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 प्राचीन सभ्यतायें 

   भारतीय संस्कृति का प्राचीन इतिहास क्या है। और इसका प्रारम्भ कैसे हुआइस बारे में हम सभी के मन में जिज्ञासा सदैव से रही है और रहेगी। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में हमारा सम्पूर्ण इतिहास क्रमबद्ध और व्यवस्थित ढंग से लिखा हुआ है। वाल्मिकी रामायणमहाभारत और विष्णु पुराण को प्राचीन ग्रन्थों में प्रमुख इतिहासत्रयी के रूप में माना जाता है। इसके अलावा सतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों तथा पुराणों में भी मूल्यवान ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। इनके आधार पर भारत का लगभग सत्तासी शताब्दियों (8700) वर्षो) का व्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत किया जा सकता है।

विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं मिस्रइराक (मेसोपोटामिया)यूनान (ईजीनियन सभ्यता)इजरायल एवम् चीन का पूरा इतिहास वहाँ के साहित्य पर ही निर्भर है। इजरायल एवम् चीन का पूरा इतिहास वहाँ के साहित्य पर ही निर्भर है। इजरायल के तो सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास का स्रोत यहूदियों की बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेण्ट) ही है। इस दृष्टि से भारतीय साहित्य काफी समृद्ध और अतीव प्राचीन युग के मानव इतिहास के सम्बन्ध में काफी उपयोगी सूचनाएं उपलब्ध कराता है। भारतीय विश्वास के अनुसार मानव जाति का उदयहम इसे व्यावहारिक रूप से सभ्यता का प्रारम्भ कह सकते हैंहिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में हुआ। भारतीय संस्कृति के आदि पुरुष ब्रह्मा थे। ब्रह्मा के पुत्र विराट तथा उनके पुत्र स्वायम्भुव मनु हुए। मनु के पुत्र मारीचि तथा उनके पुत्र कश्यप हुए।

ब्रह्माविराटमनुमारीचिकश्यप आदिकालीन पांच पीढियों के लोग आदि महर्षि माने जाते है। हमारी संस्कृति एवम् सभ्यता को जन्म देने का श्रेय इन सभी को है। ब्रह्मा को आदि पुरुष तथा मानव जाति का पितामह कहा जाता है। यह भी कहा गया है कि सभी लोग कश्यप की ही सन्तान हैं – कश्यपस्य इमे प्रजाः। महर्षि कश्यप की पाँच पत्नियाँ थी – अदितिदनुदितिविनता तथा कद्रू। अदिति के पुत्र आदित्य कहलाये। और बाद में हिमालय प्रदेश पर त्रिविष्टप या स्वर्ग के नाम से अधिकार इन्हीं आदित्यों का रहा। आदित्यों ने जिस संस्कृति का विकास कियावह देव संस्कृति कहलायी एवम् उसके सम्वाहक आदित्यो को भी देव कहा गया। देव या आदित्यों के लिए दिव्यता या आध्यात्मिक द्युति का विशेष महत्व था। भौतिक सभ्यता का विकास करने के बावजूद उन्होनें अध्यात्म पर अधिक बल दिया।

कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र दैत्य एवम् दनु के पुत्र दानव कहलाए।उन लोगों ने भौतिक सभ्यता को अधिक प्रश्रय दिया और अपने समय को देखते हुए उन्नत तकनीक विकसित की। दैत्य एवम् दानव लोगों ने जिस संस्कृति या विचारधारा को अपनायावह असुर संस्कृति कहलायी। असुर का अर्थ है प्राण शक्ति का विस्तार करने वाला। दोनो संस्कृतियों के बीच विवाद होने पर असुर संस्कृति के सम्वाहक दैत्य एवम् दानव हिमालय के पश्चिमी किनारे सुमेरु पर्वत या पामीर को ओर नीचे समतल भूमि की ओर बढ गये तथा इलावर्त (ईरान में) अपनी सभ्यता का विकास किया। समतल और उपजाऊ प्रदेश के कारण असुर सभ्यता का बहुत तेजी  से विकास हुआ। कृषिभवन निर्माण एवम् भवन नियोजन में असुर सभ्यता देवों से कई गुना आगे बढ गयी।

 

