाति के आने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि मान्धाता के विश़्वविजय अभियान से ही भारत का परिचय विश़्व के विभिन्न क्षेत्रों से हुआ। सुदूर उत्तरी ध्रुव क्षेत्र तक भारतीय अभियान दलों के जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन वहाँ से किसी के आने की चर्चा नहीं है। मान्धाता भारत के पहले सम्राट थे जिन्होंने देश की सीमाओं से बाहर अभियान चलाया। भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनने के बाद उन्होंने उत्तर पश़्चिम की ओर प्रयाण किया। मध्य एशिया में उनकी विजयों के उल्लेख मिलते हैं। वैसे भी उनके समय में विश़्व की महत्वपूर्ण शक्तियां या सभ्यतायें स्वर्गलोक या त्रिविष्टप, मानव लोक और असुर लोक ही थे। मध्य एशिया से उत्तर तथा पश़्चिम की ओर बढ़ना कठिन नहीं था क्योंकि वहां उस समय कोई सङ्गठित राष्ट्र या विकसित सभ्यता नहीं थी। मुख्य प्रतिरोध या सङ्घर्ष पश़्चिमी सीमा पर असुर संस्कृति से ही होना था। वह भी मान्धाता के समय अजेय नहीं थी। मान्धाता के अभियान के फलस्वरुप असुर शक्ति की अपराजेय दीवार टूट गयी और मेसोपोटामिया (इराक) में सभ्यता का आरभ्म हो सका। वहां की स्थानीय मान्यताओं के अनुसार पूर्व की ओर से यह अभियान दल समुद्री मार्ग से वहां पहुंचा। इस दल का नेतृत्व अयोनिज ने किया था। उन्होंने वहां के आखेटक लोगों को कृषि तकनीक से परिचित कराया। उन्होंने वहां कृषि और शासन व्यवस्था स्थापित की और कई पीढ़ीयों तक राज्य किया।
इतने महान् सम्राट मान्धाता का काल निर्धारण भी कर लेना चाहिये। मान्धाता सूर्यवंश की इक्कीसवीं पीढ़ी में हुए थे। वह सत्ययुग का तीसरा चरण था। उस युग के राजाओं का शासनकाल सामान्यतः तीस से चालीस वर्ष के बीच रहा था। अतः एक शताब्दी में तीन पीढ़ियों का शासनकाल माना जा सकता है। इस प्रकार मान्धाता का समय सत्ययुग की आठवीं शताब्दी है। अतः विश़्वविजय मान्धाता वर्तमान समय से लगभग आठ हजार वर्ष पूर्व हुए थे। सम्राट मान्धाता का विवाह शतबिन्दु की पुत्री के साथ हुआ था। पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचकुन्द उनके तीन पुत्र थे। अनेक रानियों से मान्धता की पचास पुत्रियां थी। मान्धाता के तीनों ही पुत्र अपने पिता की तरह ही पराक्रमी थे। उन्होंने सफलतापूर्वक मान्धता के विश़्व साम्राज्य की रक्षा की और पाताल तक विद्रोहों का दमन भी किया। मान्धाता की पचास पुत्रियों का विवाह बह़्वृच के पुत्र महर्षि सौभरि के साथ हुआ था।
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