वैवस्वत श्राद्धदैव मनु तथा जल प्रलय
प्राचीनतम भारतीय संस्कृति में आदि पुरुष ब्रह्मा को माना जाता है। वेद तथा वैदिक संस्कृति उनकी प्रमुख देन है। वे सम्पूर्ण नृवंश के पितामह कहलाते है। ब्रह्मा के पुत्र विराट और विराट के पुत्र हुए स्वायम्भुव मनु। बाद में संस्कृति केन्द्र ब्रह्मावर्त्तों की स्थापना करने वाले राजर्षि लोग मनु कहलाये। ये इस क्रम में जल प्रलय के नायक वैवस्तव श्राद्धदेव मनु सातवें मनु थे।
जल प्रलय विश्व इतिहास की अति महत्वपूर्ण घटना है। मेसोपोटामिया के प्राचीन प्रदेश शिन्नार या सुमेर में सुमेरियन (सुमेरवासी) लोगों ने सभ्यता को जन्म दिया था। सुमेरियनों के आदि पुरुष के वंशज राजा अक्षसूत्र (एक्सीसूथ्रोस, ज्युसुद्र या निसुद्र) के समय में वहाँ जल प्रलय हुई थी। यहूदी बाइबिल के अनुसार नूह के समय जल प्रलय हुई थी। यहूदी बाइबिल के अनुसार नृह के समय जल प्रलय हुई। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार भारत में जल प्रलय के नायक वेवस्तुव मनु थे। इससे स्पष्ट है कि जल प्रलय वास्तव में व्यापक घटना थी। विश्व की अलग अलग सभ्यताओं में इसका उल्लेख मिलता है। और सभी वर्णनों मे काफी समानता भी मिलती है।
सभी वर्णऩों के अनुसार सात दिन – रात लगातार भारी वर्षा हुई और दूर दूर तर जल प्लावन हो गया। किसी नायक ने शक्तिशाली नौका के सहारे जीवन की रक्षा की और ऊँचे पर्वतीय क्षेत्र में शरण ली। प्रलय की चेतावनी दिये जाने तथा नौका बनाकर बचाव का परामर्श एवम् सहायता की बात का भी समान उल्लेख है। सभी सभ्यताओं मे समान जल प्रलय के नायकों के नाम अलग – अलग बताये गये हैं। यह अनुमान भी व्यक्त किया गया है कि जल प्रलय के एक ही नायक को स्थानाय भाषाओं में अलग अलग नाम दिये गये हैं। लेकिन यह सम्भावना भी प्रबल है कि विभिन्न प्रदेशों में अलग लोगों ने यह भूमिका निभायी होगी। बाइबिल में आदिम पुरुष आदम से जल प्रलय तक दस पीढियों का उल्लेख किया गया है। वास्तव में जल प्रलय से पूर्व का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं है और इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है।
भारत का प्राचीनतम राजवंश सूर्यवंश, मनुवंश व इक्ष्वाकुवंश कहलाता है। अतः माना जाना चाहिए कि भारत में इस वंश की स्थापना करने वाले सूर्य ही थे। राजा इक्ष्वाकु मनु के पुत्र थे। प्रलय मनु के समय में हुई थी। देवों ने मनु को चेतावना दी थी। उसी के आधार पर समय से नौका पर बैठकर मनु ने जीवन रक्षा की और नवीन युग के जनक युग पुरुष के रूप में स्थापित हुए।
जल प्रलय के पश्चात वैवस्तव मनु ने सरस्वती नदी के किनारे प्रथम राज्य की नींव डाली। प्रलय के समय देव, असुर, राक्षस, गन्धर्व, ब्रह्म, पिशाच, ऋषि, प्रजापति आदि विभिन्न कुलों के जो गिने चुने लोग किसी प्रकार इतस्ततः जीवित बच गये थे, सब ऊँचे पर्वतीय स्थानों पर ही शरण लिए हुए थे। वे परस्पर अपरिचित और भिन्न आचार – विचार के होने के बावजूद परिस्थितिवश एकत्र थे और सबने मिलकर मनु से प्रार्थना की कि हे मनु! तुम दण्ड धारण करो। हम सब तुम्हे राजा मानते हैं। मनु ने शासन सम्भाल ते लिया, लेकिन अलग – अलग आचार विचार वाले लोगों को किसी एक विधान के तहत लाकर समाज में व्यवस्था स्थापित कर पाना बहुत कठिन था। मनु को कई बार विरोध का भी सामना करना पडा और उन्होनें बलपूर्वक विद्रोहों को दबाकर शान्ति स्थापित की