प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों का अध्ययन कर भारत का प्राची इतिहास क्रमबद्ध ढंग से तिथिक्रम सहित प्रस्तुत किया जा सकता है। नवीनतम शोध कार्यों के निष्कर्षों का समावेश करने से उस इतिहास का स्वरूप और स्पष्ट हो जाता है तथा भारतीय परम्परा से प्राप्त इतिहास की पुष्टि भी होती है। लेकिन इसके लिए कुछ रुढि परिकल्पनाओं से मुक्ति पाना आवश्यक है। सबसे विचित्र परिकल्पना यह प्रचारित की गई है कि भारत में सभ्यताओं का विकास करने वाली सभी तथाकथित प्रजातियाँ निषादनेग्रिटोद्वविणआर्य तथा अन्य सभी विदेश से ही आये। कहा जाता है कि सबसे पहले नेग्रिटो जाति का भारत में प्रवेश हुआ। इन्हें आस्ट्रलियायड कहा जाता है। और माना जाता है कि इनके वंशज केवल अण्डमान निकोबार द्वीपों में शेष बचे हैं। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद निषाद जाति ने प्रवेश किया। उसके बाद भूमध्य सागरीय क्षेत्र से द्रविण जाति का आगमन हुआ।  इन सभी प्रजातियों ने भारत में सभ्यता का विकास किया और अब से लगभग चार हजार वर्ष पूर्व तथाकथित आर्यों ने आक्रमण कर उस उन्नत नगरीय सभ्यता को नष्ट कर दिया।

इस परिकल्पना पर विश्वास करने वाले इतिहासकार इस बात को भी मानते है कि भारत में कम कम से कम पांच छह लाख वर्ष पूर्व भी मानव जाति का निवास था और उस समय के पूर्व पाषाण कालीन उपकरण पूरे भारत में पाये गये हैं। इसके अलावा यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि एक करोडं वर्ष पूर्व की आदि मानव की अस्थियाँ हिमालय के शिवलिक पर्वत क्षेत्र में पायी गयी हैं। उस आदिमानव को रामापिथीक्स कहा जाता है। पंजाब विश्वविद्यालयचण्डीगढ के मानव शस्त्र विभाग के विशेषज्ञो ने डा0 एस0 आर0 चोपडा के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश की शिवालिक पर्वत शृङ्खला तथा जम्मू कश्मीर एवम् हिमालय प्रदेश की पहाडियों में भी खोज कार्य करके सफलतायें प्राप्त की हैं। इस खोज से वैदिक संस्कृति की इस मान्यता की ही पुष्टि हुई है कि आदिमानव का मूल स्थान हिमालय क्षेत्र ही है। हिमालय क्षेत्र को राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन ग्रन्थो में त्रिविष्टपस्वर्गदेवलोकनाक आदि नामों से जाना गया है और मान्यता है कि मानव जाति हिमालय के पर्वत प्रदेश से भारत के मैदानी क्षेत्र में आयी और यहीं से संस्कृति का विकास कर विभिन्न देशों में परिभ्रमण किया।

हिमालय प्रदेश में स्थित त्रिविष्टप या स्वर्ग के देवदक्षिण के मैदानी क्षेत्र पृथ्वी के मानव एवम् पश्चिमी इलावर्त या असुर लोक के बीच सदैव निकट सम्बन्ध बन रहे। समतल भूमि पर बस गये असुरों की विकसित सभ्यता देवों के लिए आश्चर्य के साथ ही ईर्ष्या का कारण बनी।

महर्षि कश्यप के वंश की एक शाखा सुमेरु पर्वत के उत्तर की ओर मध्य एशिया होते हुए पश्चिम की ओर आगे बढी। इस शाखा को शेषनाग कहते है। शेषनाग वंश के लोग नाग सर्प को ध्वज प्रतीक मानते थे। ये लोग कश्यप की पत्नी कद्रू के पुत्र थे। कश्यप की एक अन्य पत्नी विनता के पुत्र वैनतेय गरुड़ कहलाये। ये लोग गरुण पक्षी को ध्वज प्रतीक बनाते थे। शेषनाग वंश एवम् वैनतेय गरुण वंश के लोग पश्चिम मे बढते हुए एक विशाल झील के किनारे बस गये। अपने पूर्वज कश्यप ऋषि के नाम पर उस जलाशय का नाम कश्यप सागर रखा। उसे कैस्पियन सागरशीरवाँ तथा क्षीर सागर भी कहते हैं। कश्यप सागर के तट पर  बैकुण्ठ नगर को केन्द्र बनाकर विष्णु ने देव संस्कृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाया और शेषनाग और वैनतेय गरुड़ दोनो कुलों का सहयोग प्राप्त किया।

