मनु का परिवार
वैवस्तव मनु के पिता विवस्वान (सूर्य) देव कुल के थे। वैवस्तव मनु के दस पुत्रों एवम् एक पुत्री का नाम मिलता है। दस पुत्र इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करूष तथा प्रषध्र थे। मनु पुत्री इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र वधु के साथ हुआ था। बुध एवम् इला के पुत्र प्रतिष्ठान के इतिहास प्रशिद्ध राजा पुरुरवा थे। मनु के उत्तराधिकारी उनके बडे पुत्र इक्ष्वाकु हुए। इक्ष्वाकु वंश भारतीय इतिहास का सबसे प्रमुख राजवंश है। इक्ष्वाकु के भाइयों शर्याति, कुरुष, नृग आदि ने भी क्षत्रिय वर्ण चुना और राज्य स्थापित किये। मनु के आठवें पुत्र दिष्ट व नाभाग ने वैश्य वर्ण स्वीकार किया और व्यापार की नींव डाली। अन्य पुत्रों ने ब्राह्मणत्व अङ्गीकार किया। मनु के परिवार के लोगों ने ही अलग अलग वर्ण स्वीकार किया। मनु द्वारा स्थापित राज्य प्रमुख नदी सरस्वती के किनारे सारस्वत प्रदेश था। सारस्वत अथवा सप्त सिन्धु प्रदेश के पश्चिमी भाग में असुर लोक प्रारम्भ हो जाता था। उत्तर में मित्र एवम् संरक्षक देवों का त्रिविष्टप या देवलोक स्थित था। अतः मनु के राज्य का विस्तार पूर्ण में ही सम्भव था। मनु पुत्र इक्ष्वाकु ने पूर्व की ओर कदम बढाने आरम्भ कर दिये थे। इक्ष्वाकु के राज्य में लम्बे समय तक वर्षा न होने से भीषण सूखा पडने तथा नदियाँ तक सूख जाने का उल्लेख मिलता है।
प्रमुख इतिहासकार प्रो0 विष्णु श्रीधर वाकणकर ने उल्लेख किया है कि उस सूखे से त्रस्त होकर इक्ष्वाकु के अलावा गान्धार के यदु, तुर्वसु, आनय, दक्षु आदि भी पूर्व की ओर बढ गये थे। सप्तसिन्धु के पश्चिमी नगर हरियुपीय में उस समय कवि चायमान राजा थे इक्ष्वाकु के द्वारा द्वारा पराजित होने पर उनके भाई अभ्यवर्तिन चायमान राजा बने और उसके बाद उनकी आठ पीढियों ने वहाँ पर राज्य किया। सारस्वत प्रदेश के ठीक पूर्व में स्थित कुरुक्षेत्र से प्रयाग तक के क्षेत्र को आर्यावर्त नाम दिया गया। वह भी मानव लोक का ही भाग था। बाद में राजधाना अयोध्या में स्थापित की गई। अयोध्या उपर्युक्त आर्यावर्त के पूर्वोत्तर भाग में सरयू नदी के तट पर बसाया गया नगर था। अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशियों ने लम्बे समय तक शासन किया। उनमें कई चक्रवर्ती सम्राट भी हुए। जिनका राज्य हिमालय से समुद्र तक विस्तृत था और दवलोक तक रथ ले जाने की प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। भारतीय काल विभाजन की परम्परा में मनु से कृतयुग या सत्ययुग का आरम्भ माना जाता है। उस युग का समाज अत्यन्त सरल था और उस व्यवस्था में छल, कपट, भ्रष्टाचार, हिंसा एवम् चोरी – डकैती जैसे अपराधों के लिए कोई स्थान ही नहीं था। इसीलिए पौराणिक शैली में कहें तो समाज में पूर्ण धर्म था, सभी लोग सत्यपथ के अनुयायी थे। इसलिए वह सत्ययुग था। कार्ल मार्क्स के शब्दों में वह अदिम साम्यवाद की व्यवस्था थी। साम्यवादी चाहे तो मनु और इक्ष्वाकु को विश्व का प्रथम साम्यवादी शासक कह सकते हैं। धार्मिक एवम् दार्शनिक दृष्टि कोण से वेद ही एक मात्र धर्म था। वह युग प्राकृतिक शक्तियों का महत्व खोजने का था। सूर्य से गर्मी एवम् प्रकाश, वायु से प्राण, वनस्पतियों से भोजन, वस्त्र, आवास व चिकित्सा तक के उपयोग उन्हें महत्वपूर्ण बना रहे थे। ईश्वर की दिव्य शक्तियाँ इन्हीं व्यक्त मानी जाती थी और प्रकृति के संरक्षण का प्रयास किया जाता था। अग्नि से शीत से बचाव होता था और फल, अन्न व मांस भूनकर भोजन भी तैयार किया जा सकता था। अग्नि में विशेष वनस्पतियों को डालने से सुगन्धित वायु प्रसन्नतादायक होती थी। ऐसी विशेष वनस्पतियों की पहचान की जाने की जाने लगी और अग्निहोत्र का विकास हुआ था। हिमालय और तराई के शीतल प्रदेशों के लिए यह अग्निपूजा बहुत उपयोगी सिद्ध हुई।
इक्ष्वाकु के वंशज