मनु ने विभिन् आचार विचार के लोगों के बीच जिस उपाय से सामाजिक समरसता स्थापित की, वह विश्व इतिहास में अद्वितीय है। मनु ने दण्ड विधान सभी नागरिकों के लिए समान रखा। मनु की व्यवस्था में भेदभाव कठोर, व्यावहारिक और उपयोगी है। साधारण नागरिक की अपेक्षा किसी अपराध के लिए राजा को हजार गुना दण्ड देने का विधान है। इसी प्रकार मन्त्री व अधिकारियों को उनके पदों के अनुपात में सैकडों गुना अधिक दण्ड देने की व्यवस्था है। राजकर्मी को भी आठ गुना दण्ड देने का विधान है सामान्य नागरिक की अपेक्षा ब्राह्मणों को 64 से 128 गुना तक दण्ड देने की व्यस्था है। क्षत्रिय को बत्तीस गुना व वैश्य को 16 गुना दण्ड देने का विधान है। जो विवेकशील शिल्पी हो तो उसे भी अज्ञानी की अपेक्षा आठ गुना अधिक दण्ड देने का आदेश है। आज यह कहना कठिन है कि वर्तमान मनुस्मृति में कितने विधान मनु के समय के हैं। और कितने बाद में परिवर्तित संशोधित कर दिये गये हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न वर्गों के निजी कानून की समस्या भी मनु के सामने थी। उन्होने उनका सर्वोत्तम समाधान भी निकाला। मनु ने कहा कि राज्य कुल गोत्र की दृष्टि से नहीं, योग्यता, कर्म व व्यवसाय को ध्यान में रखकर व्यक्ति से व्यवहार करेगा। व्यवसाय के आधार पर बुद्धिजीवी (ब्राह्मण), सैनिक (क्षत्रिय), व्यापारी (वैश्य) तथा शिल्पी (शूद्र) आदि अनेक वर्ण थे। रुचि व योग्यता के अनुसार देव, असुर, गन्धर्व आदि किसी कुल का व्यक्ति किसी वर्ण को अपना सकता था। वर्ण परिवर्तन के भी स्पष्ट नियम थे। आश्रम व्यवस्था के रूप में सभी के लिए समान शिक्षा, व्यवसाय या वर्ण चयन की स्वतन्त्रता, गृहस्थ जीवन में अजीविका, सेनानिवृत्त जीवन में समाजसेवा तथा अन्तिम चरण में वर्ण कुल आदि को त्याग कर सन्यासी के रूप में लोकशिक्षण को कर्तव्य निर्धारित किया गया।
सबसे बडी समस्या अलग – अलग पद्धति थी। यदि किसी एक को मान्यता दी जाती तो अन्य सभी विद्रोह कर देते। दूसरी ओर यदि सभी को अपनी पद्धति का पालन करने दिया जाता तो दूरियाँ तथा अलगाव बना रहता। मनु ने इसका समुचित समाधान निकाल लिया। उन्होनें ब्राह्म, प्रजापत्य, दैव, आर्ष, गन्धर्व, असुर, राक्षस, व पैशाच सभी आठ प्रकार के विवाहों को मान्यता दी सभी नागरिको को इस बात की स्वतन्त्रता दे दी गई कि जो भी युगल जिस विधि से चाहे, विवाह कर सकता है। प्रेम विवाह कि गन्धर्व पद्धति से अपहरण के उपाय का भी लाभ उठाया।
इस प्रकार मनु ने अपने कुल व गोत्र में विवाह का निषेध कर दिया और इसका कडाई से पालन हुआ। उन्होनें विवाह सम्बन्ध यथासम्भव दूर स्थित प्रदेश तथा भिन्न कुल में करना श्रेष्ठ माना।
इससे भी सामाजिक एकीकरण में सहायता मिली। कुछ ही पीढियों के बाद मनु के राज्य के लोग भूल गये कि वे देव, गन्धर्व, राक्षस आदि किस वर्ग के हैं। देवलोक के दक्षिण व असुर लोक के पूर्व में मनु का मानव लोक आदर्श राज्य के रूप में स्थापित हो गया। श्रेष्ठता के अभिमानी देवों ने भी मानव की श्रेष्ठता स्वीकार की।
—–आगे और भी बहुत कुछ है आपके लिये——
( दोस्तों इतिहास की रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने के लिए बने रहिये हमारे ब्लॉग पर। )