प्रतीक रूप में विष्णु शेषशायी एवम् गरुड़ वाहन हैं। इसका अर्थ है कि बैकुण्ठ राज्य की आन्तरिक व्यवस्था शेषनाग कुल को सौंपकर वे निश्चित रह सकते हैं और राज्य के बाहर के अभियान विदेश एवम् प्रतिरक्षा वैनतेय गरुड़ों के दायित्व में है। उल्लेखनीय है कि कहीं बैकुण्ठ नगर के उत्खनन की सूचना भी मिली हैलेकिन इस समय उसका प्रमाणित उल्लेख नहीं किया जा सकता है।

अनुमान किया जा सकता है कि मैसोपोटामिया की प्राचीनतम सुमेरियम सभ्यता भी सुमेरु पर्वत से उतर कर जाने वाले लोगो ने विकसित की होगी। वहाँ की प्राचीन कथाओं में उल्लेख है कि सुमेर में यह सभ्यता प्रचलित करने वाले पूर्वज पूर्व ने समुद्र के मार्ग से आये थे और उनके देवों का निवास दूर पूर्व में स्थित पर्वतों पर है। इस प्रकार भारतीय एवम् सुमेरियन पौराणिक आख्यानों के बीत सामञ्जस्य बैठाया जा सकता है।

इराक में सुमेरियनों के बाद बेबीलोन सभ्यता का युग प्रारम्भ होता है। इस सभ्यता पर पश्चिमी एशिया तथा मिस्री सभ्यता के कुलों का प्रभाव माना जाता है। कुछ समय बाद बेबीलोन वालों के आसपास भारतीय सभ्यता  या उस युग की सभ्यता के अनुसार कह ले तो ब्रह्मामनु या कश्यप के कुल शाखाओं के राज्यों से संघर्ष करना पडा है। केसी या कसाइट लोगों ने शीघ्र ही बेबीलोन पर अधिकार कर लिया ये लोग इन्द्र एवम् मरूत् के उपासक थे। इसके बाद मितन्नी और हित्ती शासकों ने राज्य किया। इन्हें भी हमारे कश्यप ऋषि की संस्कृति का उत्तराधिकारी माना जाता है। आधुनिक इतिहासकार इन लोगों को आर्य जाति का मानते हैंअतः हम अपना परम्परा के अनुसार उनको कश्यप ऋषि का वंशज कह सकते हैं।

इनके बाद उस पूरे क्षेत्र में असुरों का प्रबल राज्य स्थापित हो गया। इन्हें यूरोप में असीरियन कहा जाता है। असीरियन लम्बे और ताकतवर बताये गये हैं। इनकी राजधानी और प्रमुख देवता का नाम असुर था। सबसे पहले महत्वपूर्ण राजा असुर उबालित हुए। उनका समय 1375 – 1340 पूर्व माना जाता है। इससे शताब्दियों पूर्व ये लोग मेसोपोटामिया के उत्तर में बसे हुए थेलेकिन उस क्षेत्र में स्वतन्त्र एवम् शक्तिशाली राज्य असुर उबालित ने ही स्थापित किया। मितन्नी कुल के शासक दुश्रत के पराजित कर उन्होनें अपना राज्य स्थापित किया। इस कुल के बाद सिंहवाहिनी देवी देवत या देपत के उपासक हित्ती लोगों का उत्कर्ष हुआ। ऐसा माना गया है कि हित्ती लोगों की पूजा विधि पौराणिक भारतीयों की पूजा विधि के ही समान थी।

प्रमाणिक दृष्टि से शरीर विज्ञान में सबसे बडी उपलब्धि मानव शव को लम्बे समय तक सुरक्षित रखने की विद्या का ज्ञान मिस्रवासियों को उस युग में थाजिसे भारत में द्वापर युग का अन्तिम चरण कहा जा सकता है। उनका रसायन ज्ञान इतना उन्नत था कि कुछ रासायनिक पदार्थों का उपयोग करके शवों को सुऱक्षित रख सकते थे। चिकित्सा विज्ञान का भी विकास हुआ था।

अमेरिकी महाद्वीप की माया सभ्यताजिसे भारत मे मय सभ्यता कहते हैंपुरातत्व की दृष्टि से प्राचीनतम और सबसे उन्नत सभ्यता थी। उनके प्राप्त अभिलेखों में नौ करोड वर्ष पहले तक के उस समय का उल्लेख है और यह माना जाता है कि 25000 वर्ष पूर्व से उन लोगों का प्रमाणित अस्तित्व है। पाँच हजार वर्षों के पहले के स्थापत्य के प्रमाणस्वरूप पिरामिडमन्दिर आदि यूरोप वालो की शताब्दियों तक चली विनाश लीला के बाद भी सुरक्षित है। होण्डूरस के मन्दिर में अन्तरिक्ष सूट पहने एक यात्री का भी चित्र था।  उनको शुक्र और चन्द्र के पंचाङ्ग भी ज्ञात थे और कहीं उपयोग भी होता था उनके अनुसार मानव सृष्टि का आरम्भ पचास लाख इकतालिस हजार सात सौ अडतालीस वर्ष पूर्व हुआ जो वैज्ञानिक खोजो के अनुसार विश्वसनीय लगता है।