मनु पुत्र राजा इक्ष्वाकु के बाद मनु के वंशजों ने भारत के विभिन्न भागों में फैलना प्रारम्भ कर दिया था। मनु के नाती पुरुरवा प्रतिष्ठान के राजा थे। उनकी सन्तान के विभिन्न दिशाओं में जाने का उल्लेख मिलता है। मनु पुत्र करुष के वंशज पराक्रमी क्षत्रिय हुए। मनु के एक पुत्र दिष्ट का वंश वैश्य हो गया था। दिष्ट के पुत्र नाभाग वाणिज्य में प्रवीण हुए और उन्होंने व्यापार को बढावा दिया। मनु के ही एक पुत्र पृषध्र को पशु हत्या के कारण शूद्र माना गया। उन्होनें पशु चर्म से सम्बन्धित शिल्प कला अपनायी। उस समय पत्थर, वनस्पति और पशु चर्म ही जीवन के लिए उपयोगी संसाधन थे। मनु के पौत्र नाभाग ने वैश्य वर्ण अपनाया था लेकिन उनके सात पीढिय़ों के बाद चाक्षुस के पुत्र विंश पराक्रमी क्षत्रिय हुए। राजा इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों का उल्लेख किया गया है। बहुपत़्नी प्रथा के उस युग में अनेक पत़्नियों से सौ पुत्रों का होना असम्भव नहीं माना जाना चाहिये। इक्ष्वाकु के पसाच पुत्र मानव संस्कृति का सन्देश लेकर दक्षिण की ओर तथा 84 उत्तरपथ के विभिन्न क्षेत्रों में चले गये।
राजा इक्ष्वाकु ने एक धार्मिक अनुष्ठान किया। खाद्य पदार्थ जुटाने का दायित्व इक्ष्वाकु ने अपने पुत्र विकुक्षि को सौंपा। विकुक्ष ने शिकार कर अनेक पशु एकत्र किये और रास्ते में भूख लगने पर एक खरगोश को खा लिया था। पुरोहित ने इक्ष्वाकु से कहा कि तुम्हारे पुत्र ने एक खरगोश को खाकर मांस को अपवित्र कर दिया है। उनके कहने से पिता ने पुत्र विकुक्षि का त्याग कर दिया। शशक (खरगोश) को खा लेने पर पुरोहित ने शशाद नाम भी दिया। पुराण उस पुरोहित का नाम वशिष्ठ ही लिखते हैं। वशिष्ठ को वरुण का पुत्र कहा गया है। वरुण त्रिविष्टप के निवासी देव जाति के थे। अतः सम्भव है कि मनु द्वारा सारस्वत प्रदेश में राजव्यवस्था की स्थापना किये जाने पर धार्मिक व्यवस्था के लिए वरुण ने अपने पुत्र वशिष्ठ को वहाँ भेजा हो और बाद में वशिष्ठ का कुल ही इक्ष्वाकु वंश का पुरोहित बना रहा हो। कुल पुरोहित के कहने पर इक्ष्वाकु ने विकुक्षि का त्याग कर दिया लेकिन प्रजा और उनके भाइयों ने त्याग नहीं किया। अतः इक्ष्वाकु की मृत्यु के बाद विकुक्षि ही राजा बने। विकुक्षि शशाद के पुत्र पुरञ्जय बड़े प्रतापी राजा हुए। निश्चित रुप से वे तत्कालीन युद्ध कला में श्रेष्ठ थे। उनके समय में असुरों से युद्ध में देवगण पराजित हो गये थे। देव एवम् असुर पुराने प्रतिदवन्दवी थे और एक दूसरे की रणनिति से भलीभांति परिचित थे। असुरों ने भौतिक विकास देवों से अधिक कर लिया था। अतः युद्ध में वे भारी पड़ते थे। ऐसे में देवों ने इक्ष्वाकु वंशी पुरञ्जय से सहायता मांगी। उन्होंने परिस्थिति का भरपूर लाभ उठाया और कड़ी शर्त रखी। देवों को उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने युद्ध के इन्द्र के कन्धे पर बैठकर युद्ध किया तथा असुरों पर विजय प्राप्त की। इस युद्ध के बाद पुरञ्जय ककुत्स्थ नाम से प्रसिद्ध हुए। पुरञ्जय ककुस्थ के पुत्र अनेना हुए और उनके पुत्र महान् सम्राट पृथु हए। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के सम्राटों के अनुक्रम में मनु के बाद प्रमुख नाम चन्द्रवंशी ययाति का माना जाता है। मनु के बाद ययाति पांचवें राजा थे जो सम्राट माने गये। इसका अर्थ यह हुआ कि ययाति ने इक्ष्वाकुओं को पराजित किया था, तभी चक्रवर्ती सम्राट बन सके होंगे। देवों नेतृत्व कर असुरों को पराजित करने वाले पुरञ्जय पर तो ययाति की विजय सम्भव नही लगती। अतः सम्भावना यही है कि प्रतिष्ठान के राजा ययाति ने अनेना को पराजित किया होगा। लेकिन इक्ष्वाकुओं पर चंद्रवशियों की विजय स्थायी नहीं हो सकी। अनेना के पुत्र पृथु ने ही पराजय को विजय में बदल दिया और इतिहास काल का पहला सुनियोजित युद्ध अभियान चलाया। उन्होंने लगभग पूरे उत्तरापथ को जीता और वास्तिक अर्थों में इतिहास के प्रथम दिग्विजयी सम्राट बने। त्रिविष्टिप या स्वर्ग के देवों के साथ मैत्री सम्बन्ध तो थे ही।
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