वहाँ पर एक सम्वत्सर का मञ्च का निर्माण 3113 ई0 पू0 में किया गया था। जिसमें चारों ओर की सीढियों की संख्या मञ्च को मिलाकर 365 है। उनकी सम्वत्स गणना का प्रारम्भ उसी वर्ष 3113 ई0 पू0 से होता है। जबकि अभी यह ज्ञात नहीं हो सका है कि उस वर्ष से सम्वत्स का प्रारम्भ किस उपलक्ष्य में किया गया था। भारत में युधिष्ठिर सम्वत् 3138 ईस्वी पूर्व में प्रारम्भ हुआ था और युगाब्ध का कलि सम्वत् 3102 ईस्वी पूर्व में। इस प्रकार मय सम्वत या माया सम्वत युधिष्ठिर सम्वत् के पच्चीस वर्ष बाद और युगाब्ध के ग्यारह वर्ष पहले आरम्भ हुआ था।

इतनी उपलब्धियों के बावजूद यद्यपि सीधा प्रमाण न सहीलेकिन लगती है कि मय लोगो का सम्बन्ध किसी अन्य़ ग्रह से भी था जिनका वर्ष दो सौ साठ दिन को होता था और उसमें तेरह महीने बीस – बीस दिन के थे। क्रेग और एरिग अमलैण्ड जैसे विद्वान मानते हैं कि मय लोग किसी अन्य ग्रह से आये थे। यह भी हो सकता है कि वे पृथ्वी से अन्य ग्रह पर गये हों। इन सब उल्लेखों का उद्देश्य यह दिखाना है कि पृथ्वी पर पाँच हजार वर्ष पहले इतनी उन्नत सभ्यतायें थीं।

प्रचलित धारणा के अनुसार युगों की अवधि लाखों में होती है। इसका समाधान यह है कि मूल धारणा तो एक युग की अवधि 12000 वर्ष ही मानती है। पृथ्वी पर मानव इतिहास को इसी धारणा के आधार पर समझा जा सकता है। लेकिन दिव्य शक्तियों अर्थात् दैदीप्यमान नक्षत्रों की कालगणना के लिए दिव्य वर्ष का प्रयोग किया जाता है। पृथ्वी के 360 दिनों के बराबर एक दिव्य दिवस होता है। दिव्य वर्ष भी 360 दिव्य दिवसों का ही माना गया। इस प्रकार पृथ्वी के मानव वर्षों की अपेक्षा दिव्य वर्ष 360 गुना हो गया। इस प्रकार 1200 दिव्य वर्षों में एक दिव्य युग की अवधि मानव वर्षों में 1200 x 360 = 432000 वर्ष हुई।

एक चतुर्युगी के अन्त में अगर हम चारों युगों के आरम्भ होने की अवधि की गणना करें को द्वापर युग का आरम्भ कलियुग के दो गुने वर्ष पूर्व हुआ माना जाएगा। इसी प्रकार त्रेता का आरम्भ कलिय़ुग से तीन गुने एवम् कृतयुग या सत्ययुग का आरम्भ कलियुग से चार गुने वर्षों पूर्व हुआ होगा। दिव्य वर्षों में युगों की अवधि की गणना के साथ द्वापर युग की कुल अवधि कलियुग की अवधि से दो गुनीत्रेता युग की तीन गुनी तथा कृतयुग की चार गुनी होने की मान्यता भी स्थापित की गयी। लेकिन यह मान्यता मानव इतिहास के सन्दर्भ में इसलिए स्वीकार्य नहीं है क्योकि प्रत्येक युग में क्रमागत राजाओं की संख्या लगभग समान 32 – 33 ही स्वीकार की जाती है। क्रमागत राजाओं की संख्या इस बात का प्रमाण है कि कृतयुगत्रेतायुगद्वापर युग एवम् कलिय़ुग की अवधि समान होती है तथा यह अवधि 1200 मानव वर्ष ही है।

मानव इतिहास के युगों की अवधि किसी भी प्रकार से 1200 दिव्य वर्ष अथवा लाखों मानव वर्षों में नहीं हो सकती है। दिव्य वर्ष की अवधारणा सूर्य एवम् नक्षत्र आदि दिव्य लोको के सम्बन्ध में ही सत्य हो सकती हैं। उनमें होने वाली खगोलीय घटनाओं एवम् आकाश गंगा की परिक्रमा आदि के लिए दिव्य वर्षों में की जाने वाली गणना उपयुक्त है। ज्योतिषीय गणना के लिए दिव्य वर्ष तथा मानव इतिहास के लिए मानव वर्षों में एक युग के लिए दिव्य वर्ष तथा मानव इतिहास के लिए मानव वर्षों में एक युग की अवधि 1200 वर्ष होती है। वैवस्वत मनु से चारों युगों का 4800 वर्षों की अवधि का महायुग कलियुग के युगावतार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के समय में समाप्त हो जाता है।

महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित जय नामक इतिहास ग्रन्थ उनके शिष्यों द्वारा विस्तार किये जाने पर भारत तथा भविष्य में उनकी शिष्य परम्परा के सूत कहे जाने वाले पौराणिक विद्वानों के द्वारा आकार सवा लाख श्लोकों तक विस्तृत कर दिए जाने पर महाभारत के नाम से प्रशिद्ध हुआ। महर्षि व्यास ने जय की रचना मात्र 4400 श्लोकों में की थी। उनके शिष्यों ने उस इतिहास को विस्तृत कर और अधिक उपयोगी बनाया तथा भरतवंशी राजाओं तथा तत्कालीन ऋषियों का विस्तृत इतिहास सम्मिलित कर उसे भरत नाम दिया।

जय इतिहास ग्रन्थ में राजा शान्तनु से युधिष्ठिर तक चार पीढियों का विस्तृत और  प्रामाणिक इतिहास सुरक्षित है। इसी प्रकार प्रथम ऐतिहासिक ग्रन्थ महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में तत्कालीन ऋषियों का विस्तृत इतिहास उपलब्ध है। इन दोनों महान् ऐतिहासिक ग्रन्थों में प्रकारान्तर से प्रासङिगक सन्दर्भों के रूप में भी इतिहास की अनेक उपयोगी सूचनाएं प्राप्त होती हैं। संस्कृत के महान ऐतिहासिक ग्रन्थ कल्ङण रचित राजतरङिगणी में कश्मीर के 86 राजाओं के समय 2442 वर्षों की अवधि का प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध है। राजतरङिगणी को आधुनिक दृष्टिकोण से लिखा गया संस्कृत भाषा का प्रमुखतम इतिहास ग्रन्थ माना जाता है। वास्तव में वाल्मीकीय रामायण , व्यासकृत महाभारतसविष्णु पुराणरघुवंश तथा राजतरंङिगणी के आधार पर ही प्राचीन भारत का सम्पूर्ण इतिहास प्रस्तुत किया जा सकता है। विभिन्न पुराणों में सुरक्षित कलियुगीन राजवंशावली एवम् अन्य ऐतिहासिक सूचनाओंबौद्ध साहित्यजैन साहित्य तथा अन्य ग्रन्थो मे बिखरी हुई जानकारियों को एकत्र कर महाभारत के बाद का इतिहास बहुत अधिक स्पष्ट रूप से तिथिक्रम तथा क्रमागत राजाओं की सूची सहित लिखा जा सकता है।

पुणें के विद्वान डा0 वी0 पी0 वर्तक ने खगोलीय आधार पर दावा किया है कि महाभारत युद्ध 16 अक्टूबर 5562 ईस्वी पूर्व में प्रारम्भ हुआ था। उन्होंने अपना शोध पुणे विश्वविद्यालय के भण्डारकर प्राच्य अनुसन्धान तथा एशियाटिकी सोसाइटी कलकत्ता में भप्रस्तुत किया था। प्रमुख चिकित्सक एवम् संस्कृत के विद्वान डा0 वर्तक के उक्त सोध का समाचार प्रेस ट्रस्ट आफ इण्डिया ने 15 मार्च 1978 को जारी किया था जो अगले दिन दैनिक जागरणकानपुर सहित विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था।

भारत में परम्परागत रूप से युगाब्ध के आधार पर निश्चित की गई इतिहास की तिथियाँ निर्विवाद रूप से मान्य है। पञ्चाङ्गों में वर्तमान समय तक कलि सम्वत् या युगाब्ध लिखा जाता है। महाभारत युद्ध के बाद की घटनाओं में युगाब्ध तथा युधिष्ठिर सम्वत् का प्रयोग किया जाता रहा है।

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धन्यवाद।।।।

 

 

 

 

By Anil

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